पंकज
अमूमन एक बजे तक सो जाता है. वह प्रयास करता है जल्दी सो
जाये. किंतु कभी-कभी जब साहित्यिक सम्मेलनों के देर तक चलने के कारण साथ ही सरकारी
परिवहन पर भी आश्रित होने के कारण औसत देर से भी अधिक देर से घर पहुंचता है. तब तक
घड़ी में रात
के एक बजे चुके होते हैं और फिर ऐसे में सोयी हुई पत्नी
को जगा कर भोजन के लिए कहना अजीब लगता है. मतलब बुरा लगता है. कई बार यही सोच कर
पंकज स्वयं के लिए स्वयं ही भोजन परोसने लगता है. किंतु आदत ना होने के कारण पंकज
कई बार बर्तनों की अपेक्षा के अनुसार उनसे उचित व्यवहार नहीं कर पाता, तो बर्तन विरोध स्वरूप उसके
अनुरूप आचरण करने से मना कर देते. परिणाम बर्तनों का हाथ से छूट कर गिरना और चोट
लगने पर बर्तनों का चिल्लाकर श्रीमती को जगा देना और फिर वह आंख मीच कर अंगड़ाई
लेते हुए भारी आवाज में कहती- जगा दिये होते ! यूँ बर्तन पटकने से तो अच्छा होता.
मैं डर गई थी. अचानक इतनी जोर से आवाज सुनकर, दिल धड़क रहा
है. खैर पत्नी खाना परोस कर वहीं फर्श पर बैठ जाती और फिर पंकज कहता है- जाओ,
आप सो जाओ. पत्नी कहती कुछ घटा बढ़ा तो... मैं बैठती हूँ, आप खा लो. इस पर पंकज कहता- नहीं, आप जाओ सो जाओ.
भूख मर गयी है. वैसे भी दो बजे रात कोई खाने का समय है, और फिर ठीक उसी समय उसे अम्मा की
बात याद आती. अम्मा कहती थी, रात को खाली पेट नहीं सोते. पंकज इतना बड़ा हो गया,
पर अम्मा का नाम लेते ही भावुक हो जाता है. फिर पत्नी डांटने के
अंदाज में कहती- “बीच में अम्मा को हर बार लाना जरूरी है !
अम्मा तो बहुत कुछ कहती हैं” सब मानते हैं क्या ? और उठकर चली जाती. पंकज भोजन के बाद थाली रसोई में नल के नीचे धीरे से रख
कर बरामदे में पड़े पतले से दीवान पर लेट जाता. दीवान इतना पतला कि नींद में भी
करवट लेते समय ध्यान रहता कि पूरा करवट लिया तो सीधा फर्श पर जाएगा. पूरी करवट
लेने के लिए हिंदी साहित्य की कमाई ने अभी तक उसे आज्ञा नहीं दी, परंतु आज की बात तो एकदम अलग है. वह रोज बिस्तर पर पड़ने पर एकाध घंटे में ही सो जाता था. परन्तु आज उसे नींद नहीं
आ रही थी. वह दो बार लघुशंका जा चुका था. बिना लघुशंका लगे. दो बार हाथ पैर धो
चुका था ताकि शरीर ठंडा हो और नींद आ जाये. गर्मी ने बनियान को पंखा चलने के
बावजूद गीला कर रखा था. वह दो बार समय जानने के लिए मोबाइल देख चुका था. रात बीत
रही थी, पर पंकज की
आंखों से नींद गायब थी. वह बेचैन सा होता जा रहा था. वह सो रहा था, बिना नींद आये. मतलब आखें बंद थी, पर वह जाग रहा था.
इसे सोने का नाटक भी कह सकते हैं और यह नाटक करते-करते अगर सुबह हो गयी तो उसका
पूरा दिन खराब हो जाएगा. शरीर भारी - भारी लगेगा. कल भी एक कार्यक्रम में जाना है.
वहाँ वह मुख्य अतिथि है, तो क्या वह मंच पर बैठकर झपकी लेगा
या सो जाएगा और इस बीच कैमरा अपना कमाल दिखा देगा. अगले दिन वह मीडिया से लेकर
सोशल मीडिया तक हँसी का पात्र बनेगा. यह सब विचार रह - रह कर उसके मन में आ रहे थे,
जा रहे थे. पर जिस विचार के भयानक प्रभाव के कारण से नींद नहीं आ
रही थी, उसे नजरअंदाज करने का वह बार-बार असफल प्रयास कर रहा
था. पर कब तक करता ? आखिरकार उसने एक बार फिर सिरहाने से
मोबाइल उठाकर समय देखा. घड़ी में सुबह के पौने पाँच बज रहे थे.फिर लेट गया इस बीच विचारों का प्रवाह और बढ़ गया. बात यह थी कि
कल उसके छोटे भाई नीरज ने दलित साहित्य के बारे में पूछा था, उसने बताया कि शोध ग्रंथ लिखना है. दलित साहित्य पर और वह कुछ दलित लेखकों
की किताबें भी ले आया था. उसे जैसे-जैसे वह पढ़ता, पंकज से
प्रश्न करता. यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा. पंकज का भाई नीरज परास्नातक अंतिम
वर्ष का छात्र था. उसने पंकज की साहित्य में थोड़ी बहुत ख्याति से प्रभावित होकर
ही हिंदी साहित्य से परास्नातक की पढ़ाई करने की ठानी थी. वैसे उसने स्नातक की
पढ़ाई कई वर्ष पूर्व ही सम्पन्न कर ली थी, किन्तु जब पंकज को
उसके पहले ही उपन्यास के लिए एक राज्यस्तरीय पुरस्कार मिला और नगर के साहित्यकारों
में थोड़ी चर्चा बढ़ी तो छोटे भाई की रूचि हिंदी साहित्य की ओर बढ़ी. पंकज के बढ़ते
प्रभाव के चलते नीरज ने पंकज के कई साहित्यिक कार्यक्रमों एवं कवि सम्मेलनों में
भाग लिया. परिणाम स्वरुप अब वह स्नातकोत्तर में हिन्दी साहित्य का छात्र था.
दलित
साहित्य की जिन पुस्तकों पर नीरज शोध कर रहा था. उनमें इस प्रकार की कहानियाँ थी कि ब्राह्मणों
ने दलितों को बहुत सताया, उनकी बेटियों, स्त्रियों के साथ अन्याय किया. उस बारे में वह पंकज से प्रश्न करता. पंकज
अपनी समझ के आधार पर उसका उत्तर देता. जिस पर नीरज कहता कि हमने तो किसी दलित की
स्त्री के साथ ऐसा नहीं किया और हमारे बाऊजी ने भी नहीं किया. आप के तो कई दलित
मित्र कवि और पत्रकार भी हैं. उनमें से कई हमारे घर आते हैं. चाय पीते हैं. भोजन
करते हैं. फिर यह सब क्यों पढ़ाया जाता है. हमारे साथ दलित भी पढ़ते हैं. वे यह सब
पढ़ने के बाद हमसे कटते हैं और कक्षा में उग्र रूप से अपनी बात हम लोगों की ओर देख
कर रखते हैं. जैसे हम अपराधी हैं. हमें अपराध बोध कराने का प्रयास किया जाता है और
फिर साहित्य तो साहित्य है. साहित्य में भी बंटवारा हो गया है भइया. पीड़ा तो पीड़ा
होती है भइया, चाहे दलित की उंगली कटे या सवर्ण की, दोनों को समान दर्द महसूस होगा. अब पीड़ा भी दलित और सवर्ण हो गयी.
कहते-कहते वह झुँझला सा जाता है. उसके चेहरे पर एक विवशता से भरी पीड़ा के रेशे उभर
आते हैं. पंकज नीरज की बातें सुनता है. कोई उत्तर नहीं देता. नीरज फिर भी बोलता
जाता है. जैसे उसके अंदर कितना कुछ भरा पड़ा है, जिसे उसे
तुरंत बाहर लाना है. उसे उन सभी प्रश्नों के उत्तर चाहिए. वह कहता है- हमने अभी पढ़ा है कि दलित साहित्य वह है जिसे दलित लेखक ने लिखा हो. तभी
वह दलित साहित्य कहलायेगा. जो दलित नहीं हैं वह भले ही उनकी पीड़ा के बारे में,
संघर्ष के बारे में लिखें, उसे दलित साहित्य
नहीं माना जाएगा. क्योंकि दलित साहित्यकारों का मानना है कि हमारी पीड़ा को गैर
दलित कैसे महसूस कर सकते हैं. इसलिए जिसने भोगा है. वही उसका सही वर्णन कर सकता
है.पंकज भाई की बातें सुनकर सोच में पड़ गया कि समाज और साहित्य कहाँ और किस दिशा
में जा रहा है. राजनीति तो जहर बो ही रही थी, अब साहित्य भी
जहर बो रहे हैं. वो भी उच्चतर शिक्षा के माध्यम से. यह सोचकर उसका रोम-रोम सिहर
उठा. वर सोचने लगा, हमारे जमाने में तो सिर्फ साहित्य था. उसमें हर वर्ग और समाज
का प्रतिबिम्ब था. प्रेमचंद, मैथली शरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, भैरव प्रसाद गुप्त, उग्र और यशपाल तक. किन्तु आज अगर स्नातकोत्तर तक के पाठ्यक्रमों में इस
प्रकार का साहित्य पढ़ाया जा रहा है तो कल यही दलित छात्र भारतीय प्रशासनिक सेवा
में जाएंगे. अधिकारी बनेंगे. तो यह सवर्णों या ग़ैर दलितों के साथ इसी भाव के साथ
पेश आएंगे, कि इनके बाप - दादाओं ने हमारे पूर्वजों के साथ
अन्याय किया है. इसका बदला लेने का अच्छा अवसर है और फिर उनके कर्तव्य पर उनका
पूर्वाग्रह से ग्रसित भाव हावी हो जाएगा. क्योंकि स्नातक और स्नातकोत्तर की उम्र
में एक स्थाई भाव भरने लगता है. यही उम्र परिपक्वता की प्रथम सीढ़ी होती है.
विचारों के पुष्ट होने का भी यही काल होता है. इस काल की शिक्षा का प्रभाव अंतर्मन
से लेकर बाहरी जीवन तक में जीवन भर रहता है. इसीलिए जो वे पाठ्यक्रम में पढ़ कर
जाएंगे. वही भाव कहीं न कहीं उनके अंदर गहरे पैठ जायेगा. जो सामाजिक समरसता और
राष्ट्रीय एकता और विकास के लिए घातक है. यह तो समतामूलक पढ़ाई नहीं है और फिर
पूर्वजों का बदला उसके भविष्य की पीढ़ियों से जिन्होंने कुछ किया ही नहीं, वह क्यों भोगें ? जबकि स्वतंत्र भारत का कानून तो
हत्या के बदले हत्या की इजाजत नहीं देता. या किसी ने किसी की हत्या कर दी, तो जिसकी हत्या हुई उसकी संतानें, हत्यारों की आने
वाली वाली पीढ़ियों की हत्या करती रहें. यह कौन से इंसाफ की तरफ ले जायेगा. यह तो
इन्साफ नहीं हुआ. इस तरह तो कभी शांति होगी ही नहीं.यह तो अंतहीन बदले की भावना
है.
वर्तमान आरक्षण व्यवस्था इसी अंतहीन बदले की भावना की उपज है. आरक्षण
वालों का तर्क है कि सामाजिक पिछड़ापन, आर्थिक पिछड़ेपन से अधिक महत्वपूर्ण है.
किन्तु क्या यह सत्य नहीं कि जो एक लंबे समय तक आर्थिक रूप से पिछड़ा रहेगा,
वह सामाजिक रूप से नहीं पिछड़ जायेगा. एक वर्ग को सामाजिक पिछड़ेपन
से उबारने के लिए दूसरे को सामाजिक पिछड़ेपन के कुएं में ढकेल देना कहाँ की
बुद्धिमानी है. डॉ आम्बेडकर तो दूरदर्शी थे. उन्होंने इसीलिये आरक्षण की व्यवस्था
कुछ समय के लिए की थी. किंतु उसके राजनीतिक और सामाजिक दुरुपयोग के दुष्परिणामों
का ऐसा भयानक परिणाम आया कि वह घृणा के रूप में न सिर्फ परिवर्तित हुआ बल्कि
साहित्य के चोले में पाठ्यक्रमों तक में घुसपैठ कर लिया. यहाँ आकर उसने अपना खेल
दलित साहित्य बनाम अन्य साहित्य का अखाड़ा रच दिया. तो क्या अब सवर्ण साहित्य भी
लिखा जायेगा. क्या जो सवर्ण पिछले 70 वर्षों से गरीब है, वह सामाजिक रुप से पिछड़ नहीं गया
है और जो दलित 70 वर्षों से आरक्षण ले रहा है अभी तक अगड़ा नहीं है. भारत कहाँ जा रहा है ? पंकज को याद आया सरकारी अस्पताल
में जब आकांक्षा पैदा हुई तो जन्म प्रमाण पत्र के समय जाति पूछी गयी थी. पंकज ने
प्रश्न किया था ! जाति लिखना आवश्यक है ? सामने से उत्तर
मिला था “हाँ”, सरकार जाति चिल्लाकर
पूछती है और आप ने पूछ लिया, तो
आप पर जातिवादी होने के कारण में जेल जाना पड़ सकता है. क्या ऐसे भारत की कल्पना
भारत के पूर्वजों ने की थी ? आज आरक्षण के कारण देश
ज्वालामुखी पर बैठा हुआ है. सात दशकों से एक वर्ग आरक्षण ले रहा है फिर भी वह
सामान्य जीवन जीने योग्य नहीं बन पाया. जिसे 7 दशकों से आरक्षण के अस्त्र से रोका जा रहा है क्या
वह पिछड़ा एवं वंचित नागरिक नहीं हो जाएगा. पंकज के मस्तिष्क में यह विचार तेजी से
विचरण कर रहे थे. इन 72 वर्षों में कई पीढ़ियां बदल गयी. तीन पीढ़ियाँ
आरक्षण ले चुकी हैं. पाँच हजार की नौकरी वाले का वेतन पचास हजार और दस हजार वाले
का वेतन एक लाख के करीब पहुँच गया है. उसके बाद भी वह पिछड़ा है. उसके बच्चे अच्छी
शिक्षा लेकर भी पिछड़े हैं. वह भी आरक्षण के सहारे सरकारी नौकरी में आते है. उनके
बच्चे भी शानदार निजी अस्पताल में जन्म लेते हैं. पालन पोषण शानदार परिवेश में
होता है. जन्मदिन पर पार्टियाँ होती हैं. क्षेत्र के सबसे अच्छे और मंहगे विद्यालय
में पढ़ते हैं. फिर भी वह पिछड़े हुए हैं और वह सवर्णों के अत्याचार के मारे हुए
हैं. तीन पीढ़ियों से आरक्षण, दादा जी सवर्णों के सताए हुए तो आरक्षण से नौकरी,
फिर पिता जी भी सताये हुए, तो आरक्षण से नौकरी और अब बंगला, गाड़ी नौकर- चाकर होने के बावजूद भी सवर्णों के अत्याचार के सताये हुए होने
के कारण खुद को भी आरक्षण से नौकरी, इतने पर भी वे पिछड़े हैं
और पंकज अगड़ा है. भले ही पैसे न होने के कारण पंकज अपने बच्चों का पिछले वर्ष
विद्यालय में प्रवेश न दिला सका. इस वर्ष दिलाया भी तो मित्रों से कर्ज लेकर, उसमें भी भाग दौड़ करते दो महीने लग गये थे. पर
वो अगड़ा है. उसे सरकारी छूट या सहायता का हक नहीं है. इन्हीं विचारों ने पंकज की
नींद हराम कर दी थी और वह सो न सका. बेचैनी जब हद से ज्यादा बढ़ गयी तो वह बिस्तर
से उठकर बैठ गया. दीवान के सहारे धीरे - धीरे दरवाजे
के पास बने बिजली के बोर्ड को उँगलियों के स्पर्श के सहारे पहचानने के प्रयास में
घुप्प अंधरे में ही बटन टटोलने लगा ताकि बल्ब जला सके. आखिरकार बल्ब जलाने में सफल
हो गया. अचानक सब कुछ साफ़-साफ़ दिखने लगा. आखें कुछ क्षणों के लिए चुधियाँ गयी थीं.
पर उसे कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ा था. बस वह कलम की तलाश में था और उसकी तलाश मेज के
निकट पहुँच कर समाप्त हो गयी. मेज पर रखे कलमदान में कई कलमें पड़ी-पड़ी ऊँघ रही थी.
पंकज के बेढंगे तरीके से सबको जगा दिया और एक की गर्दन पकड़ कर बड़ी बेरुखी से उठा
लिया. जबकि वह कलम को बड़े ही नाजुक तरीके से उठाता रहा है और उन्हें करीने से रखता
भी है. उसे कलम से प्यार है. वह अपनी जेब को अक्सर कलमों से भरा रखता है.. यदा -
कदा लोग उत्सुकतावश पूछते भी हैं. जेब में आधा दर्जन से अधिक कलम रखने का
कारण....खैर, वह कलम लेकर कुर्सी पर बेपरवाही से धम्म की
आवाज़ के साथ बैठ गया. वह एक लेखक है. सो अपनी बात कलम के जरिए ही कहेगा, किंतु उसे
अभी के इस विचार ने लेखक से अचानक सवर्ण लेखक बना दिया.बना भी क्यों दे? अभी पिछले
महीने ही कानपुर के एक लेखक मित्र ने एक महान लेखक की एक स्थापना को लेकर चर्चा की
थी, पंकज ने उस स्थापना को अपने तर्कों के माध्यम से चुनौती दी तो उनके मित्र ने
इस पर विषय पर विशद विचार विमर्श के लिए सोशल मीडिया पर डाल दिया और उसमें पंकज का
उल्लेख कर दिया. उस पर कुछ दिनों तक अच्छा विमर्श हुआ. किन्तु कुछ दिनों बाद ही जब
कुछ लोग पंकज के तर्कों का जवाब नहीं दे सके, तो उन्होंने पंकज को दलित विरोधी
कहना आरम्भ कर दिया.चूँकि उन्होंने पंकज के उपनाम से जान लिया था.जिस महान लेखक की
स्थापना को लेकर विमर्श हो रहा था, अचानक उन्हें महान लेखक से दलित लेखक घोषित कर
दिया गया था और उनकी प्रतिष्ठा को योजनाबद्ध तरीके से ठेस पहुँचाने का
ब्राह्मणवादी षडयंत्र कह के उस महत्वपूर्ण विमर्श की हत्या कर दी गयी थी. उससे भी
पंकज को कहीं लगा था कि यह दलित नाम का हथियार तो इस तरह सही विमर्श की भी हत्या
कर देगा और गैर दलित लेखकों को चुप कराने का नया हथियार बन रहा है. ऐसे ही समय में
उसके भाई का इस प्रकार के प्रश्नों को लेकर आना. उसके मस्तिष्क पर जोर डाल रहा था.
उसका दिमाग बदला और उसने अपने जीवन को अभी- अभी एक सवर्ण के नजरिये से याद किया.
तो पूरा दिमाग नहीं, शरीर भी चकरा गया. भयानक संघर्ष से भरा
जीवन, क्योंकि वह सवर्ण है ! इसलिए उसके संघर्ष और पीड़ा का
महत्व नहीं, किंतु वह सबसे पहले मनुष्य है. उसके बाद लेखक और
हाँ, सवर्ण लेखक तो अभी - अभी बन रहा है क्योंकि इस कहानी
[आत्मकथ्य] के बाद उसे यही कहा जाएगा. पर उसने बिना इन सबकी परवाह किये अपने जीवन
संघर्ष के एक अंश को लिखना आरंभ किया... उसे अकस्मात अपना बचपन याद आया और वह कुछ
ही क्षणों में अपने बचपन में खो गया.
पंकज गांव के प्राथमिक विद्यालय का छात्र था, उसे
याद है. वह पांचवी कक्षा का छात्र था. उसकी फीस सवा रूपये प्रति माह थी. वहीं उसके
सहपाठी प्रमोद की फीस चार आने महीना थी. यह बात उसे अक्सर खटकती थी. उसने कई
सहपाठियों से पूछा भी था, जिन्हें वह खुद से होशियार समझता
था. पर उनके उत्तर से पंकज संतुष्ट नहीं हो सका था. उसे एक बात अक्सर खटकती रहती.
एक दिन उसने हिम्मत करके अपने अध्यापक रामपुर वाले मौर्या मुंशी जी से पूछा था.
मुंशी जी हमारी फीस सवा रूपये और प्रमोद की क्यों चार आना है. मुंशी जी ने हँसते
हुए कहा था. वह गरीब है, इसलिए उसे चार आना देना पड़ता है.
उसे सरकार की ओर से छूट है. मुंशी जी का उत्तर सुनकर पंकज ने अपने नंगे पाँव को
निहारा था और हिचकते हुए मासूमियत से पूछा था, तब हम क्या
हैं मुंशी जी ? पंकज के इस प्रकार पूछने पर मुंशी जी ने पंकज
को उत्तर देने से बचने के लिए कहा – चलो, अब जाओ सुलेख लिखो. घर जाकर पंडित जी [ पिता ] से पूछ लेना. पंकज अनमने
ढंग से उठकर अपनी कक्षा में जाकर फटे हुए टाट पर बैठ कर प्रमोद को निहारने लगा. वह
सोच रहा था कि प्रमोद उससे गरीब कैसे है ? उसके घर पर तो
रेडियो है, पांच सेल वाली बत्ती भी है. एवन की नयी साइकिल भी
है. पर इनमें से पंकज के घर में कुछ नहीं है. हाँ, बत्ती तो
है. पर तीन सेल वाली है. वो भी आज-कल सेल खराब होने से उजाले के नाम पर जुजजुगाती
है. पंकज का बालमन अंदर ही अंदर प्रमोद से अपनी तुलना कर रहा था कि तभी मुंशी जी
ने छड़ी घुमाते हुए आवाज़ लगायी. किसका-किसका सुलेख हो गया. जल्दी दिखाओ. लेखन सुंदर
नहीं होने पर बोर्ड परीक्षा में नम्बर कट जाता है. याद रखना, खासकर कक्षा पाँच वाले. मुंशी जी की चेतावनी ने पंकज के विचार मंथन को भंग
किया और उसने जल्दी – जल्दी झोले से हिन्दी की किताब निकाली.
पाठ पाँच खोल सामने किताब रख दी और उसके बाद दवात का ढक्कन खोल सरकंडे की कलम को
जल्दबाजी में दवात में पूरी ही डुबा दिया. जिससे लिखते समय ज्यादा स्याही होने के
कारण पन्ने पर फ़ैल गयी. और उसे सोखते से पोछ कर नये पन्ने पर लिखना पड़ा. जैसे तैसे
उसने सुलेख लिखकर मुंशी जी को दिखाया. मुंशी जी उसकी लेखनी देखकर खुश नहीं थे.
किन्तु पंकज का परेशान चेहरा देखकर कुछ अधिक बोले नहीं, बस
इतना कहा- तुम इससे अच्छा लिख सकते थे और मेहनत करो. पंकज ने उत्तर में, जी मुंशी जी, कहकर जान छुड़ा ली थी. पाठशाला से
छुट्टी होने पर पंकज की नज़र प्रमोद पर थी. प्रमोद जैसे ही कक्षा से बाहर निकला,
पंकज भी पीछे-पीछे आया. उसने देखा प्रमोद पाठशाला के बरामदे में पड़ी
टूटी मेज के पीछे के कुछ निकाल रहा था. पंकज पीछे रुककर ध्यान से देखने लगा. उसने
देखा कि प्रमोद ने एक जोड़ी चप्पल निकाली और पोछ कर पैरों में पहनते हुए चल दिया.
प्रमोद को जाते देख पंकज जोर से चिल्लाया... प्रमोद... प्रमोद... पंकज की आवाज
सुनकर प्रमोद रुक गया था. पंकज ने पास पहुँच कर पूछा था. चप्पल यहाँ क्यों छुपाया
था. प्रमोद ने कहा- नया है, कोई देख लेता तो चुरा लेता. अभी
पिछली बज़ार में ही माई खरीद के लायी थी. अल्फा का है, अट्ठारह
रूपये का है, इतना कहकर प्रमोद पैर घुमा-घुमा कर दिखाने लगा.
फिर प्रमोद ने पंकज के पैरों की तरफ देखते हुए कहा- तुम्हारी चप्पल क्या हुई. कोई
चुरा लिया क्या ? पंकज ने बहाना बनाते हुए कहा – नहीं, जल्दी - जल्दी में चप्पल पहनना ही भूल गया था.
घर पर है. अच्छा चलता हूँ, मुझे एक जरूरी काम याद आ गया.
इतना कहकर पंकज नंगे पाँव बाग़ की ओर दौड़ पड़ा और तब तक दौड़ता रहा जब तक कि सभी
सहपाठियों की दृष्टि से पूरी तरह ओझल नहीं हो गया. वह आम के एक
पेड़ के नीचे बस्ता फेंक कर धम्म से जमीन पर बैठ गया. आखों से चुपचाप आंसू गिर रहे
थे और वह बुरी तरह हांफ रहा था. पिछले इतवार से ही बाऊजी को चप्पल के लिए बोल रहा
है. पर ये इतवार गुजर जाने के बाद भी उसकी चप्पल नहीं आयी. तब से वह नंगे पैर ही
पाठशाला आ रहा है. तब से दो बार पैर में काँटा भी चुभ चुका है और एक बार तो खून भी
निकलने लगा था. पुराना चप्पल पहले ही दो बार सिलवा चुका था, पर उस दिन गाय चराते हुए खुत्थी
धंसने से चप्पल सिलवाने लायक भी नहीं बचा था. ऐसे में उसे वहीं खेत में छोड़ दिया
था. तब से आज तक नंगे पैर ही चल रहा है. फिर भी प्रमोद गरीब है वह नहीं, उसने सारे तर्क मन ही मन कर लिये. पर कुछ समझ में नहीं आया और झुँझला कर
बस्ता उठा, पीठ पर पटकते हुए घर की ओर चल दिया.
घर पहुँचते ही पंकज बरामदे की कोठरी में बस्ता फेंक कर आँगन की ओर दौड़ा
था. वहाँ अम्मा को सूप से गेहूँ फटकारते देख एक साँस में हाँफते हुए बोला था-
अम्मा-अम्मा, बाऊ जी कहाँ हैं ? अम्मा
यूँ बाऊ जी के बारे में पूछने पर थोड़ा विचलित हो गयी थी और अचकचाते हुए बोली थी,
हुआ क्या है ? बोलो- क्या बात है ? क्योंकि इससे पहले जब भी पंकज पाठशाला से घर आता तो उसका पहला वाक्य होता-
“ अम्मा जल्दी से खाना दो, बहुत जोर की
भूख लगी है” परन्तु आज उसने भोजन का जिक्र न करते हुए सीधे
बाऊ जी के बारे में पूछा, ऐसे में अम्मा का चिंतित होना
लाजमी था. जरुर कोई बड़ी या जरुरी बात होगी. अम्मा फिर पंकज से बोली- क्या काम है
बताओगे ? पंकज बोला – बाऊ से कुछ पूछना
है ? अम्मा बोली- क्या पूछना है ? मुझे
बताओ ? पंकज बोला- तुम नहीं समझोगी. अम्मा बोली- ऐसी क्या बात है ? पंकज झुझलाते हुए
बोला- तुम बस ई बताओ बाऊ जी कहाँ हैं ? अम्मा बोली- बता
दूँगी, परन्तु मुझे भी तो बताओ, ऐसी
क्या बात है? कि इतने उतावले हो, आज खाना-पीना के बारे में
बिना कुछ पूछे सीधे बाऊ जी को पूछ रहे हो. आज भूख नहीं लगी है! पहले कुछ खा लो.
पंकज बोला- अच्छा ई बताओ ! हम गरीब हैं कि अमीर ! अम्मा के लिए पंकज का यह प्रश्न
एकदम अप्रत्याशित था, हिचकिचाते हुए बोली- आज ये अमीर गरीब
तुम्हरे दिमाग में कहाँ से आ गया ? कोई कुछ बोला क्या ?
पंकज फिर झुँझलाते हुए बोला – हम जो पूछे बस ऊ
बताओ, मुझे पता था तुम्हें नहीं मालूम, तुम तो पाठशाला भी नहीं गयी न, इसीलिये बाऊ जी को
पूछ रहा था. बेटे के मुँह से इस प्रकार की बात सुनकर अम्मा के मन को भी बात लगी
थी. फिर उन्होंने दबे स्वर में कहा था – हम गरीब हैं बेटा,
फिर भी हमें खाने पीने की कोई कमी नहीं है. आखिर ऐसा क्यों पूछ रहे
हो ?किसी ने ताना मारा, कुछ कहा क्या ?पंकज
ने अम्मा के प्रश्नों का जवाब दिये बिना अगला प्रश्न दाग दिया. प्रमोद हमसे भी
गरीब है. अम्मा बोली – कौन परमोद ? पंकज
ने कहा - ऊ चमरौटी का. अम्मा बोली- मुझे नहीं पता, हम उसका
घर दुआर थोड़े ही देखे हैं. माँ - बेटे में यह बातचीत चल ही रही थी कि बरामदे से एक
जानी पहचानी आवाज गूँजी- पंकज की अम्मा, ओ पंकज की अम्मा,
इतना सुनते ही पंकज की अम्मा बोल पड़ी- लो, आ
गये तुम्हरे बाऊ जी, अपना पल्लू ठीक करते हुए अम्मा सूप एक किनारे
रख कर दालान की की चौखट पर आकर खड़ी हो गयी. पंकज के बाऊ को सामने से आते देख बोली-
जी, पंकज के बाऊ बोले– पंकज पाठशाला से
नहीं आये. अम्मा बोली ये क्या आँगन में है. जब से आया है. परेशान कर दिया है. आप
को ही पूछ रहा था. पता नहीं किसने क्या पट्टी पढ़ा दी है, गरीब अमीर पता नहीं क्या
- क्या पूछ रहा है. आप ही पूछिये- इतना कहकर अम्मा बाऊ जी के लिए पानी लाने चली
गयी. बाऊ जी आंगन में पड़े पीढ़े पर धोती संभालते हुए बैठ गये. बाऊ जी ने पंकज की ओर
देखते हुए पूछा- क्या हुआ बेटवा ? पंकज बाऊ जी को देखकर
अक्सर सौम्य और सिथिल हो जाता था, किन्तु आज ऐसा बिलकुल नहीं
हुआ. उसने तुरंत बाऊजी से पूछा था कि हमारी फीस सवा रूपये और प्रमोद की चार आने
क्यों ? बाऊ जी ने कहा था वह गरीब है. इस पर पंकज ने कहा -
तो हम गरीब नहीं हैं ! पंकज अपने दाहिने पैर के तलवे का जख्म दिखाते हुए बोला-
बिना चप्पल के मेरे पैर में परसों काँटा धँस गया था. अभी भी दर्द हो रहा है. मेरा
चप्पल लाये कि नहीं, बाऊ जी को पंकज की इस बात का तत्क्षण
कोई उत्तर नहीं सूझा. मुझे पता था आप नहीं लाओगे ! प्रमोद अल्फा का नया चप्पल पहन
के आया था. पता है उसके घर पर रेडियो भी है आप तो बीबीसी का समाचार सुनने नरायन
बाबा के घर पूरब टोला जाते हैं. फिर भी वह हमसे गरीब है. बाऊ जी बात बदलते हुए
बोले- मैं समझ रहा हूँ. तुम्हें अल्फा का चप्पल चाहिए न, अबकी
बुध बजार को नया बढ़िया चप्पल लाऊँगा. पंकज बोला- आप तो कब से कह रहे हैं चप्पल
लाने को. पंकज फिर अपने मुद्दे पर आ गया और बोला- बाऊ जी फिर हमारी फीस चार आना
क्यों नहीं ? बाऊ जी अब थोड़ा झुँझलाते हुए बोले- क्योंकि वे
हरिजन हैं और हम बाभन हैं. पंकज फिर बोला- लेकिन. गरीब तो हम भी हैं न. अबकी बाऊ
जी खीझकर बोले- तुम अभी नहीं समझोगे, बच्चे हो ! इतना कह कर बाबू
जी बात टाल दिये थे और बिना पानी पिये बाहर चले गये थे.
एक दिन पंकज को गाय चराते हुए फक्कड़ सुकुल चाचा मिल गये थे. बहुत मनमौजी
थे, अक्सर जब अकेल होते, टेर लगा के गाया करते थे, अक्सर वे खदरा या पूरब की बाग़ में भैंस चराते हुए मिलते थे. लोग कहते थे
वे पढ़ने में बहुत तेज थे, डीयम बनते बनते रह गये थे, बाभन होने के कारण डीयम नहीं बने. दिल्ली में जाकर बाभन, ठाकुरों और लालाओं के लड़कों के साथ आन्दोलन भी किये थे. पुलिस लाठी चार्ज
में कपार फूट गया था. बड़े मुश्किल से जान बची थी. कपार का ऑपरेशन हुआ था. कपार में
सिलाई का निशान अभी भी है. एक साल तक गुमसुम रहे. सब कहते हैं उनके दिमाग पर इसका
अइसा असर हुआ कि उसी सदमे के चलते एक बार तो पागल भी हो गये थे. कई साल तक पैर और
हाथ में जंजीर पड़ी हुई थी. इसीलिए उनकी सादी भी नहीं हुई. ठीक होने के बाद से बहुत
बोलते हैं. पढ़ाई और सरकारी नौकरी का नाम लेने पर भड़क जाते हैं. वैसे दिमाग अभी भी
है. देश के बारे में कुछ भी पूछो, किसी भी राज्य के बारे में,
बिना सोचे, झट से बता देते हैं. बस मूड अच्छा
होना चाहिये. संजोग से आज मूड अच्छा था. बड़े टेर में गा रहे थे... पढ़ी लिखि के का
होई हो सैंया, आखिर भंईस चरइबै हो सैयां... पढ़ी लिखि के का होई... पंकज भी धीरे से
जाकर जमीन फूँक के बैठ गया और उनका लोक गीत सुनता रहा. ख़त्म होने पर बोला- बहुतै
अच्छा गाये सुकुल चाचा. सुकुल चाचा भी खुश होकर पीठ पर एक धौल जमाते हुए बोले- वाह
बेट्टा, तुम्हरे भी समझ में आवत है. सुना है तुमको दो अक्षर
आवत है. पर याद रक्खो, कितना भी पढ़ लो, बाभन के बेटवा हो, गोबर ही काढ़ोगे. पंकज तो अपने
प्रश्न के उत्तर की खोज में था, सो मौक़ा देख अपना प्रश्न दाग
दिया. इ तो ठीक है चाचा, पर एक बात पूछूँ- सुकुल चाचा मूड
में थे सो बोले- एक क्या दो पूछ ले. तू भी क्या याद रखेगा. हाँ, पर मेरी भैंस भी
तुझे हाँक के लानी पड़ेगी. पंकज ने कहा – ठीक है चाचा. हाँ,
अब पूछ सुकुल चाचा बोले, पंकज बोला- चाचा ई
हमार फीस सवा रुपया और प्रमोद की फीस चार आना क्यों है. चाचा बड़े जोर से हँसे,
बाभन है न, पंकज ने कहा- हाँ, फिर तो जजिया कर देना पड़ेगा बेट्टा, पंकज ने पूछा- ई
जजिया कर क्या होता है चाचा, सुकुल चाचा ने कहा- जजिया कर
औरंगजेब ने बाभनों पर लगाया था क्योंकि बाभन मुसलमान नहीं थे और मुसलमान बनने को
तैयार नहीं थे. अब इस सरकार ने लगाया है क्योंकि हम हरिजन नहीं हैं, हमसे कर वसूलकर इनका भला करेगी और यहाँ तो हरिजन बनने का भी रास्ता नहीं
है, वहाँ तो मुसलमान बनने का रास्ता था. पर हम नहीं बने. तब
गुलाम थे, पर जिस आजादी के लिए हमारे पुरखे चन्द्रशेखर आज़ाद
मरे, गोली खाये, वही आजादी मिलने पर
हमसे ही जजिया कर लिया जा रहा है. पता है चंद्रशेखर आज़ाद तिवारी थे. कुछ समझ में
आया. पंकज ने ना में सर हिलाया. चाचा झुँझलाते हुए बोले- घंटा समझ में आयेगा. अभी
अंडे में से निकले हो, फिर क्या पूछते हो ? जाओ भैंस फुनकू के खेत की ओर जा रही है, हाँक कर
लाओ. पंकज चुपचाप सुकुल चाचा की भैंस हाँकने को दौड़ पड़ा.
उन्हीं दिनों पंकज के घर में बंटवारा हुआ था. चाचा जी और पंकज का चूल्हा
अलग हो गया था. चाचा जी शहर में कमाते थे. पंकज के बाऊजी खेती में थे. सो बंटवारे
में सब बँट गया था. परन्तु भूसे में रखा गेहूँ, रहर और चना
नहीं बंटा था. बंटवारे के बाद चाचा शहर चले गए थे. खाने का अन्न रसोई में १५ दिन
का ही था. सो पन्द्रह दिन बाद भूखे सोने की नौबत आ गयी. अम्मा, बाऊ, भाई-बहन मिलाकर कुल ७ जन होते थे. भूसे से अनाज
निकाला नहीं जा सकता था. क्योंकि उसमें पंकज के चाचा और बाऊजी दोनों का हिस्सा था.
जब तक चाचा शहर से नहीं आये, तब तक चाची ने अनाज बंटने नहीं
दिया. चाची के दो बच्चे थे और दोनों शहर में ही पढ़ते थे. अनाज बाँटने को लेकर एक
दो बार झगड़ा भी हो गया. पर चाची की जिद थी सो जब चाचा शहर से नौ महीने बाद आये. तब
जाकर अनाज बंटा. इन नौ महीनों में पंकज की अम्मा ने अपनी ७ संतानों का पेट भरने के चक्कर
में अपनी चांदी की करधन, बाजूबन्ध, पाजेब और पायल सुनार के हवाले करने को
मजबूर हो चुकी थी. बाऊ जी भी बहुत परेशान थे. उन्हीं दिनों उन्हें पता चला था कि
भारत सरकार ने शिक्षा की एक नयी योजना चलायी है. जिसमें प्रतिभाशाली छात्रों को
निःशुल्क आवास, भोजन और शिक्षा की सुविधा कक्षा छः से
बारहवीं तक मिलती है. उसका नाम नवोदय विद्यालय है. पंकज को याद आता है कि एक दिन
जब मई की गर्मियों में लू से भरी दोपहर में जब आम के बाग़ से लौटे थे तो बाऊ जी ने
उस दिन डाँटने के बजाय सहजता से अपने पास बुलाकर तख्ते पर बैठने का संकेत किया था
और पंकज एक अनजाने भय से भयभीत हो रहे थे. बाऊजी स्वभाव से थोड़े कड़े थे. पंकज के
पुराने अनुभव बाऊजी के साथ बहुत अच्छे नहीं थे. पर आज का अनुभव बुरा नहीं था. बाऊ
जी ने बिना किसी भूमिका या इधर-उधर की बात के सहजता पूर्वक सीधे-सीधे कहा था,
मेहनत से पढ़ो, उतौरा वाले मुंशी जी का बेटा नवोदय विद्यालय
में चुन लिया गया है. तुम भी अगर टेस्ट में पास हो गये तो, छठी
से बारहवीं तक तुम्हें सरकार पढ़ायेगी और मुझे भी तुम्हारी पढ़ाई की चिंता से
मुक्ति मिल जायेगी. बाऊजी अक्सर नवोदय की चर्चा करते. जब नवोदय के फॉर्म भरने की
बारी आयी. तो बाऊजी एक दिन विद्यालय के मुख्याध्यापक मुंशी जी से मिलने आए थे.
मुंशी जी दलित थे और हमारे बाऊ के सहपाठी भी रहे थे. मेरे बाऊजी गरीबी और दुश्मनी
के कारण नहीं पढ़ सके थे. कारण मेरे बाऊ के बाऊ की अर्थात मेरे दादाजी की हत्या
हुई थी. जब मेरे बाऊ जी कोई 8 वर्ष के रहे होंगे, जैसा कि मैंने सुन रखा है. मेरे बाऊजी ने या हमने
उसका बदला आज तक नहीं लिया. हमें भी सताया गया. हमारी खड़ी और हरी फसलों को खेत में
ही बर्बाद कर दिया गया था. खेत से गेहूँ घर आता. इससे पहले ही उसमें आग लगा दी गयी
थी. जिसका भयानक परिणाम यह हुआ कि मेरे बाऊजी और चाचाजी को लेकर मेरी दादी अपनी
बड़ी बहन के घर चली गयी थी. बाऊजी को वर्षों अपने पैत्रिक गाँव से अपनी इच्छा के
विरुद्ध निर्वासित होना पड़ा था. थोड़ा बड़ा होने पर दादी बाऊजी और चाचा को लेकर गाँव
लौटी थी. केस- मुकदमे चल रहे थे. केस वापस लेने के लिए धमकियाँ भी मिल रही थी.
हत्यारे गाँव के ही थे. भय का साया हमेशा सर पर मंडराता रहता. खैर बात बहुत पुरानी
और भावनात्मक है, पर बहत्तर वर्ष पुरानी नहीं है. पर हमने
उसका बदला नहीं लिया. आरक्षण वाले कानून को ध्यान में रखें तो, ले सकते हैं और ले लेते. ये तो हमारा अधिकार बनता. खैर विषय पर आते हैं तो
हमारे बाऊजी मुंशी जी से मिले. मुंशीजी बाऊ जी को देखते ही हँस कर मिले. अरे आइये
पंडित जी ! कैसे आना हुआ ? बाऊजी बोले- ठीक हूँ मुंशी जी.
मैं चाहता हूँ कि पंकज नवोदय की परीक्षा दें. मुंशीजी एक लंबी साँस लेते हुए बोले-
पंडित जी, आप का लड़का नवोदय में बैठने योग्य नहीं है. बाऊजी
यह सुनकर हक्के-बक्के रह गये और हकलाते हुए बोले- क्यों मुंशी जी ? मुंशी जी बोले- बैठिये बताता हूँ. इतना कहकर मुंशी जी मुख्याध्यापक वाले
कक्ष में गये और कुछ देर बाद लौटे तो हाथ में एक पर्चा और रजिस्टर था. बाऊजी को
पर्चा थमाते हुए मुंशीजी बोले- इसे पढ़िए, इसमें साफ़-साफ़ लिखा
है कि जिस विद्यार्थी का विद्यालय से नाम साल में एक बार भी खंडित हो जायेगा,
वह नवोदय की प्रवेश परीक्षा में बैठने के योग्य नहीं रहेगा. बाऊ जी
ने कहा- तो फिर. मुंशीजी ने बाऊ जी को याद दिलाया कि आप के बेटे नाम चार महीने की
फीस बकाया रहने के कारण काट दी गयी थी. बाऊजी ने कहा- किन्तु हमने तो फीस बाद में
भर दी थी. इस पर मुंशी जी ने कहा- हमने भी तो उसी वक्त नाम लिख दिया था, पंडित जी ! किंतु आप के बेटे का नाम एक बार कट चुका है. इसलिए आपका बेटा
नवोदय की प्रवेश परीक्षा में भाग नहीं ले सकता. बाऊजी को काटो तो खून नहीं. कुछ
बोले नहीं, चुपचाप उठ कर चल दिये. पीछे मुड़कर विद्यालय की
तरफ देखे भी नहीं. उस दिन रात को भोजन भी नहीं किये. अम्मा को बताते - बताते उनकी
आंखें भर आयी थीं. बार-बार अंगोछे से आँसू पोछ रहे थे. अम्मा भी रोने लगी थी.
अम्मा बोली कि हमारा इतना खराब दिन कि हम अपने बेटे की सवा रुपये की फीस नहीं भर
सकते. मैं जानती तो नथनी भी बेच देती. बाऊजी तब अम्मा से बोले- पंकज की अम्मा ये
पहले से सोची समझी चाल थी. ताकि हमारे पंकज नवोदय की परीक्षा में बैठ न सकें. गाँव
के लगभग आधे बच्चों की फीस बाकी रहती है और हम हर साल ही हम चार-पाँच महीने की फीस
एक साथ भरते थे. नहीं तो मुंशीजी खुद भर देते थे. पर इस बार क्यों काट दिये थे ?
मैंने पूछा भी था, नाम क्यों काट दिया ?
बोले नियम है, उसमें क्या ! फिर से लिख देता
हूँ. तो उन्होंने आज के दिन के लिए नाम काटा था. अम्मा बोली- ये तो आप के साथ पढ़े
थे, जब ई गाँव में आये थे, आप बड़े खुश
थे. बाऊ जी कुछ नहीं बोले थे, उठकर सीधा बरामदे में चले गये
थे. बाऊजी कई दिन बेचैन रहे. कई शिक्षकों से बात किये. उसी पाठशाला में मौर्या
मुंशी जी भी थे. उनके घर जाकर बात की थी. तो जो बात पता चली वो इस प्रकार है- एक
विद्यालय से कोई एक ही विद्यार्थी नवोदय की परीक्षा में चुना जाएगा. परीक्षा में
बैठने को कई बैठ सकते हैं. मैं पढ़ने में अच्छा था. मेरे एक सहपाठी वो भी पढ़ने
में अच्छे थे. पर पिछले साल के परीक्षा परिणाम में वह मुझसे थोड़ा ज्यादा पीछे थे.
उन पर मुंशी जी विशेष ध्यान भी देते थे. वह भी मुंशीजी की तरह दलित थे. मेरे
परीक्षा में बैठने से उनके चुने जाने की संभावना क्षीण हो जाती. इसलिए मेरे साथ खेल
हुआ. खैर मेरे दलित सहपाठी नवोदय की परीक्षा में भाग लिये, लेकिन
दुर्भाग्य से सफल नहीं हुए और हमारे मुख्याध्यापक मुंशी जी का श्रम सार्थक ना हो
सका. जिसका हमें भी खेद रहा. वो एक खेल मेरे साथ जीवन भर चला. चूँकि मैं सवर्ण
हूँ. इसलिए इसका ज्यादा महत्व नहीं है. गरीबी ने मेरी पढ़ाई की बलि ले ली. माँ की
बीमारी के इलाज के लिए मुंबई आना पड़ा और यहीं का होकर रह गया. रात्रिकालीन
विद्यालय से नौवीं किया, फिर कुछ साल बाद दसवीं, फिर कुछ साल
बाद बारहवीं और फिर आर्थिक कारणों से स्नातक न कर सका. पिछले दिनों जब कुछ
संस्थाओं ने मिल कर सम्मानित किया तो मंच से मेरे एक पिछड़ी जाति के मित्र ने मेरी
अधूरी शिक्षा की बात उठाई. उनकी मंशा साफ़ थी कि लोग जान सकें कि यह उच्च शिक्षित
नहीं हैं. जबकि मैंने कभी छुपाया भी नहीं था. उन्हें भी तो मैंने ही बताया था.
उन्होंने मंच से आवाहन किया कि लोग मेरी शिक्षा पूरी करने हेतु मदद करें.एक सज्जन
ने तुरंत मंच पर आकर घोषणा कर दी कि मैं पंकज के आगे की पूरी शिक्षा का खर्च
उठाऊँगा. किंतु समय आने पर वह पीछे हट गये. पंकज कुछ दिनों बाद अपने उसी दलित
मित्र के पास आठ हजार उधार मांगने गये, ताकि स्नातक में
प्रवेश ले सकें. तब सरकारी नौकरी वाले दलित मित्र ने कहा था, अरे भाई पंकज, मैंने टैक्स बचाने के लिए टिटवाला में
एक फ़्लैट बुक कराया है. वरना मार्च में ९० हजार कट जायेंगे. मैं तुम्हें चार हजार
का चेक दे सकता हूँ. तुम चार हजार की कहीं और से व्यवस्था कर लो. मैंने कहा- चार
हजार के लिए दूसरे से माँगने जाऊं. खैर, जाने दीजिये. अगले
सत्र में देखूँगा. पंकज के मुख से ऐसे शब्द सुनकर दलित मित्र ने कहा- हाँ, वही ठीक रहेगा. इस घटना के एक महीने बाद पता चला कि वो दलित मित्र महिला
साहित्यकारों के साथ विदेश गये हैं. अपने खर्च पर साहित्यिक पर्यटन हेतु. खैर,
उनका बेटा अभी भी सामाजिक रूप से पिछड़ा है. क्योंकि उसे चिकित्सा विद्यालय में
अपने सवर्ण सहपाठियों से कम नंबर आने के बाद भी प्रवेश मिल गया है और सवर्ण छात्र
भटक रहे हैं. यह सारे विचार और स्मृतियाँ एक साथ पंकज पर हमलावर हो गयीं. इस बीच
खिड़की के रास्ते धूप बीच चेहरे पर उतर आयी और विचारों का दबाव इतना बढ़ गया कि
उनके हाथ से कलम छूट गयी.