यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

रविवार, 31 जुलाई 2016

पट्टीदार

पट्टीदार


24 साल पहले की बात है.
मैं बना था बड़ा भाई
घर में कई दिनों तक सोहर गूंजता रहा.
सब खुस थे, मैं भी था बेहद खुस
ढाई साल बाद सबसे छोटा भाई भी आ गया.
और उसके बाद सबसे छोटी दुलारी भी आ गई.
अब हम 8 भाई – बहन थे. और मैं 10 साल का
भाई जब तक गोंद में खिलाने लायक थे.
 उन्हें गोंद में खिलाया,
जब कंधे पर बिठा कर घुमाने लायक थे
उन्हें कंधे पर बिठाकर सारा गाँव,
बाग, खेत-खलिहान और मेला भी घुमाया
खुसी और गर्व से, बड़ा भाई जो था.
फिर थोड़े और बड़े हुए ...चलने लगे उँगलियाँ पकड़ कर
फिर खर्चे भी बढ़ गए भरण-पोषण के
बड़ा होने के फर्ज निभाने का समय आ गया था
बीमार माँ, बड़ी बहनों का विवाह,
छोटे भाई – बहनों की शिक्षा
और रेहन पर रखा खेत .
सब मेरी तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देख रहे थे
मैंने उनकी उम्मीदों की बलि खुद को चढ़ा दी.
उम्र के 15वें साल में आ गया शहर
की हाड़ तोड़ मेहनत, साफ़ किये लोगों के जूठन
बदले में भर सका थोड़ा-थोड़ा 8 लोगों जीवन में रंग.
पहली बार पहुँचा शहर से गाँव
सारा परिवार उत्सव में डूब गया.
सिर्फ छोटी के सिवा ... 3 साल बाद जो गया था.
उसे याद भी नहीं रहा अपने भईया का चेहरा
अब वो 6 साल की थी,
पर फ्राक,गुडिया और मिठाई
पा जाने के बाद वह पहचान गयी.
सबके लिए कुछ न कुछ लाया था.
अम्मा के लिए खटाऊ की साड़ी,
बाबू जी के लिए धोती - कुर्ता,
भाइयों के लिए पैंट-शर्ट और जूते
बहनों के लिए शूट,और भी बहुत कुछ
साथ में 5 हजार रूपये
जो रेहन छुड़ाने के लिए था.
जो आते ही बाबू जी के हाथों में रख दिया था.
नहीं ले सका तो अपने एक नया चप्पल,
मैंने अपने पुराने चप्पल को दो बार सिला चुका था.
परिवार की इज्जत और रेहन के खेत के जोड़ -घटाव के बीच.

समय तेजी दे दौड़ रहा था. जब भी गाँव जाता
अम्मा कहती- बस कुछ दिनों की बात है.
तुम्हारे दोनों भाई भी कुछ ही सालों में
 तुम्हारे दोनों बाजू बन जायेंगे.
भाइयों के बढ़ते बदन को देखकर खुसी होती
जैसे किसान को अपनी लहलहाती फसल देखकर होती
कभी कन्धों पर बैठकर घूमने वाले भाई
अब कन्धों के बराबर हो गये थे.
इस बीच हुआ मेरा विवाह,
आई जीवन में नई सहयोगी.
सहयोग से हुए दो ख़ूबसूरत बच्चे.
और अचानक बढ़ गये कई खूबसूरत खर्चे


गाँव वाले, रिश्तेदार  कभी – कभी अम्मा से कहते
आप को अब किस बात की चिंता, बहू आ गई
अब तो आप के तीनों बेटे जवान हो गये.
मैं भी बेहद था खुस. भाई भी आ गये शहर कमाने
साथ थे पत्नी और बच्चे भी. पिता जी की बीमारी के बाद
छुटकी भी हो गई बीमार, लाया शहर कराया दवा
हो गया कर्ज, खेती के लिए बाबू जी ने मांगे भाइयों से पैसे
भाइयों ने कहा- भईया से क्यों नहीं मांगते
बाबू जी ने समझाने की कोशिश  
मेरी और छुटकी की दवा के बाद उनका भी अब है परिवार
भाइयों ने बाबू जी से कहा - उनका परिवार वो देंखें
बाबू जी का गला भर आया – बोले अब तुम भाई नहीं रहे
पट्टीदार हो गये हो... और फोन रख दिया






गुरुवार, 7 जुलाई 2016

बाऊजी और कल्लू





जाड़े का मौसम था.मकर संक्रांति स्नान का पर्व एक दिन बाद था. एक दिन पहले हीमैं,अम्मा,पड़ोस वाली चाची, चार-पांच लड़कियां और पूरब के टोले की कुछ औरतें भीमकर संक्रांति का स्नान और मेला देखने के ध्येय से तैयार होकर शाम 4:00 बजे घर से पैदल निकले. हमारे गांव से सरयू जी 9 किलोमीटर दूर हैं .पर आम आदमी उन्हेंसरयू नहीं बल्कि गंगा जी ही कहता है.मकरसंक्रांति पर प्रतिवर्ष गांव की महिलाएं भोर में ही उठ कर पैदल ही भक्ति लोक गीत गाते राम घाट तक जाती थी.वहाँ स्नान और पूजा के बाद,थोड़ा मेला-बाजार आदि घूम कर दोपहर अथवा शाम तक घर वापस आ जाती थी, गाँव में सब मकरसंक्रांति खिचड़ी कहते हैं. मकर संक्रांति के कारण शिवालय अथवा राम घाट पर बहुत भीड़ रहती थी.इस दिन मनौती वालों का भी हुजूम रहता.जिनकी मनौती गंगा जी ने या राम जी ने या शिव जी ने मान ली थी. वे अपने वादे के मुताबिक ‘’कड़ाही’’ चढ़ाते. जगह- जगह चूल्हों पर पूड़ी, लपसी, तरकारी, पंजीरी पक रही होती.वहीं घाट के दूसरी तरफ बाल उतारने वाले नाइयों के यहाँ भी रहती. ये भी मनौती वाले ‘’बाल’’ होते. कि हे गंगा माई अगर हमारा फलां काम हो गया तो अबकी अपना बाल आप के तट पर ही या आप के सामने उतरवाऊंगा. सोचिये हमारे ‘’देव’’ भी कितने सरल हैं कि पूड़ी,लपसी और पंजीरी में भी मान जाते हैं ये तो ठीक है पर सिर के बाल से उन्हें क्या लाभ?खैर बड़ा से बड़ा काम कर देते हैं. आप किसी आदमी को पंजीरी खिला कर कोई काम करवा लीजिये तो जानू. इस दिन मेले की भीड़ में गुम होने की संभावना ज्यादा रहती थी.खिचड़ी के मेले में सरकार भी ढेरों व्यवस्था करती है. मेले में लोग अक्सर गुम हो जाते हैं ख़ासकर बच्चे. सरकार उसके लिए लाउडस्पीकर की व्यवस्था करती थी,वहां से जानकारी दी जाती थी.साईकिल स्टैण्ड, लगवाती थी,अस्थाई पुलिस चौकी भी बनवाती थी.फिर भी हर साल लोग गुम होते, हर साल साईकिल की चोरी होती.हर साल लडकियाँ छेड़ी जाती.फिर भी हर साल पिछले साल से ज्यादा लड़कियां खिचड़ी नहाने आती और हर साल कुछ लौंडे सोहदागिरी में पिटते.हर साल दुकानदारों से स्थानीय रंगबाज जजिया कर वसूलते.हर साल कपड़े और अच्छे जूते चोरी होते.फिर भी खिचड़ी की रौनक कम नहीं होती.हजारों-हजारों श्रद्धालु एक साथ सरयू जी की के पावन जल से उत्तरायण होते सूर्यनारायण को अर्ध्य देकर स्वयं को धन्य करते और उसके उपरान्त जिसके पास जो होता जैसे तिल-गुड़, दाना-भेली, गट्टा या बताशा- दाना वो ग्रहण करते .  एक बार मेले में सूर्योदय के बाद घुस गये तो फिर निकलना मुश्किल हो जाता था.मेले से बाहर निकलने में दो-दो घंटे लग जाते थे.सो मकर संक्रांति में एक दिन पहले ही जाकर शिवालय की धर्मशाला में रात गुजारते थे और अगले दिन 4:00 बजे भोर में ही स्नान-पूजा व मेला आदि करके निकल लेते और दोपहर के करीब घर पहुंच जाते. प्रतिवर्ष इसी तरह होता रहता था.परंतु इस बार अम्मा के साथ में मैं और मेरा कुत्ता कल्लू भी था. अम्मा और मैंने कल्लू को वापस घर भेजने की काफी कोशिशें की. ढेलों से मारकर. ईंट के टुकड़ों से मार–मार कर, वापस घर की तरफ भगाने की, परंतु सभी प्रयास विफल रहे. आखिरकार हार मानकर उसे साथ ले जाना पड़ा,अथवा यूं कहिए कि - वह माना ही नहीं. हमारी टोली  बतियाते, भजन गाते बीच-बीच में सुस्ताते हुए शाम 7:00 बजे गंगाजी [ सरयू ] तट पर पहुंच गई.धर्मशाला में जमीन पर पुवाल बिछाकर उसके ऊपर कंबल,कथरी,गद्दा जिसके पास जो था,सबने एक कतार में बिछौना लगा लिया था.हमारी टोली आख़िरी टोली थी. जिसे शिवालय वाली घर्मशाला में जगह मिली.धर्मशाला में अब रिक्त स्थान भरने की जगह नहीं थी. हमारा बिछौना धर्मशाला के द्वार तक पहुँच गया था.आख़िरी सदस्य कल्लूजी थे.कल्लू के लिए भी अम्मा ने समान व्यवस्था की थी. कल्लू भी अपने बिछौने पर जाकर चुपचाप लेट गया. उसके बाद उसके ऊपर अम्मा ने एक मोटा बोरा डाल दिया.ताकि कल्लू को ठंड न लगे.धर्मशाला के पीछे भंडारा लगा था. जो राशन अथवा भोजन बनाने का सामान नहीं लाये थे .वे जाकर भंडारे में खा रहे थे, या जो राशन लाये थे या जिनसे ठण्ड ने भोजन बनाने की हिम्मत छीन ली थी,वे भंडारे में अपना राशन समर्पित कर,बना-बनाया भंडारे का अन्न ग्रहण कर आते.हमारी पलटन के अधिकांश लोग सीधा लेकर आये थे.उसे भंडारे में चढ़ा कर पूरी पलटन ने भोजन ग्रहण किया, सिर्फ मुझे और कल्लू को छोड़कर, हम धर्मशाला में सामान की चौकीदारी कर रहे थे. भंडारे से खाना-खाकर पूरी पलटन जब लौटी.तो हम दो चौकीदारों के लिए ढाख के पत्तों में भोजन ढककर ले आई . भोजन के उपरान्त पूरी पलटन जल्द ही सो गई.क्योंकि भोर में ही उठना था.मुझे तो सबसे पहले नींद आ गई. मुझे कब नींद लगी मुझे पता ही नहीं चला.भोर में ही सब लोग उठ गए.अम्मा ने मुझे झिंझोड़ कर जगाया. मेरी नीद खुल गयी थी पर मैं सोने का नाटक कर रहा था.ठंडक की वजह से मैं कंबल से बाहर नहीं निकलना चाह रहा था,अम्मा ने मेरी कंबल से न निकलने की जिद देख कर कहा- अच्छा चलो, तुम नहाना मत,कंकड़ी [ हाथ–पैर-मुँह धोना ] स्नान कर गंगा माई को प्रणाम कर लेना.कंकड़ी स्नान का नाम सुन मुझमें थोड़ी हिम्मत आयी.खुद को कंबल से बाहर किया. कांपते – कांपते गंगामाई के तट पर पहुंचा.नहाने वालों की भीड़ लगी थी.माली फुल की डली लेकर श्रद्धालुओं के अगल – बगल मंडरा रहे थे.हाँ माली मांगते नहीं थे. गंगा जी को फूल चढाने के बाद श्रद्धालु जो चार आना–आठ आना दे दें.चुपचाप रख लेते थे .पंडों ने अपने टाट, बोरे और चटाई बिछा रखे थे.उन पर श्रद्धालुओं ने अन्न दान के रूप में नई फसल ‘धान’ की ढेरी लगा दी थी, कुछ ने गेहूं और जौ भी दान किये थे. किसान स्नान के बाद गंगामाई की जय के साथ ताज़ा फसल ‘धान’ मुट्ठी से बीच धारा की तरफ फेंकते.गंगा माई को धन चढ़ाकर बाहर निकलते तो बाहर पंडा बाबा रक्षा और तिलक की डिबिया लेकर खड़े मिलते . हर पंडे के बोरे या चट पर  एक–दो दर्पण और कंघी भी रखी रहती. लोग तिलक निहारकर और केश सुधारकर यथा स्थान दर्पण कंघी वापस रख देते .श्रद्धालुओं को आकर्षित करने के ये पंडों के सहज तरीके थे.लोग कपड़े उन्हीं टाटो और बोरों पर रखते और बदलते.चारो तरफ ठण्ड से भरी कीचड़, शीत, बर्फीला जल, फिर भी लोगों में उत्साह,हजारों-हजारों डुबकियाँ प्रतिपल और साथ ही हजारों-हजारों स्वर, एक साथ संगीत की तरह गंगा माई की जय,हर हर गंगे,ॐ नमः शिवाय....  से पूरा सरयू तट गूंज रहा था.शायद यही श्रद्धा की शक्ति है.4 बजे भोर में रात और दिन के मध्य का समय .थोड़ा अँधेरा थोड़ा उजाला.ऐसी पवित्र छटा किसी और देश या संस्कृति में शायद ही हो.तट पर पहुँच कर मुझे और ठण्ड लगने लगी.मेरे पीछे-पीछे कल्लू भी आ गया.उस समय मेरी उम्र 10 साल की थी.मैं पांचवीं कक्षा का छात्र था.मैंने चारो दिशाओं में हल्की नज़र दौड़ाई.तभी मेरी नजर मेरे बगल में खड़े एक लड़के पर पड़ी और उसकी नजर मुझ पर.मुझे देखते ही वह बोल पड़ा ,अरे पंडित तुम खड़े क्यों हो? नहा लो जल्दी से ! देखो मैं नहा चुका. दरअसल वह मेरे पड़ोस के गांव कादीपुर के मौर्याजी का लड़का था.
हम एक ही प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे.फर्क इतना था कि मैं पांचवीं कक्षा में था और वह चौथी में.मुझे विद्द्यालय में अधिकतर लोग पहचानते थे.उसका कारण मेरा अपनी कक्षा का कप्तान [मोनीटर] होना था.15 अगस्त और 26 जनवरी के राष्ट्रीय समारोह के अवसर पर सर्वप्रथम मेरे द्वारा ही सरस्वती वन्दना एवं गणेश जी के श्लोक वाचन से कार्यक्रम की शुरुआत होती थी.फिर सावधान-विश्राम उसके बाद राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत, कार्यक्रम का संचालन भी मैं करता था,पढ़ने में भी ठीक था. रैली में अंताक्षरी व नाटक स्पर्धा में मैं ब्लाक स्तर पर प्रथम आ चुका था. यह तो मेरी पहचान व प्रसिद्धि वाली बात हो गई .अपने मुंह मियां मिट्ठू वाली बात.खैर छोड़ए, मुझे मौर्या जी के लड़के की बात सुनकर अपमान-सा लगा.मैंने सोचा यह नहा सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं ? मैंने ‘’आव देखा न ताव’’ कपड़ा उतारा और गंगा जी में उतर गया. सरयू जी का पानी इतना ठंडा था कि मेरा हाथ-पैर सुन्न हो गया.हिम्मत करके फटाफट 3-4 डुबकियां लगाई और झट से बाहर निकल आया. अम्मा देख कर सोच में पड़ गई कि कहां कंबल से बाहर नहीं निकल रहा था,और अब कहां खुद नहा कर बाहर आ गया.अम्मा तो पहले ही नहा चुकी थी. अब समस्या यह थी कि मैं पैजामें की डोरी नहीं बांध पा रहा था.कारण उंगुलियां ठंड की वजह से काम नहीं कर रही थी.एकदम सुन्न.फिर अम्मा ने कपड़े पहनाए व धर्मशाला में आग के पास लाकर उन्होंने मुझे बिठा दिया.अग्निदेव की कृपा से थोड़ी देर बाद मेरी उंगलियां पहले की तरह काम करने लगीं.भीड़ बढ़ती जा रही थी तो हम लोग जल्दी-जल्दी मेला घूमे.मैंने गुब्बारा भी खरीदा, एक बांसुरी लिया और जलेबी भी खाया, वो भी देसी घी वाली.वैसे भी मैं गंगा जी नहाने के लिए थोड़े ही आया था. वो तो बहाना था.ये अलग बात है कि जोश में नहा भी लिया.असली मामला मेले और गर्म-गर्म जिलेबियों का था.अम्मा ने घर के लिए केला लिया, दीदी के लिए लम्बी वाली चोटी खरीदी और प्रसाद के रूप में रामदाना, बिंदी और सिंदूर की डिबिया भी खरीदी,लड़कियों ने तो आधा मेला खाया और आधा मेला खरीद लिया. चाट, गोलगप्पे, बुनिया, जलेबी, केला, पेठा, गट्टा, बिंदी, चूड़ी, दर्पण,कंधी, नकली चांदी के पायल,नकली सोने के कंगन.ये तो अच्छा था कि किसी को 10 रुपये से अधिक घर से नहीं मिला था. वरना पूरा मेला ही घर उठा ले जाती. कल्लू भी साथ था, अब तक पूरी तरह उजाला हो गया था.थोड़ा-थोड़ा कोहरा भी पड़ना शुरु हो गया था. अब मेला अपनी जवानी पर आ गया था. तिल डालने की जगह नहीं थी.एक–एक कदम बढ़ाना मुश्किल होने लगा था.अब हर हर गंगे की जगह शोर, बांसुरी, सीटी और मदारी के डमरू की आवाज़ सुनाई दे रही थी. चाची और बाकी महिलाएं लड़कियों को लेकर चिंतित थी.चाची बीच-बीच में बोलती-चलो , अब इधर-उधर मत देखो.सीधा मेले से बाहर निकलो.लडकियाँ थी कि सुनती ही नहीं थीं. जैसे किसी बिसाते या चुड़िहारिन की दुकान देखती रुक जाती,और मोल- भाव करने लगती. ये हरी वाली चूड़ियाँ कैसी हैं ... ये कंगन क्या भाव?ये काली वाली चोटी ... मोती वाला हार... और भाव सुनकर मुँह बना देती... इतना मंहगा... बिसाता भी लाचारी दिखाते हुए बोलता ...मंहगाई का जमाना है बिट्टी... ५ रूपये में क्या मिलेगा ?... और बिट्टी मजे लेकर आगे बढ़ जाती. आखिरकार मेला घूमते-घूमते पूरी टीम किसी तरह बाहर निकली. इस बीच मेरी एक उंगली अम्मा के कब्जे में रही.जब हम लोग मुख्य रास्ते पर आए.तो हमारा एक साथी हमारे साथ नहीं था.हमारा कल्लू ! मैं परेशान हो गया.फिर मैंने इधर-उधर देखा,परंतु कल्लू कहीं नहीं दिखा.मैं उसे ढूंढना चाहता था,परंतु अम्मा भीड़ को देखते हुए बोली-चलो,कल्लू सूंघते–सूंघते घर आ जाएगा.कुत्ते रास्ता नहीं भूलते.फिर भी घर आते समय रास्ते भर मेरा ध्यान कल्लू पर ही था.बाकी लड़कियां और औरतें मेले और सामान की बातें करती रहीं.उन्हें कल्लू से क्या मतलब? उन्हें तो इस बात की चिंता थी कि फला सामान पैसे कम पड़ने या खत्म होने से नहीं खरीद पाई.पर अगली बार जरूर खरीदेंगी.अम्मा भी कल्लू को लेकर विचलित थी.हम जैसे ही घर पहुंचे,कल्लू को साथ में न देखकर बाबू जी बोले- कल्लू कहां है?अम्मा ने कहा- मेले में खो गया.बाऊजी बिगड़ गए.साथ लेकर क्यों गई?अम्मा चुप रही.मैंने बोलने वाले अंदाज़ में हाथ उठाया ही था कि बाऊ जी डाँटते हुए बोले-तुम चुप ही रहना और मैं चुप ही रह गया.अम्मा बिना कुछ उत्तर दिए, सिर झुकाए, आखों की पलकों में कुछ बूंदे दबाकर, पल्लू पकड़े,बरामदे से होते हुए अंदर घर में चली गयी.  बात ऐसी थी कि बाबूजी ही कल्लू को खलिहान से लाए थे.कल्लू बाऊजी को बहुत मानता था.खेत-खलिहान जहां भी जाते, कल्लू साए की तरह उनके साथ रहता. बाऊजी व मेरे हाथ के अलावा,वह किसी के हाथ से खाना नहीं खाता था.उसे रोज सुबह-शाम दूध-रोटी एक स्टील की तस्तरी में दी जाती,मेरी तरह उसे भी भात पसंद था इसलिए किसी-किसी दिन दूध भात भी खा लेता था.पर बाऊ जी उसे अक्सर दूध रोटी ही परोसते थे,परंतु आज वह दूध रोटी खाने के लिए नहीं था. बाऊजी बेहद उदास हो गए.कल्लू को वह बेटे की तरह प्यार करते थे और अगर किसी का बेटा गुम हो जाए,तो उस पर क्या गुजरेगी?क्या मुझ से ज्यादा वह कल्लू को प्यार करते थे?एकाध बार मेरे मन में ऐसा ख्याल कल्लू के सामने मार खाते हुए आया था.मुझे तो अक्सर दूसरे-तीसरे दिन बाऊजी मौका पाते ही पीट देते थे,परंतु कल्लू को कभी नहीं.कभी–कभी मुझे कल्लू से ईर्ष्या होने लगती.बाऊजी उसे पुचकारते, तश्तरी में दूध–रोटी लेकर बैठते.वह जब तक पूरा खाना खा नहीं लेता.तब तक वहीं बैठे रहते.उसकी पीठ पर हाथ फेरते,माथे पर हाथ से सहलाते और वह पूंछ हिलाकर,आखें मलकाकर कृतज्ञता व प्यार का इजहार करता.कल्लू का हमारे घर से पुश्तैनी रिश्ता था.उसकी नानी भी हमारे घर पर रहती थी.जिस साल उसने कल्लू की मां को जन्म दिया.उसी साल उसकी अगले जाड़े में मृत्यु हो गई.कल्लू की माँ तीन भाई-बहन थे.बड़े होने पर दो भाई किधर और चले गए,पर कल्लू की मां हमारे घर और आस पड़ोस में ही रह गई.सुबह-दोपहर-रात खाने के वक्त अक्सर दालान के चौखट पर आकर खड़ी हो जाती और रसोई की तरफ आशा भरी नजरों से देखती रहती.जब तक उसे कौर [भोजन] नहीं मिल जाता,तब तक वह अपने स्थान से हटती नहीं थी. शांत स्वाभाव की थी.ज्यादा भौंकती भी नहीं थी.घने काले बालों वाली थी.पहले साल जब उसने में गर्भ धारण किया तो खलिहान में रखे पुवाल के गांज में दो बच्चों को जन्म दिया.दोनों नर थे.एक चीतू,दूसरा कल्लू.
चीतू देखने में काफी सुन्दर था.सो पिता जी उसकी आंख खुलते ही उठा लाए.बोले – इसे पालेंगे.उसे कटोरे में दूध देते पर वह दूध नहीं पीता था.उसे एक पतली रस्सी में बांध दिया गया था.वह चिल्लाता बहुत था.दिन भर रह-रह कर चिल्लाता.उसके चिल्लाने से बाऊजी से अधिक अम्मा परेशान थी.अम्मा बाऊजी से बोली –उसे छोड़ क्यों नहीं देते?दिन भर चिल्लाता रहता है.अच्छा नहीं लगता.दूसरा नहीं मिलेगा क्या? बाऊजी बोले- मिलेगा क्यों नहीं?पर इतना सुंदर नहीं मिलेगा.चीतू का शरीर भूरा,सफ़ेद व काला था अर्थात चितकबरा.हालाँकि वह देखने में बहुत खूबसूरत था. परन्तु उसका चिल्लाना किसी को पसंद न था.एक दिन अम्मा ने बाऊजी के खेत जाने पर उसे छोड़ दिया,और वह भाग गया.पिताजी जब खेत से घर लौटे तो उनके हाथ में एक दूसरा पिल्ला था,काले रंग का.पिल्ले को देखते ही मैं दौड़ पड़ा.बाऊजी के हाथ से मैंने पिल्ले को छीन लिया. उसे गोद में ले कर सहलाने लगा.बाऊजी ने कंधे से कुदाल उतारकर जमीन पर रख दी.बाऊजी बोले- अब चीतू को छोड़ देंगे. तुम्हारी अम्मा हमेशा बोलती रहती हैं.छोड़ क्यों नहीं देते?परंतु आज चीतू तो चिल्ला नहीं रहा है.बाऊजी कहते हुए मड़ई में गए.तो चीतू नदारत था.तभी मोनू बोल पड़ा- बाऊ-बाऊ चीतू को अम्मा ने छोड़ दिया.जब आप खेत गए थे.बाऊजी बोले- चलो,उनको शांति मिल गई.आखिर उसे छोड़ ही दिया.पूरी तरह से वह चीतू से ऊब गई थीं.तभी अम्मा घर से निकली.मेरे हाथ में पिल्लू को देख कर भड़क गई.यह कौन लाया?एक से जान छूटी कि दूसरा लेकर आ गए.तुम बाप-बेटों पर कुत्ता पालने की सनक सवार हो गई है.जहां से लाया है,वहीं छोड़कर आ!जल्दी आँख के सामने से हटा! नहीं तो अभी डंडा लेकर काट डालूंगी.एक था दिन भर चिल्ला-चिल्ला कर जान खा जाता था.किसी तरह उससे आज पिंड छूटा तो अब यह दूसरा आ गया.जान खाने के लिए.चुपचाप खड़ा क्यों है? जल्दी से इसे छोड़कर आ.तभी बाबूजी मड़ई से बाहर निकले और बोले इतना गला फाड़-फाड़कर क्यों चिल्ला रही हो? यह पिल्ला मैं लाया हूं.अम्मा बोली- पिल्ला नहीं रहेगा और फिर मेरी तरफ घूर कर देखने लगी.मैंने डर के मारे पिल्ले को जमीन पर छोड़ दिया तो, बाऊजी ने उठा लिया. अम्मा का पारा सातवें आसमान पर था. यह देख कर अम्मा बोली तुम बाप–पूत सारा काम-धाम छोड़कर कुत्ता पालो और कुछ मत करो.गुस्से में इतना कह कर घर में चली गईं. बाऊ जी कुछ ना बोले. चुप-चाप पिल्ले को पतली रस्सी से बांध दिए.थोड़ी देर कूं-कूं करने के बाद कल्लू चुप हो गया.धीरे-धीरे एक सप्ताह गुजर गया.बाऊजी उसे कटोरी में दूध रखकर पिलाते.कभी-कभी बाऊजी के न रहने पर मैं भी दूध पिलाता अथवा रोटी के छोटे-छोटे टुकडे करके खिलाता. धीरे-धीरे एक महीना गुजर गया.सब लोग कल्लू को प्यार करने लगे.अब उसको सिर्फ शाम को रस्सी बांधी जाती.दिन भर घर में से बाहर मड़ई,चरनि [जहाँ पशु खाते हैं] इधर-उधर दौड़ता रहता.मोनू, सोनाली,मैं और बाऊजी सब लोग उसके साथ खेलते.परंतु अम्मा की और कल्लू की एक निश्चित दूरी बनी रहती.परंतु पहले जैसा विद्रोह,द्वेष अब पिल्लू के खिलाफ़ उनके मन में न था.मेरे व बाऊजी के सिवा वह दूसरे के हाथ से खाना भी नहीं खाता था. मैं और बाबूजी अक्सर एक साथ खाना खाते थे.एक दिन मैं और बाऊ जी खाना खा रहे थे.तभी चुपके से पिल्लू भी बगल में आकर चुपचाप बैठ गया.किसी को पता ही नहीं चला.जब हम खाना खाकर बाहर की तरफ जाने लगे, तो पिल्लू को देखकर चौंक गए.अम्मा की भी नजर पिल्लू पर पड़ गई.वह तुरन्त बोल पड़ी –अब रसोई में भी आने लगा!कितना ढींठ हो गया है.सब भ्रष्टकर डाला. हे भगवान ! सिर पर हाथ रख लिया.अम्मा के इस जोरदार खीझ भरे संवाद पर किसी ने प्रतिक्रिया नहीं दी.हम सीधा चुपचाप अपनी खटिया पर आकर रूके. अब तो रोज रात को खाने के समय पिल्लू रसोई घर के पास आकर बैठ जाता. एक दिन अम्मा ने गुस्सा होकर 2-3 डंडा पिल्लू को लगा दिया.वह दर्द के मारे चिल्लाने लगा.परंतु वहाँ से नहीं हिला.अम्मा उसे भगाना चाहती थी.बात ऐसी थी कि अम्मा बाहर चूल्हे में लगाने के लिए लकड़ियां लेने जा रही थी.चूल्हे के पास की लकड़ी खत्म हो गई थी. उन्होंने सोचा अगर मैं दुआरे जाऊंगी तो पिल्लू कहीं दूध व खाना जूठा न कर दे. अम्मा पिल्लू को पीटकर भुनभुनाते हुए बाहर चली गईं.इतने में भूरी रसोई खाली देख दूध की तरफ आगे बढ़ी.पिल्लू देख रहा था.भूरी ज्यों ही दूध के नजदीक पहुंची.पिल्लू झपट पड़ा.पिल्लू भूरी दोनों लगभग बराबर साइज के थे. भूरी पिल्लू को बच्चा समझ कर डराने के इरादे से गुर्राई, पर डरने के बजाय पिल्लू भी गुर्राया.भूरी ने देखा कि गुर्राने से दाल नहीं गलेगी तो उसने अचानक पिल्लू पर हमला कर दिया.पिल्लू को एक-दो जोरदार पंजे मार दिए. पिल्लू के मुंह के पास से खून बह निकला.भूरी पुरानी खिलाड़ी थी,पर पिल्लू भी नया खून था.जानपर खेल गया.पूरी ताकत से भूरी पर छलांग लगाई. पिल्लू के नवांकुर दांतों के हिस्से में भूरी के सिर्फ कान आये और पिल्लू ने भूरी के कान का काम तमाम कर दिया.भूरी के झटके से पिल्लू दूर जा गिरा.इससे पहले कि भूरी उस पर फिर से प्रहार करती पुनः फुर्ती से पिल्लू खड़ा हो गया.भूरी फिर गुर्राई... लहुलुहान पिल्लू भी गुर्राया. दोनों पैंतरे बदलने लगे. पिल्लू चौकन्ना हो अपनी निगाहें भूरी पर गड़ाए हुए था, कि तभी अम्मा लकड़ी लेकर आ गई.अम्मा को देखते ही भूरी दीवार पर चढ़कर खिड़की के रास्ते बाहर कूद कर भाग गई.भदेली का ढक्कन खुला था.ढक्कन भूरी के धक्के से बगल में गिर पड़ा था.अम्मा को माजरा समझते देर न लगी.बाकी सब सामान ज्यों का त्यों था. अम्मा का ध्यान पिल्लू पर गया.पिल्लू दरवाजे के पास जाकर सावधान की स्थिति में खड़ा होकर अम्मा की तरफ देखने लगा.वह हाँफ रहा था. अम्मा का हृदय पूरी तरह बदल गया था.
  पिल्लू के मुंह और कान से बहता खून देखकर अम्मा ने खाना बनाना छोड़कर हल्दी-प्याज पीसकर, पिल्लू के घाव पर लगा कर कपड़ा बांधा. इतने में बाऊजी बाजार से आ गए. पिल्लू की पट्टी देखते ही बोल पड़े-अरे इसे क्या हुआ?अम्मा ने पूरी कहानी बताई.बाऊजी बोले- चलो अच्छा हुआ,इसने अपनी वफादारी का सबूत तुम्हारे सामने सिद्ध कर दिया.नहीं तो तुम यूं ही मुंह बनाए खार खाए रहती.अब तो वह एकदम बिंदास घर में रहता.क्या मजाल किसी की, कि उसके रहते कोई दूसरा कुत्ता अथवा बिल्ली घर में घुसे,अथवा घर के आस-पास मडराये.शाम 7:00 बजे के बाद आदमी भी आने से पहले दो बार सोचता.समय अपनी गति से बढ़ रहा था.इस बीच वह पिल्लू से कल्लू कब बन गया? किसी को पता ही नहीं चला.6 महीने में ही वह गबरू जवान हो गया.कल्लू बाऊ जी के साथ हमेशा रहता.जहां जाते साथ-साथ जाता.फसल की कटाई के सीजन में दिनभर बाबूजी के साथ खेत में ही रहता.कभी-कभी मेरे साथ गाय चराने भी जाता. जब कभी गाय दूर चली जाती और मुझे दौड़ाने लगती,तो मैं कल्लू को भेजता.वह दौड़ कर जाता और गाय के आगे भौकता.फिर उसे पीछे से काटने दौड़ता.गाय डर कर वापस आ जाती.परंतु उसने कभी गाय अथवा किसी को काटा नहीं.उसका कल्लू नाम इसलिए पड़ गया क्योंकि वह एकदम काले रंग का था.यह चीतू का भाई था.यह तो उसकी बीते दिनों की कहानी थी.अब वर्तमान की बात करते हैं.   मेला के बाद की बात.सब लोग खाना खा लिए.सिर्फ मैं अम्मा और बाऊजी बचे थे.बाऊजी कल्लू का इंतजार कर रहे थे.रात के 10:30 बज गए थे.ठंडक तेज हो गई थी.सिर्फ झींगुरों की आवाज वातावरण में गूंज रही थी.चारों तरफ पसरे सन्नाटे को झींगुर अपनी पूरी ताकत से भंग करने में जुटे थे.गांव में लोग अक्सर जाड़े के दिनों में नौ-दस बजे तक सो जाते हैं.कल्लू की प्रतीक्षा में आग के पास हम तीन मूर्ति बैठे थे.आग को भी नींद आने लगी थी.उसकी लालिमा राख में तेजी से बदल रही थी.बाऊजी उसके कलेजे में जबरदस्ती लकड़ी घुसेड़कर गर्मी ला रहे थे.तभी अम्मा सन्नाटे को तोड़ती हुई बोली- कब तक इंतजार करोगे?चलो खा लो.जाएगा कहां?आ जाएगा.मुझे भी झपकी आ रही थी.बाऊजी बिना कुछ बोले खड़े हुए और रसोई की तरफ चल दिए. साथ में मैं और अम्मा भी पीछे-पीछे गए.बाबूजी रसोई में गए.पीढ़े पर बैठे,सामने आयी थाली को देखे और भोजन को प्रणाम किये .जल आचमन किये और बिना खाए उठ गए.अम्मा लालटेन के पीले मद्धिम उजाले में पिता जी का चेहरा निहारती रही,पर कुछ बोली नहीं.बाऊजी मडई के तख्ते पर जाकर रजाई में आकर घुस गए,खाना खाकर मैं भी बाऊजी के पास आकर सो गया.उन दिनों मैं बाऊजी के पास ही सोता था.उसका कारण घर में खटिया और रजाई दोनों की कमी होना था. रात को मुझे पेशाब लगी तो, मेरी नींद टूटी.मैं रजाई से बाहर निकला,तो देखा- अम्मा-बाऊजी सरसो का तेल गर्म करके कल्लू की मालिश कर रहे थे.सामने आग जल रही थी.ताखे में डेबरी [दीपक] जल रही थी.मैं देखकर भौचक्का रह गया.उस समय रात को 1:30 बज रहे थे. मैं डेबरी के पास अपनी चुकचुकहिया घड़ी ले जाकर बड़े गौर से देखा.कल्लू बोरे पर बैठा था.अम्मा पीठ पर तो बाऊजी माथे व पैरों में तेल मालिश कर रहे थे.मैंने आंख मलते हुए पूछा- कल्लू को क्या हुआ बाऊ?बाऊ जी बोले- ठण्ड लग गयी है.तुम सो जाओ और मैं चुपचाप वापस अपनी रजाई में घुस गया.बाऊजी कभी मेरे सिर की मालिश को कौन कहे,तेल तक मेरे सर पर कभी नहीं रखे.
बात ऐसी थी कि कल्लू रात को जब 1:00 बजे घर पर आया तो वह हांफ रहा था. रास्ते में उसे बाहरी कुत्तों ने काटा था,तथा वह नदी पार करके आया था.जिससे वह भीगा हुआ था. सरयू जी जाते समय हमारे घर से 2 किलोमीटर दूरी पर एक छोटी-सी नदी पड़ती है. उसका नाम पिकिया नदी है.इसलिए अम्मा-बाऊजी उसकी मालिश कर रहे थे,ताकि वह ठंडक से बच जाए. मुझे कल्लू पर एक तरफ तरस आ रहा था,तो दूसरी तरफ अम्मा को कल्लू की सेवा करते देख मन को एक अलग तरह का आनंद अथवा ममता अपनत्व की अनुभूति हो रही थी.जिसे मैं शब्दों में नहीं ढाल सकता.पूरे गांव में कल्लू की चर्चा थी.वह किसी के घर पर नहीं जाता था. न ही किसी का दिया कौरा अथवा जूठन खाता था.वह मांस अथवा हड्डियां भी दूसरे कुत्तों की तरह नहीं चबाता था.जैसे वह हमारे पारिवारिक संस्कारों को बखूबी समझता हो.हमारा पूरा परिवार शुद्ध शाकाहारी था. वह भी पक्का ब्राम्हण था.शायद इसीलिए बाऊजी उसे और भी प्यार करते थे.
  कल्लू से मेरे एकाध पड़ोसियों को ईर्ष्या भी होती थी.शायद उसी के चलते गर्मी के शुरुआती दिनों में एक दिन किसी ने दोपहर के वक्त कल्लू के गले में हँसिया मार दी.जिससे धान व चारा आदि की कटाई होती है.हंसिया गले के आर-पार हो गई थी. वह उसके जिंदगी का अंतिम दिन था. वह पास के टीले पर गिरा पड़ा था.शायद घर तक आने की कोशिश कर रहा था. तभी किसी ने आकर आवाज दी कि कल्लू को किसी ने हँसिया मार दिया है. बाऊजी उस समय खेत में थे.गेंहू की कटाई हो रही थी.मेरी दोपहर की छुट्टी हुई थी.स्कूल से घर पर खाना खाने आया था.हमारा प्राइमरी स्कूल हमारे गाँव की बाग़ में ही था.इसलिए हम दोपहर की छुट्टी में घर खाना खाने आ जाते.मैं खाना छोड़कर दौड़ता हुआ टीले पर गया.प्रथम दृष्टि में कल्लू को देखकर मैं हतप्रद था.उसके गले में हँसिया फँसा हुआ था.उसके गले के चारो तरफ खून पसरा हुआ था.डर के साथ मुझे रुलाई भी आ गयी.कल्लू ने मुझे देख लिया.उसने पलकें झपकाई. मैंने देखा उसकी आखों से आँसू बह रहे थे.गर्दन उठाने का उसने असफल प्रयास किया.मैं हिम्मत कर आगे बढ़ा. उसके गले से हँसिया निकालने का विचार आया. पर पूरा हँसिया रक्त रंजित था. हंसियें की मुठिया भी.मैंने अपने अब तक के जीवन काल में ऐसी जघन्य हत्या और विचलित करने वाला दृश्य पहली बार देखा था और पहली बार मनुष्य की कुण्ठा और प्रतिशोध का निकृष्टतम स्तर देखा था.मैं हिम्मत कर उसके करीब जाकर धीरे से बैठ गया.आस-पास भीड़ जमा हो गयी थी.मुझे अपने पास पाकर उसने धीरे से अपना सिर हिलाया और अपना आगे का पंजा जरा सा बढ़ाया.एक बार फिर पलकें झपकाईं जैसे वह यह इशारा कर रहा हो कि अब मेरा अंतिम समय आ गया है,और मैं जा रहा हूं.मैंने उसके खून और मिट्टी से सने पंजे को अपने हाथों में रख लिया.मैंने उसके माथे को छूने की चेष्टा स्वरुप धीरे से हाथ बढ़ाया ही था कि इतने में उसकी गर्दन एक तरफ हल्की सी झुक गई.उसके प्राण पखेरु उड़ गए.आसपास के खड़े सभी लोग भुनभुनाने लगे. किसने मारा?क्यों मारा?आख़िर कुत्ते से क्या दुश्मनी?भीड़ में से कोई बोला, कुछ नहीं कर पाया होगा बेचारा, तो कुत्ते को ही मार कर अपने दिल को कुछ ढाढस दिया होगा.मैं फूट-फूट कर रोने लगा.कई लोग जो मेरी तरह दिल के नरम थे रो पड़े.बाऊजी जब खेत से आए तो, उन्हें पता चला कि किसी ने कल्लू को हंसिए से मारा तो,बाऊजी एक बार तो गुस्से से लाल-पीले हो गए.बाद में अम्मा व कई बड़े-बुजुर्गों ने समझाया,तब कहीं जाकर बाऊजी शांत हुए.जब बाऊ जी कल्लू को सफेद चादर में लपेट रहे थे. तो उनकी आखें भी झर रही थी.कल्लू को बाकायदा दफनाया गया. उसका हमारा करीब 6 वर्षों का आत्मीय साथ रहा .भरी जवानी में उसे हमसे छीन लिया गया. एक कुत्ते की औसत उम्र 12 से 15 की होती है. उसकी मौत ने पिता जी को अन्दर तक हिला दिया.उसके बाद कभी कोई कुत्ता हमारे घर पर नहीं पाया गया.कल्लू बेहद गंभीर किस्म का था.देखने में ऊंचाई भी अच्छी खासी थी. था तो देसी, पर लगता था एल्शेसियन के जैसा.ऐसी ही उनके जैसी लंबी पूछ,शरीर पर एकदम काले बड़े-बड़े बाल.लंबे-लंबे कान.एक बार अगर वह सामने खड़ा हो जाए तो अच्छे-अच्छों के रोंगटे खड़े हो जाएं.कितने जन तो उसके डर के मारे अकेले मेरे घर पर नहीं आते थे.आज भी उसकी याद से आखें और हृदय दोनों नम हो जाता है. परंतु कुछ भी हो,एक कहावत है कि इंसान से भी ज्यादा वफादार कुत्ते होते हैं,और कल्लू वफादार था और रहेगा.वह हमारी सम्वेदनाओं का सच्चा हकदार था. वैसे एक प्रसिद्ध कथन है – मनुष्य का सबसे अच्छा दोस्त कुत्ता. जब भी किसी घरेलू अथवा पालतू ईमानदार या वफादार कुत्ते की बात होती है.तब-तब कल्लू की याद आती है और हमेशा याद आती रहेगी. इति शुभम्

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