बर्बरीक कथा
मित्रों बर्बरीक मेरे प्रिय पौराणिक पात्र हैं. आज मैं कविता कहानी से इतर भीम के पौत्र बर्बरीक की कहानी आप के साथ अपने अंदाज में कहूँगा ..... तो आइये मेरे साथ सुर्यवर्चा अर्थात बर्बरीक उर्फ़ सुहृदय अर्थात खाटूश्याम की अद्भुत कहानी सुनिए.... मित्रों पांडु पुत्र महाबली भीम एक बार जंगल में अपनी माता सहित सो रहे भाइयों की सुरक्षा हेतु पहरा दे रहे थे. उसी जंगल में हिडिम्ब नामक राक्षस रहता था. जो काफी दूर से ही मनुष्यों की गंध पहचान लेता था. उसे पता चल गया कि इसी जंगल में आसपास मनुष्य हैं. उसने अपनी बहन जिसका नाम हिडिम्बा था, उसे उन मनुष्यों को खोजकर उन्हें मारकर भोजन के रूप में लाने कहा.... हिडिम्बा की खोज पहरा दे रहे भीम के पास पहुँच कर ख़त्म हो गयी. भीम की खूबसूरती देखकर हिडिम्बा मोहित हो गयी और भीम को मारने का खयाल त्याग दी. भीम ने हिडिम्बा को आने का कारण पूछा तो उसने सच-सच बता दिया. इस बीच जब काफी देर बाद भी हिडिम्बा वापस हिडिम्ब के पास भी नहीं पहुँची तो वह स्वयं खोजते हुए भीम के पास आ पहुँचा .यहाँ जब देखा कि उसकी बहन भीम से प्रेम की बातें कर रही है तो वह गुस्से में अपनी ही बहन को मारने दौड़ा. इस पर भीम ने हिडिम्ब को ललकारा.... औरत पर क्या हमला करता है दम है तो मुझसे लड़. फिर क्या था. भीम ने हिडिम्ब को यमलोक पहुँचा दिया. इस बीच भीम की माँ और सारे भाई जाग गये. सारा मामला पता चलने पर कुंती की आज्ञा से हिडिम्बा और भीम का विवाह हो गया.एक साल उस जगह भीम हिडिम्बा के साथ रहे और फिर हिडिम्बा को छोड़कर भाइयो साथ चले गये. कुछ दिनों बाद हिडिम्बा को पता चला वह गर्भ से हैं समय आने पर हाथी के मस्तक जैसा सिर वाला पुत्र पैदा हुआ. उसके सिर पर बाल भी नहीं थे और वह पैदा होते ही बड़ा हो गया. इसलिए हिडिम्बा ने उसका नाम घटोत्कच रखा अर्थात घट का अर्थ हाथी के जैसा मस्तक वाला और उत्कच का अर्थ गंजा सिर या बिना बालों वाला सिर.
पैदा होते ही घटोत्कच ने अपने बारे में पूछा.... हिडिम्बा ने बताया कि वह
पांडु पुत्र महाबली भीम का पुत्र है. हिडिम्बा ने उसे पांडवो का आशीर्वाद लेने
भेजा.जिस समय वह इन्द्रप्रस्थ पांडवों का आशीर्वाद लेने पहुँचा. उस समय वहां भगवान श्रीकृष्ण भी मौजूद थे. घटोत्कच ने सबको
प्रणाम किया और अपना परिचय दिया. सब बेहद प्रसन्न हुए. इसी बीच बातों -बातों में
युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण
से घटोत्कच के लिए एक सुंदर वधू की चर्चा
की. भगवान कृष्ण ने कहा कि प्रागज्योतिषपुर
में एक सुंदर, अद्भुत पराक्रम वाला मुर दैत्य
रहता था वह मेरे हाथों मारा गया.
मित्रों प्रागज्योतिषपुर आज के असम का
गोहाटी शहर है. उस के मारे जाने पर उस की पुत्री कामकंटिका जिसे मोरवी या अहिलावती
भी कहते हैं. मुझसे युद्ध करने के लिए आई. मेरा उससे भयानक युद्ध हुआ पर मैं उसे
हरा न सका. मेरा सारंग धनुष भी उसके सामने नहीं टिका .तब मैंने उस का वध करने के
लिए अपना आख़िरी अस्त्र सुदर्शन चक्र उठाया. यह देख कामाख्या देवी मेरे सामने आकर
खड़ी हो गई. और बोली.... पुरुषोत्तम आप को इसका वध नहीं करना चाहिए. मैंने इसे
वरदान स्वरूप खड्ग एवम् खेटक प्रदान किए हैं । जो अजेय हैं। कामाख्या देवी के ऐसा
कहने पर मैंने युद्ध से अपने आप को अलग कर लिया और मोरवी ने भी युद्ध बंद कर दिया.
मित्रों कामाख्या देवी ने मोरवी से कहा कि युद्ध में भगवान कृष्ण को कोई भी नहीं
मार सकता. संसार में कोई वीर न तो हुआ है और न होगा जो. इसे युद्ध में श्रीकृष्ण
से जीत सके. साक्षात भगवान शंकर भी इन्हें परास्त नहीं कर सकते.
मोरवी से कामाख्या माता ने कहा - यह
तुम्हारे भाभी ससुर भी हैं इसलिए तुम
युद्ध से हट जाओ। भविष्य तुम इनके भाई
भीमसेन के पुत्र घटोत्कच की पत्नी होगी. इसलिए अपने ससुर समान भगवान कृष्ण का आदर करो और
तुम्हें अपने पिता के वध का शोक नहीं करना चाहिए. क्योंकि इनके हाथ से मृत्यु होने
पर तुम्हारे पिता सभी पापों से मुक्त होकर वैष्णो धाम को चले गए. कामाख्या देवी के
ऐसा कहने पर मोरवी ने क्रोध त्याग कर भगवान कृष्ण को प्रणाम किया. तब भगवान कृष्ण
ने कहा बेटी तुम भगवती से सम्मानित होकर इसी नगर में निवास करो. यहां रहती हुई तुम
हिडिम्ब कुमार को अपने पति के रुप में प्राप्त करोगी।
मित्रों इस तरह सारी कथा भगवान कृष्ण युधिष्ठिर को
बताकर द्वारिका चले आये. कुछ दिनों बाद युधिष्ठिर पांडवो और घटोत्कच सहित द्वारिका
गये तो फिर घटोत्कच के विवाह की बात चली . भगवान कृष्ण ने कहा – घटोत्कच के लिए मोरवी
योग्य वर है वह बेहद सुन्दर है.उसके सौंदर्य का वर्णन करना मेरे लिए ठीक नहीं होगा.
क्योंकि मैं उसका ससुर लगता हूं. हाँ एक बात और उसने भी प्रतिज्ञा की है कि अगर
उसे कोई निरुत्तर कर के जीत ले तो ही वह उससे विवाह करेगी अन्यथा उसको मौत के घाट
उतार देगी. उसके पास बहुत से दैत्य और राक्षस विवाह के चक्कर में गये भी किंतु
मोरवी ने सब को युद्ध में हरा दिया और बेचारे जीवित नहीं बचे।
मित्रों भगवान कृष्ण की यह बात सुन युधिष्ठिर बोले - हे प्रभु, मेरा बेटा तो शुद्ध
ठीक से बोलना भी नहीं जानता. हमारे कुल का सबसे बड़ा बेटा है. दुनिया में और भी
स्त्रियां हैं कोई दूसरी स्त्री बताइए. इस पर भीम बोले- जब कृष्ण जी ने बताया है
तो जरूर हमारे बेटे में कुछ बेहतर होगा. घटोत्कच जरूर मोरवी से ब्याह करेगा. इस पर
अर्जुन ने कहा जब कामाख्या देवी ने मोरवी से कहा है कि भीमसेन का पुत्र ही तुमसे
विवाह करेगा, तो मेरी राय है कि घटोत्कच को वहां जाना चाहिए. इस पर कृष्ण भगवान बोले
मुझे तुम्हारी और भीम की बात पसंद है. हिडिम्ब कुमार बोलो- तुम्हारी क्या राय है ?
घटोत्कच ने पूजनीय पिता और भगवान श्रीकृष्ण से हाथ जोड़कर कहा कि- मैं ऐसा प्रयास
करूंगा कि आपका सम्मान समाज में बना रहे और आप को लज्जित न होना पड़े. मेरे पिता
का निर्मल यश बना रहे. इतना कहकर घटोत्कच ने सब को प्रणाम किया और फिर अपने पितरों
को प्रणाम किया। घटोत्कच ने जब वहां से प्रस्थान किया तो भगवान कृष्ण ने कहा बेटा
तुम्हारी अभेद्य बुद्धि को मैं अभिलंब बढ़ा दूंगा. बस युद्ध के समय तुम जरूर याद
करना. ऐसा कहके भगवान कृष्ण ने उसे गले लगा लिया और आशीर्वाद दिया. उसके बाद
घटोत्कच सूर्य, बालासोर और महोदर इन तीन सेवकों के साथ आकाश मार्ग से चला और दिन
बीतते- बीतते प्रागज्योतिषपुर में जा पहुंचा. वहां जाने पर घटोत्कच ने एक अच्छा सा
सुंदर सा महलनुमा घर देखा. मेरु पर्वत के शिखर पर सुशोभित होने वाला महल देख करके घटोत्कच बेहद खुश हुआ. दरवाजे पर एक सुंदर
स्त्री खड़ी थी. जिसका नाम कर्णप्रावरणा था। घटोत्कक्ष ने उस सुंदर स्त्री से पूछा
मूर की बेटी कहां है ? मैं बहुत दूर से आया हूं और उसकी इच्छा पूरी करने वाला
अतिथि हूं और उसे देखना चाहता हूं. उसकी बात सुनकर वह स्त्री दौड़ते हुए महल में
गई और मोरवी को बोली – मोरवी जी कोई सुंदर, खूबसूरत अतिथि द्वार पर खड़ा है. काफी
सुंदर है. मुझे लगता है कि वैसा तीनों लोगों में कोई नहीं होगा. उसके लिए मेरा क्या
कर्तव्य है आज्ञा दीजिए. कामकंटिका बोली- जल्दी जाओ... देर क्यों करती हो ? क्या
पता देव ने उसे मेरी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए भेजा हो ? मोरवी के ऐसा कहने पर
वह घटोत्कच के पास जाकर बोली - अतिथि तुम अंदर आओ... और घटोत्कक्ष अंदर आया .अपना
धनुष उसने दरवाजे पर ही छोड़ दिया. मोरवी
को देख कर घटोत्कच ने मन ही मन सोचा मेरे पिता समान कृष्ण ने मेरे लिए सही लड़की
ढूंढी है... उसका शरीर विद्युत की तरह चमक रहा था. मोरवी को देख कर घटोत्कच ने
चिढाते हुए कहा- हे बज्र के समान कठोर शरीर वाली निष्ठुर स्त्री, तुम्हारे घर
अतिथि आया है. उसका उचित साक्षत्कार नहीं करोगी. अपने हार्दिक भाव के अनुसार तो
करो..
मित्रो इस तरह की भाषा और अपनी निंदा सुनकर
कामकंटिका क्रोध से बोली - हे भद्र पुरुष,
तुम व्यर्थ ही यहां चले आए. जीते - जी
सुखपूर्वक लौट जाओ. यदि मुझे चाहते हो और जिन्दा भी रहना चाहते हो तो शीघ्र कोई कथा कहकर यदि मुझे तुम सकते या
संशय में डाल दोगे तो मैं तुम्हारे बस में हो जाऊंगी उसके बाद तुम्हारी सेवा होगी.
उसके ऐसा कहने पर घटोत्कच ने तुरन्त भगवान श्रीकृष्ण को याद कर कथा प्रारंभ की.
मित्रों कथा इस प्रकार
मालू की पत्नी के गर्भ से कोई बालक उत्पन्न हुआ
जो युवा होने पर अजितेंद्रिय निकला और उस युवक को एक बेटी हुई और उसकी बीवी मर गई.
तब उसने अपनी पुत्री की रक्षा और पालन पोषण पिता ने ही किया. लड़की जब जवान हो गयी .
तब अपनी ही बेटी पर बाप की बुरी नजर हो गयी. ऐसे में उस पापी बाप ने अपनी ही बेटी
से कहा- प्रिये तुम मेरी पड़ोस की लड़की हो.बचपन में ही तुम्हारे माता –पिता गुजर
गये थे. मैंने तुम्हें अपनी पत्नी बनाने के लिए यहां लाकर दीर्घकाल तक पालन पोषण
किया है. अब मेरा अभीष्ट कार्य सिद्ध करो. ऐसा कहने पर उस लड़की ने ऐसा ही माना.
उसने उसे पति रूप में स्वीकार किया और उसने उसे पत्नी के रूप में. उसके बाद उस
लड़की के गर्भ से एक कन्या उत्पन्न हुई. अब बताओ ? कन्या उसकी क्या लगेगी ? पुत्री
अथवा दमित्री. यदि तुम में शक्ति है तो मेरे प्रश्न का उत्तर दो ? मित्रों यह
प्रश्न सुनकर मोरवी का दिमाद चकरा गया. उसने ने अपने हृदय में अनेक प्रकार से
विचार किया किंतु किसी प्रकार से उसे इस प्रश्न का निर्णय नहीं सुझा. खुद को हारते
देखकर चालाकी से जैसे ही तलवार लेने दौड़ी. फुर्ती से लपककर घटोत्कच ने उसके बाल
पकड़ लिए और धरती पर गिरा दिया. फिर उसके गले पर बायाँ हाथ रखकर और दाहिने हाथ में कथनी से उसकी नाक काट लेने का विचार
किया. मोरवी ने बहुत हाथ पैर मार है किंतु अंत में शिथिल होकर उसने मन्द्सुर में
कहा- नाथ मैं तुम्हारे प्रश्न से और शक्ति तथा बल से परास्त हो गई हूं. मैं
तुम्हारी दासी हूं. जो आज्ञा दो! वही करूंगी. घटोत्कच ने कहा- ऐसी बात है तो चलो
मैंने तुम्हें छोड़ दिया. घटोत्कच के छोड़ देने पर कामकंटिका ने पुनः उसे प्रणाम
किया और कहा महाबाहो- मैं जानती हूँ ,तुम बड़े वीर हो, त्रिलोकी में कहीं भी
तुम्हारे पराक्रम की कोई सानी नहीं है. तुम इस से पृथ्वी पर साठ करोड़ राक्षसों के
स्वामी हो. यह बात मुझे कामाख्या देवी ने बताई थी वह सब आज याद आ रही है. मैं अपने
सेवकों और धन के साथ अपना सारा घर तुम्हारे चरणों में समर्पित करती हूं. प्राणनाथ
मुझे आज्ञा दो ! मैं किस आदेश का पालन करूं ? घटोत्कच ने कहा -मोरवी जिसके पिता और
भाई बंधु मौजूद हैं उसका विवाह छिपकर हो यह किसी प्रकार से उचित नहीं है. इसलिए
तुम शीघ्र मुझे इंद्रप्रस्थ ले चलो यही हमारे कुल की परिपाटी है. इंद्रप्रस्थ में
गुरुजनो की आज्ञा लेकर मैं तुमसे विवाह करूंगा. तदंतर मोरवी अनेक प्रकार की
सामग्री साथ लेकर घटोत्कच को अपनी पीठ पर बिठाकर इंद्रप्रस्थ में ले आई.[ मित्रों
आज के जमाने में ऐसी पत्नी मिलेगी?] भगवान कृष्ण और पांडवों ने घटोत्कच का अभिनंदन
किया. उसके बाद शुभ मुहूर्त में भीम के पुत्र और मोरवी का पाणिग्रहण हुआ. कुंती,
द्रौपदी दोनों ही वधू को देखकर बहुत ही खुश हुई. विवाह हो जाने पर राजा युधिष्ठिर
ने घटोत्कच का आदर सत्कार करके अपने राज्य जाने का आदेश दिया. हिडिम्बा कुमार अपनी
राजधानी चला आया. वहां मोरवी के साथ काफी दिनों तक आनंद से जीवन बिताया. कुछ समय
बाद मोरवी के गर्भ से महा तेजस्वी सूर्य के समान कांतिमान बालक उत्पन्न हुआ. वह
जन्म से लेते ही युवावस्था को प्राप्त हो गया. उसने माता -पिता से कहा- मैं आप
दोनों को प्रणाम करता हूं. बालक के आज गुरु माता पिता ही हैं. अतः आप दोनों के दिए
हुए नाम को मैं ग्रहण करना चाहता हूं. तब घटोत्कच ने अपने पुत्र को छाती से लगाकर
कहा- बेटा तुम्हारे केश बर्बराकार अर्थात घुघराले हैं. इसलिए तुम्हारा नाम बर्बरीक
होगा. तुम अपने कुल का नाम बढ़ाने वाले होगे. तुम्हारे लिए जो सबसे कल्याण दायक है
उसके लिए हम लोग द्वारिकापुरी चलकर भगवान कृष्ण से पूछेंगे. उसके बाद घटोत्कच्छ
अपने बेटे को लेकर द्वारिका गए. वहां पर उन्होंने उग्रसेन, वासुदेव साथ ही अक्रूर,
बलराम और सभी यदुवंशियों को प्रणाम किया. पुत्र सहित घटोत्कच को अपने चरणों में
देखकर भगवान कृष्ण ने उसे और उसके पुत्र को छाती से लगाकर आशीर्वाद दिया। घटोत्कच
ने भगवान श्री कृष्ण से कहा कि - हे प्रभु मेरे बेटे के मन में कुछ प्रश्न हैं जो
पूछना चाहता है- भगवान कृष्ण ने कहा ठीक है पूछो बेटा- बर्बरीक ने भगवान को प्रणाम
करते हुए पूछा - हे भगवान संसार में उत्पन्न हुए लोगों का कल्याण किस साधन से होता
है.
मित्रों भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को अनेक प्रकार से उत्तर देकर संतुष्ट कर दिया.
उसके बाद बर्बरीक को समझाते हुए भगवान बोले - तुम क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए. तो
अपना कर्तव्य सुनो. पहले तुम ऐसी शक्ति प्राप्ति के लिए साधना करो. जिसकी कहीं
तुलना नहीं हो . फिर उससे दुष्टों का दमन और साधु पुरुषों का पालन करो. ऐसा करने
से तुम्हें स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी. बेटा देवों की अत्यंत कृपा होने से ही बल
प्राप्त होता है. इसलिए तुम बल प्राप्त करने के उद्देश्य से देवी की आराधना करो.
बर्बरीक ने पूछा प्रभु में किस क्षेत्र में? किस देवी की ? और कैसे आराधना करूं?
किस प्रकार? ऐसा पूछने पर भगवान दामोदर ने कहा महिसागर संगमतीर्थ में जो गुप्त
क्षेत्र के नाम से विख्यात है. वहां जाकर उनकी आराधना करो. वहीं नारद जी द्वारा
बुलाई हुई नवदुर्गा में निवास करती हैं। वहां जाकर उनकी आराधना करो. उसके बाद
भगवान कृष्ण ने घटोत्कच से कहा हे भीम नंदन तुम्हारा बेटा बहुत ही सुंदर हृदय वाला
है. इसलिए मैंने इसे ‘’सुहृदय’’ यह दूसरा नाम प्रदान किया है। यह कह कर भगवान
कृष्ण ने बर्बरीक को गले से लगा लिया और उसे अनेक प्रकार का उपहार देकर विदा किया.
बर्बरीक ने वहां बैठे सभी यादवों को प्रणाम कर गुप्त क्षेत्र के लिए प्रस्थान किया
और घटोत्कच्छ की इंद्रप्रस्थ लौट आये. लगातार विधि विधान पूर्वक 3 वर्षों तक आराधना
करने पर देवी बहुत प्रसन्न हुई और प्रत्यक्ष दर्शन देकर दुर्लभ शक्ति प्रदान की.
मित्रों दुर्गा देवी ने बर्बरीक को वहीं कुछ
दिनों तक रुकने को कहा- माँ दुर्गा ने बर्बरीक को बताया इस गुप्त क्षेत्र में कुछ
ही दिनों में विजय नामक एक ब्राम्हण आयेंगे. वे हमारे परम भक्त हैं. वे यहाँ देवी
पूजन करेंगे.तुम्हें उसे निर्विघ्न सम्पन्न करना है.अगले ही दिन विजय ब्राह्मण आ
गये और पूजा की तैयारी शुरू की. विजय ने भीम पुत्र बर्बरीक से कहा तुम निद्रा रहित
एवं पवित्र हो. देवी के स्तोत्र का पाठ करते हुए यहीं रहो. जिससे जब तक मैं यह
विद्या साधन सम्पन्न न कर लूँ. तब तक किसी
प्रकार का देखना विघ्न न आने पाए. विजय के
ऐसा कहने पर महाबली बर्बरीक खड़ा हो गया। तब विजय ने गुँ गुरुभ्यो नमः, इस मंत्र से गुरुओं
को नमस्कार किया और उसके बाद अष्टोतरशत बार जाप करने के बाद उसने भगवान गणेश का
मंत्र पढ़ा।ॐ गां गीं गूं गैं गौं गः। पूजा के समय रात में दो राक्षस आए बारी - बारी
से जिन्हें बर्बरीक भगा दिया. बाद में रेपलेंद्र नामक राक्षस यज्ञ
करते हुए विजय की तरफ दौड़ा. उसका शरीर एक जोजन लंबा था और उसके सौ पेट और सौ सर
थे। उसके मुंह से आग निकल रही थी. बर्बरीक भी उसकी तरफ दौड़ा और दोनों ने काफी देर
तक युद्ध हुआ और अंत में उसे बर्बरीक मार डाला और अग्नि कोण में महिसागर के तट पर
फेंक दिया. रात के तीसरे पहर में एक राक्षसी आई जिसका आकार पर्वत की तरह था. जब वह
चलती थी तो पृथ्वी हिल रही थी और जोर जोर से चिल्लाती थी उसका नाम द्रुह्दृहा था।
बर्बरीक ने हंसते हुए उसे रोक लिया और फिर पकड़ कर धरती पर पटक दिया और गला दबा कर
मार डाला. चौथे पहर में एक राक्षसी सन्यासी का रूप धारण कर सिर मुडाई दिगंबर भेष
में आई और भारी भक्त होने का नाटक करने लगी. उसने यज्ञ को भ्रष्ट बताया .अहिंसा ही
परम धर्म है. यह आग क्यों जलाया ? इस में छोटे जीव जल कर मर जाते हैं और पाप होता
है. बर्बरीक बोला- आहुति देने से देवताओं की तृप्ति होती है.. तू झूठ बोल रहा है...
तू कौन है...? और बर्बरीक ने उसे गुस्से से मारना शुरू किया. उसके दांत तोड़ दिए.
फिर उसने अपना असली रूप दिखाया. फिर दोनों में बड़ा युद्ध हुआ. दैत्य बर्बरीक से
छुड़ाकर एक गुफा में भाग गया. वह गुफा पाताल में खुलती थी. बहूप्रभा नामक नगरी में
वह दैत्य रहता था. बर्बरीक पीछा करता हुआ वहां पहुंच गया. उसे देखकर बड़ी भारी
संख्या में पलासी नामक दैत्यों ने बर्बरीक पर हमला कर दिया. चारों तरफ हाहाकार मच
गया. बर्बरीक ने बड़ी बहादुरी से युद्ध किया. किसी का गला तोड़ दिया. किसी की छाती
फाड़ दी. बर्बरीक ने अपनी बहादुरी से कोहराम मचा दिया. पलासी दैत्यों का समूल नष्ट
कर दिया. राक्षसों को मारे जाने पर बासुकी नाग आए और बर्बरीक की स्तुति किए.
क्योंकि वह भी प्लासी दैत्यों से पीड़ित थे। बर्बरीक उसके बाद पृथ्वी लोक लौट आए.
विजय का यज्ञ पूरा हुआ और उन्होंने सभी सिद्धियां प्राप्त कर ली. उसके बाद वहां से
बर्बरीक अपने घर के लिए प्रस्थान किए रास्ते में चंडिकाधाम में रुक गये. तभी पांचो
पांडव वहां पहुंचे. वहां चंडीदेवी का मंदिर था पांडवों ने देवी का दर्शन कर वहीं
विश्राम करना चाहा. चंडी देवी के गण भी वहां थे। बर्बरीक ने पांडवों को नहीं
पहचाना और ना ही पांडवो ने बर्बरीक को। तभी बर्बरीक ने भीम को तालाब में घुसकर
हाथ-पैर धोते देखा तो उन्हें बुरा लगा. बर्बरीक ने भीम से कहा पानी लेकर बाहर हाथ पैर धोइए. तालाब का पानी
दूषित हो जायेगा यह नदी नहीं है. भीम ने बर्बरीक कीबात को अनसुना कर दिया. फिर
क्या बातों – बातों में बात बढ़ गयी और दादा पोते में युद्ध शुरू हो गया.बहुत देर
तक घमासान युद्ध हुआपर धीरे- धीरे भीम कमजोर पड़ने लगे.आखिरकार घटोत्कच भीम को
दोनों हाथों से उठाकर समुद्र में फेकने कि लिए समुद्र की तरफ दौड़ा.तभी भगवानशंकर
ने आकाशवाणी की...हे बर्बरीक जिन्हें तुम समुद्र में फेकने जा रहे हो वह तुम्हारे
पितामह और घटोत्कच के पिता भीम हैं.इन्हें छोड़ दो.
आकाशवाणी सुनकर बर्बरीक बड़ा लज्जित व दुखी
हुआ.उसने भीम को जमीन पर तुरन्त उतार दिया. हाथ जोड़कर क्षमा मांगी. अपने पितामह के
साथ दुर्व्यवहार और उनके हत्या के प्रयास से बर्बरीक इतना ग्लानी से भर गया कि
उसने समुद्र में डूबकर आत्महत्या करने के लिए समुद्र की ओर तेजी से बढ़ा... भीम
पीछे- पीछे पुत्र-पुत्र पुकारते हुए आये. बर्बरीक को आता देख समुद्र भी डर गया.वह
सोंच में पड़ गया कि कैसे मैं बरबरीक की जान लूँगा. तभी भगवती सिद्धम्बिका और भगवान
रूद्र ने आकर बरबरीक से कहा – तुमसे यह गलती अनजाने में हुई हैं तुम्हें तो मालूम
ही नहीं था कि भीम तुम्हारे पितामह हैं. अनजाने में किये पाप से दोष नहीं लगता. तभी
भीम ने आकर बरबरीक को गले लगा लिया. भीम बोले – अगर तुम जीवित नहीं रहोगे तो मैं
भी तुम्हारे साथ प्राण त्याग दूंगा.तब जाकर बरबरीक ने उदास मन से आत्महत्या का
विचार त्याग दिया. फिर सभी पांडवों ने बर्बरीक को स्नेह किया एवं आशीर्वाद दिया.
मित्रों उसके बाद बर्बरीक अपने पिता के पास
लौट गया.एक लम्बे समय बाद जब महाभारत युद्ध की तैयारियाँ चल रही थी और इस होनेवाले
विश्वयुद्ध की की चर्चा चारो दिशाओं में
फैल गयी. ऐसे में ये जानकारी बर्बरीक तक भी पंहुँची. उसने भी युद्ध में भाग लेने की
इच्छा अपनी माता मोरवी से जताई.. मोरवी ने अपने पुत्र बर्बरीक से कहा – तुम युद्ध
में अवश्य भाग लो पर युद्ध उसकी तरफ से करना जो हार रहा हो .... बर्बरीक जब युद्ध
के मैदान कुरुक्षेत्र की तरफ घोड़े पर सवार होकर बढ़ा तो अन्तर्यामी श्रीकृष्ण को
पता चल गया. वे रास्ते में ही उसे रोक लिए और पूछे तुम किसकी तरफ से युद्ध करोगे.
बर्बरीक ने कहा जो हारनेवाला होगा उसकी तरफ से.... कृष्ण जानते थे कि कौरव हारेंगे...
उन्होंने पूछा तुम इस युद्ध को कितने दिन में जीत सकते हो. बर्बरीक ने कहा कुछ
पलों में. उसने अपने तीन अमोघ बाण दिखाए. एक लाल बाण जो दुश्मनों को चिन्हित
करेगा. दूसरा उनको मारेगा. तीसरा अपने पक्ष के लोगों को बचाएगा. इसी बीच अचानक
कृष्ण ने बर्बरीक का सिर सुदर्शन चक्र से काट लिया.
[ मित्रों कृष्ण द्वारा बर्बरीक के सिर
काटने का कारण उसका पूर्व जन्म का श्राप था.पूर्व जन्म में बर्बरीक स्वर्गलोक में
सुर्यवर्चा नामक यक्ष /गंधर्व था. उस समय नरका सुर और मूर दैत्य का बेहद आतंक था “मूर दैत्य के अत्याचारों से व्यथित हो पृथ्वी अपने गौस्वरुप में देव सभा
में उपस्थित हो बोली- “ हे देवगण! मैं सभी प्रकार का संताप सहन करने में सक्षम हूँ.... पहाड़, नदी, नाले एवं समस्त मानव जातिका भार मैं सहर्ष सहन करती हुई अपनी दैनिक
क्रियाओं का संचालन भली भांति करती रहती हूँ,पर मूर दैत्य के अत्याचारों एवं उसके द्वारा किये जाने वाले अनाचारो से मैं
दुखित हूँ,... आप लोग इस दुराचारी से मेरी रक्षा करो, मैं आपकी शरणागत हूँ...”
गौस्वरुपा धरा की करूँण पुकार सुनकर सारी देवसभा में एकदम सन्नाटा सा छा गया...थोड़ी देर के मौन के पश्चात ब्रह्मा जी ने कहा- “अब तो इससे छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय यही है, कि हम सभी को भगवान विष्णु की शरण में चलना चाहिए और पृथ्वी के इस संकट निवारण हेतु उनसे प्रार्थना करनी चाहिए...
गौस्वरुपा धरा की करूँण पुकार सुनकर सारी देवसभा में एकदम सन्नाटा सा छा गया...थोड़ी देर के मौन के पश्चात ब्रह्मा जी ने कहा- “अब तो इससे छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय यही है, कि हम सभी को भगवान विष्णु की शरण में चलना चाहिए और पृथ्वी के इस संकट निवारण हेतु उनसे प्रार्थना करनी चाहिए...
तभी देव सभा में विराजमान
यक्षराज सूर्यवर्चा ने अपनी ओजस्वी वाणी में कहा -‘ हे देवगण! मूर दैत्य इतना
प्रतापी नहीं जिसका संहार केवल विष्णु जी ही कर सकें, हर एक बात के लिए हमें उन्हें
कष्ट नहीं देना चाहिए... आप लोग यदि मुझे आज्ञा दे तो मैं स्वयं अकेला ही उसका वध
कर सकता हूँ ...”
इतना सुनते ही ब्रह्मा जी बोले - “नादान! मैं तेरा पराक्रम जानता हूँ , तुमने अभिमानवश इस देवसभा को चुनौती दी है ... इसका दंड तुम्हे अवश्य मिलेगा... आपने आप को विष्णु जी से श्रेष्ठ समझने वाले अज्ञानी ! तुम इस देव सभा से अभी पृथ्वी पर जा गिरोगे ... तुम्हारा जन्म राक्षस कुल में होगा,तुम्हारा शिरोछेदन एक धर्मयुद्ध के ठीक पहले स्वयं भगवान विष्णु द्वारा होगा और तुम सदा के लिए राक्षस बने रहोगे...
ब्रह्माजी के इस अभिशाप के साथ ही देव सूर्य वर्चा का अभिमान भी चूर चूर हो गया... वह तत्काल ब्रह्मा जी के चरणों में गिर पड़ाऔर विनम्र भाव से बोला -“ भगवन ! भूलवश निकले इन शब्दों के लिए मुझे क्षमा कर दे... मैं आपकी शरणागत हूँ... त्राहिमाम ! त्राहिमाम ! रक्षा करो प्रभु...”
यह सुनकर ब्रह्मा जी में करुणा भाव उमड़ पड़े... वह बोले - “वत्स ! तुने अभिमान वश देवसभा का अपमान किया है, इसलिए मैं इस अभिशाप को वापस नहीं ले सकता हूँ, हाँ इसमें संसोधन अवश्य कर सकता हूँ, कि स्वयं भगवन विष्णु तुम्हारे शीश का छेदन अपने सुदर्शन चक्र से करेंगे, देवियों द्वारा तुम्हारे शीश का अभिसिंचन होगा, फलतः तुम्हे देवताओं के समान पूज्य बननेका सौभाग्य प्राप्त होगा...“
तत्पश्चात भगवान श्रीहरि ने भी इस प्रकार यक्षराज सुर्यवार्चा से कहा -
"उस समय देवताओं की सभा में श्रीहरि ने कहा - हे वीर! ठीक है, तुम्हारे शीश की पूजा होगी, और तुम देव रूप में पूजित होकर प्रसिद्धि पाओगे...
अपने अभिशाप को वरदान में परिणिति देख कर सूर्यवर्चा उस देवसभा से अदृश्य हो गए... ]
इतना सुनते ही ब्रह्मा जी बोले - “नादान! मैं तेरा पराक्रम जानता हूँ , तुमने अभिमानवश इस देवसभा को चुनौती दी है ... इसका दंड तुम्हे अवश्य मिलेगा... आपने आप को विष्णु जी से श्रेष्ठ समझने वाले अज्ञानी ! तुम इस देव सभा से अभी पृथ्वी पर जा गिरोगे ... तुम्हारा जन्म राक्षस कुल में होगा,तुम्हारा शिरोछेदन एक धर्मयुद्ध के ठीक पहले स्वयं भगवान विष्णु द्वारा होगा और तुम सदा के लिए राक्षस बने रहोगे...
ब्रह्माजी के इस अभिशाप के साथ ही देव सूर्य वर्चा का अभिमान भी चूर चूर हो गया... वह तत्काल ब्रह्मा जी के चरणों में गिर पड़ाऔर विनम्र भाव से बोला -“ भगवन ! भूलवश निकले इन शब्दों के लिए मुझे क्षमा कर दे... मैं आपकी शरणागत हूँ... त्राहिमाम ! त्राहिमाम ! रक्षा करो प्रभु...”
यह सुनकर ब्रह्मा जी में करुणा भाव उमड़ पड़े... वह बोले - “वत्स ! तुने अभिमान वश देवसभा का अपमान किया है, इसलिए मैं इस अभिशाप को वापस नहीं ले सकता हूँ, हाँ इसमें संसोधन अवश्य कर सकता हूँ, कि स्वयं भगवन विष्णु तुम्हारे शीश का छेदन अपने सुदर्शन चक्र से करेंगे, देवियों द्वारा तुम्हारे शीश का अभिसिंचन होगा, फलतः तुम्हे देवताओं के समान पूज्य बननेका सौभाग्य प्राप्त होगा...“
तत्पश्चात भगवान श्रीहरि ने भी इस प्रकार यक्षराज सुर्यवार्चा से कहा -
"उस समय देवताओं की सभा में श्रीहरि ने कहा - हे वीर! ठीक है, तुम्हारे शीश की पूजा होगी, और तुम देव रूप में पूजित होकर प्रसिद्धि पाओगे...
अपने अभिशाप को वरदान में परिणिति देख कर सूर्यवर्चा उस देवसभा से अदृश्य हो गए... ]
फिर कृष्ण ने देवी चंडिका से कहकर बर्बरीक के
सिर को अमृत से सिंचित करवाकर अमर करा दिया.तब बर्बरीक के शीश ने कृष्ण से पूरा
युद्ध देखने की इच्छा जताई. भगवान कृष्ण ने कहा एवमस्तु ....बर्बरीक का शीश पर्वत
की सबसे ऊँची चोटी पर रखवा दिया. जहाँ से बर्बरीक ने सम्पूर्ण महाभारत देखी. युद्ध
में विजयी होने पर पांडवों को घमंड हो गया. भीम को लगता था युद्ध में उनके कारण
जीत हुई .अर्जुन को लगता मेरे कर्ण जीत हुई. कृष्ण ने कहा चलिए बर्बरीक से पूछते
हैं किसके कारण जीत हुईक्योंकि उन्कोने पूरा युद्ध देखा है . बर्बरीक से पूछने पर
बर्बरीक ने बताया किमैंने सिर्फ कृष्ण के सुदर्शन
चक्र को युद्ध करते देखा.उसी ने कौरवों का नाश किया. शेष किसी को नहीं. यह सुनकर सभी
पांडव लज्जित हो गये . बर्बरीक की बात सुनकर देवलोक से पुष्प वर्षा होने लगी .
इसके बाद में श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से अपने कृत्य के लिए क्षमा भी मांगी.भगवान
कृष्ण ने बर्बरीक को वरदान दिया कि तुम कलयुग में श्याम नाम से पूजे जाओगे.
मित्रों वही बर्बरीक आज खाटूश्यामजी के नाम से प्रसिद्द हैं कालान्तर में वीर बर्बरीक का शालिग्राम शिला
रूप में परिणित वह शीश राजस्थान के सीकर जिले के खाटू गाँव में चमत्कारिक रूप से
प्रकट हुआ और वहाँ के राजा के द्वारा मंदिर में स्थापित किया गया... श्रद्धालु आज
उन्हें खाटूश्याम के नाम से पूजते हैं
सुंदर कथा है भीमसेन के पौत्र पर |
जवाब देंहटाएंबर्बरीक कौन था
जवाब देंहटाएंपूरी कहानी