यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

शनिवार, 29 अक्तूबर 2022

हम बेटे !



कहने को  हम राज दुलारे

कुल दीपक कह ताने मारे

थोड़े  खेले  मस्ती  कर लें

कहलाते बिलकुल आवारे

 

बेटी कहकर बच जाती है

हमको डांट   खिलाती है

दुनियाँ भी माँ बेटी पर ही

कविता  गीत  सुनाती है

 

बिटिया,गुड़िया, देवी, रानी

रौनक    परी    कहाती   है

हम बेटों के  हिस्से में क्यों

मार  -  कुटाई    आती   है

 

घर से बाहर धूल धूप में

हम ही  जान  लगाते हैं

बड़े हुए तो सबका ज़िम्मा

दोनों   काँध   उठाते  हैं

 

बहन की शादी माँ की दवाई

बाबू जी  की  आँख  बनाई

खेती से घर  तक का खर्चा

अपने हाल  की ना सुनवाई

 

लड़का हूँ सो  रोना मना है

अपना सपना  टूटा चना है

हम भी हाड़  मास के बच्चे

बेटा  होना   जैसे गुना  है

 

बेटों पर  भी  कोई कहानी

कोई किस्सा  लिख दो ना

बहनें  प्यारी  हमें  दुलारी

हम पर भी कुछ लिख दो  ना

 

बेटों का कब  स्वर आयेगा

कोई       गीत     सुनाएगा

ओ रचने वालों  कविता में

किस  दिन   बेटा  आयेगा

 

पवन तिवारी

२७/१०/२०२२                 

सोमवार, 24 अक्तूबर 2022

झिलमिल स्वप्न लिए नैनों में

झिलमिल स्वप्न लिए नैनों में लौट के आया हूँ

करके  युद्ध  मृत्यु  से  सीधे जीवन लाया हूँ

बहुत  रुलाये  नैन  नासिका  दोनों  ही टपके

पोंछ  कलाई  से सिसका  हूँ पर फिर गाया हूँ

 

मृत्यु सरल है कठिन है जीवन

जीवन  भटके  जैसे वन – वन

फिर  भी  प्रेम  करें  जीवन से

जीवन   ही   है   तन  मन धन

 

जीवन  है  तो  अभिलाषा  है

चारो  ओर   दिखे  आशा  है

नये स्वप्न  नए लक्ष्य हैं गढ़ते

जीवन  की  कितनी  भाषा है

 

मृत्यु  निरस  है खेल बिगाड़े

अभिलाषा  सपनों  को  मारे

इसीलिये  ज़िन्दगी  प्रशंसित

जो जग  में  जीवन  को धारे

 

पवन तिवारी

०५/१०/२०२२

उदासियों ने घेर रक्खा है

उदासियों    ने    घेर   रक्खा   है

हमने भी खूब दुःख को चक्खा है

कोई  दिखता  नहीं है दूर तलक

दर्द अपने  भी  सर पे अक्खा है

 

रात  कुछ  नींद  काट  देती है

दिन की  सौगात  जान लेती है

शाम  सुई  सी  चुभोती  जैसे

ज़िन्दगी  बारिशों  की खेती है

 

आज-कल रोज खुद से घिरता हूँ

खुद  से ही मारा-मारा फिरता हूँ

इतना उलझा हूँ खुद में क्या ही कहूँ

धीरे चलता हूँ फिर भी गिरता हूँ

 

यही समय  है  संभलना इससे

सब पराये  हैं  तो कहें किससे

धीर रखना है वक़्त फिरने तक

सुनेंगे  सब  ही  कहेंगे जिससे

 

पवन तिवारी

०८/१०/२०२२    

रविवार, 23 अक्तूबर 2022

प्रेम कोई प्रबंधन नहीं



प्रेम  कोई  प्रबंधन  नहीं

प्रेम है कोई  बंधन  नहीं

है ये संबंध  अनुराग का  

प्रेम विक्रय का है धन नहीं

 

मति की सहमति से ये पथ बने

हों समर्पण  से रिश्ते घने

सुख मिले साथ संतोष भी

किस्से हों प्रेम में सब सने

 

कोई  छोटा   कोई बड़ा

प्रेम का  हो  समादृत घड़ा

हो परस्पर  में शुभकामना

फिर हो जीवन में हीरा जड़ा

 

इस तरह  जिंदगी जो जिये

प्रेम का वो  ही अमृत पिये

शेष केवल कथानक ही तक

कहने को ये किये वो किये

 

पवन तिवारी

२२/१०/२०२२

शनिवार, 22 अक्तूबर 2022

ऐसा कुछ हाल हुआ है मेरा



ऐसा   कुछ   हाल   हुआ   है  मेरा

खुद से खुद रूठ भी नहीं सकता

अब भी आशा  है किन्तु ना जानूँ

उर ये किसका   है रास्ता तकता

 

पहले  सोचूँ  कि  कैसे  रोते  सब

नहीं रुकता जो आँसू अब बहता

वैसे उठाता हुआ सा  दिखता हूँ

किन्तु अंदर से सारा कुछ ढहता

 

युद्ध  लम्बा  था  कई   वर्ष  चला

लड़ाई खुद से थी किससे कहता

अति     सर्वत्र     वर्ज्यते    कहते

सीमा के पार भी कितना सहता

 

मुझको प्रतिरोध  ने बचा रखा

सारा दुःख,त्रास,छल को झेल गया

मौत भी  प्राण बचाकर भागी

इस तरह जान पे मैं खेल गया

 

पवन तिवारी

२०/१०/२०२२  

तेरे द्वारे पे हम भी आये थे



तेरे  द्वारे  पे  हम  भी  आये  थे

तेरी खुशियों में जमके गाये थे

वक़्त ने मुझसे मुख था क्या मोड़ा

वर्षों खुद  को  अकेले पाए थे

 

गिरते उठते  थे  और चलते थे

अच्छे दिन याद करके खलते थे

ऐसा लगता था हजारों अपने

सोचते  और  हाथ  मलते  थे

 

सारी उम्मीद  रोके जाती रही

सफेदी तेज गति से आती रही

मुझको सब  भूलने ही वाले थे

तभी धुन मेरी कोई गाती रही

 

चर्चा  गीतों  की  मेरे  होने लगी

आगे-पीछे की पीढ़ी खोने लगी

पता चला कि उस पवन की है

एक बुढ़िया थी सुन के रोने लगी

 

माँ का बेटा  जो  लौट आया था

सबके अधरों पे वो ही छाया था

साधना  सिद्ध  हो गयी उसकी

सारे  जग  का  दुलार  पाया था

 

पवन तिवारी

११/१०/२०२२   

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2022

अकेले थे अकेलापन नहीं था



अकेले थे  अकेलापन  नहीं था

उल्लसित हो हर्ष नाचा यहीं था

अकेलेपन ने  घेरा था जहां पर

हाँ, मगर भीड़ का मेला वहीं था

 

कहना कई बार चाहता था मगर

डरते - डरते चला था ऐसी डगर

मौत  पीछे  थी ज़ि न्दगी आगे

भागता कितना भागता भी अगर

 

ज़िन्दगी  युद्ध  एक चारा था

मौत को कसके हमने मारा था

तिलमिला के वो हटी थी पीछे

अपना भी दांव  लगा सारा था

 

इस तरह हमने  जिंदगी जीती

मौत भी घूँट  जहर  के पीती

एक दिन आयी चल पडा हंस के

इससे पहले जो खूब थी बीती

 

पवन तिवारी

१०/१०/२०२२      

बुधवार, 19 अक्तूबर 2022

आज-कल अर्थहीन लगता हूँ



आज - कल अर्थहीन लगता हूँ

जैसे खुद से ही रोज भागता हूँ

जब से अस्वस्थ तन हुआ ज्यादा

सोते-सोते भी लगता जागता हूँ

 

सारे  चहरे  पराये  लगते  हैं

अपने ही लोग जैसे ठगते हैं

वे बनाते हैं हम भी बनाते हैं

झूठी बातों में उनके पगते हैं

 

हाथ पे हाथ धरे फिरते हैं

अपने अंदर ही जैसे गिरते हैं

सारा कुछ ख़त्म हुआ सा लगता

जैसे दुश्वारियों से घिरते हैं

 

तन जो सुधरा तो रोशनी आई

फिर से हिय ने है ज़िन्दगी पाई

अब तो मन भी है मुस्करा देता

गैर  भी  लगते  जैसे   हैं  भाई

 

रुग्णता  का  बुरा  ही खेला है

आप  ने  हमने  सबने झेला है

कच्चे मन को संभाल लेना तुम

आगे फिर जिंदगी का मेला है

 

 

पवन तिवारी

१०/१०/२०२२  

पानी पानी पानी



पानी    पानी    पानी

बरखा जल की रानी

आओ तुम्हें  सुनाऊँ

इसकी एक  कहानी

 

पानी बड़ा ही दानी

कहती   मेरी नानी

धरा की इसके कारण

रहती  चूनर धानी

 

प्यास बुझाता पानी

फसल उगाता पानी

पानी  बिना  अधूरी

सबकी ही जिंदगानी

 

पोखर ताल तलैया

सागर सरयू  मैया

सबका एक है मालिक

अपना  पानी भैया

 

पवन तिवारी

१७/०९/२०२२