नये - नये दो आकर्षण में
भावनाओं के अति घर्षण में
सब की सब मर्यादा टूटी
सारी सामाजिकता रूठी
अवसरवादी भावनाओं ने
उच्छश्रृंखल कामनाओं ने
कोमलता को ठोकर मारी
जीती बाज़ी जैसे
हारी
धूर्त तत्त्व जो आसपास के
लगे जुटाने तत्त्व नाश के
इक चिंगारी काम कर गयी
जीने वाली चाह मर
गयी
ऐसे ध्वंस बहुत
होते हैं
बिन अनुभव वाले
रोते हैं
दुःख के बोझे भी
ढोते है
जीवन को प्रतिदिन खोते हैं
धीरज बुद्धि साथ में रखना
फिर चाहे जैसे फल चखना
जो भी होगा तर
आओगे
हँसते - हँसते कर पाओगे
पवन तिवारी
०१ / ०५/ २०२४
विद्रूपताओं से आहत मन की गहन अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ३ मई २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
धन्यवाद जी
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जी
हटाएंअद्भुत प्रस्तुति...👌👌👌
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