यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

गुरुवार, 30 नवंबर 2017

रेस की पहली और आख़िरी शर्त केवल विनम्रता होगी

इस बार
जो सोचा था
सच हुआ
मेरा अनुमान था
या मेरा विश्वास
या मैं ढीठ था
जुगाड़ों के खेल से
परिचित होते हुए भी
बेपरवाह, अपने में मग्न
जो भी कहूँ अच्छा था
इस बार जुगाड़ें
हार गई थीं
सच से ,सर्वश्रेष्ठ से
अलसायी आखों को
खुशियों ने बेसाख्ता
चूम लिया था  

आप जो सोंचे
सपनें देखें
हूबहू, वैसे ही
सच हो जाएँ
बिना किसी वैसाखी के
फिर तो लगते हैं
खुशियों के पंख
भरोसे,आत्मविश्वास की
पतंग उड़ती है
खुले आसमान में
ऐसा कई बार हो
तो ये समझ लो
लगानी है तुम्हें लम्बी रेस
इस रेस की पहली
और आख़िरी शर्त
केवल विनम्रता होगी
वरना रेस कभी भी
नहीं बनेगी मंजिल
बस रेस में बने रहोगे
धक्के खाते धकियाते

पवन तिवारी

सम्पर्क – 7718080978

poetpawan50@gmail.com



सोमवार, 27 नवंबर 2017

और कमाल कि हँसते भी हो

घूमता हूँ खूब
लिखता हूँ खूब
बहस करता हूँ खूब
हंसता हूँ खूब
उत्साह है खूब
जीने की चाह है खूब
जीवन भी है खूब
जीता भी हूँ खूब
अभाव भी है खूब
फिर भी
मस्त हूँ खूब
इस भयावह अभाव में
कैसे जीते हो, जिन्दादिली से
देखकर,सोंचकर
मित्र हैं दंग,कैसे टिके हो
शहर में बिंदास , इस तरह
और कमाल कि हँसते भी हो


पवन तिवारी
सम्पर्क – 7718080978
poetpawan50@gmail.com


रविवार, 26 नवंबर 2017

अत्तरकारी- पत्तरकारी [कहानी]











दीपावली बीत कर करीब 1 महीने गुजर चुके थे.तब से एक बार भी घर पर फोन नहीं
किया था.या यूं कहूँ कि साहस ही नहीं हुआ. दीपावली में अम्मा से बोला था,एक हप्ते के
अन्दर मनीआर्डर भेजूँगा.पर सम्पादक कम बनिए मालिक ने बोनस को कौन कहे बकाये
वेतन से भी एक रूपये ढीला न किया. बड़ी आस थी कि चलो साल भर का त्यौहार हैं वेतन
दे देगा ही. पर आस करना मेरे लिए मूर्खता सिद्ध हुई.ठन-ठन गोपाल ही रहा.उजाले के इस
 त्यौहार में भी मेरे चेहरे पर अन्धेरा ही रहा.जब भी वेतन की बात करता... विज्ञापन का
पैसा आने वाला है.अगले हप्ते देता हूँ, कहकर टाल देता.सोंचता, एक बार पैसा मिल
जाय,मनीआर्डर कर दूँ. फिर शान से फोन करूँ कि अम्मा 1000 का मनीआर्डर कर दिया
हूँ.पर किस्मत फूटी जो पत्रकार बनने का शौक चर्राया. उस पर तुर्रा गणेश शंकर
विद्यार्थी,बाबू विष्णुराव पराड़कर,राहुल बारपुते का आदर्श. वेतन के नाम पर कहने को
 1500 महीना, पर ४ महीने से सिर्फ रेलवे पास का पैसा ही बड़ी मुश्किल से नसीब हुआ
था.ऐसे में ना तो फिर कोई पत्र लिखा और ना ही फोन.वही दीपावली के दिन घर पर फोन
किया था, तब से वेतन की आस लिए ज़िंदा था. बेरोजगारी भी बहुत थी.उम्र भी कम थी.जो
भी शक्ल देखता था,कहता - तुम और पत्रकार.... तुमको तो दाढ़ी - मूछ भी नहीं आयी
है.शक्ल से तो बच्चे दिखते हो....आई कार्ड दिखाओ...कितना पढ़े हो...उल्टा मेरा ही इंटरव्यू
 शुरू हो जाता. हर दूसरी जगह मुझसे यही सवाल होते.मैं भी जवाब दे दे कर थक गया था.
इसलिए जब भी किसी बड़े होटल में या बड़े समारोह में जाता या अखबार की ओर से भेजा
जाता.जगह पर पहुँचने से कुछ दूर पहले ही परिचय पत्र झोले से निकालकर गले में टांग
लेता और पहले से ही एक कागज पर मुझसे अक्सर पूछे जाने वाले सवालों का जवाब
लिखकर कुर्ते की बाईं जेब में रख लेता. एक तो मेरी उम्र और  छोटा कद,उस पर
भी शरीर के नाम पर दधीचि की हड्डियों को कौन बड़े अखबार में रखता,शिक्षा भी आधी
अधूरी... उस पर भी दस सवाल... पढ़ाई क्यों छोड़ दी.... अच्छा,पढ़ाई भी कर रहे हो... तो
 पहले पढ़ाई पूरी कर लो, फिर पत्रकारिता में आना... कई बड़े पत्रकारों ने तो सीधे
कहा...आत्महत्या [पत्रकारिता] क्यों करना चाहते हो ? ऐसे में ऐसे अनेक उपदेशक  कथित
बड़े पत्रकारों से बचने की कोशिश भी करता, फिर भी कहीं न कहीं मुझे पकड़ के ज्ञान
पिला ही देते. ऐसा ही एक बुरे वाले दिन को  मेरे साथ हुआ, एक ज्ञानी पत्रकार जो पत्रकार
कोटे से २-२ मकान ले रखे हैं.एक में रहते हैं एक किराए पर दिए हैं.मुझे एक कटिंग चाय
पिलाकर जबरदस्ती एक घंटे पत्रकारिता की बुराई पर प्रवचन दिए. किसी तरह से उनसे
जान बचाकर प्रेस क्लब के अहाते से बाहर हुआ, तो जान में जान आयी. दिमाग का दही हो
चुका था. ऐसे में एक मित्र के घर की राह पकड़ा.मित्र के घर गया तो पूछने लगे, घर की
हाल - चाल क्या है ? फोन-वोन किए थे कि नहीं, मैंने कहा- दीपावली में किया था, मन
बदला, मित्र को बोला, चलो अभी STD लगाता हूं. मैं और मेरे मित्र STD बूथ पर गए, फोन
के लिए कतार लगी थी.आधे घंटे की प्रतीक्षा के बाद आखिरकार हमारा नम्बर आ ही गया.
पहले दो बार तो नम्बर मिलाने पर चोंगे से आवाज़ आयी.इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं
कृपया थोड़ी देर बाद प्रयास करें. तीसरी बार डायल करने पर ५-६ बार टू- टू की बीप जाने
के बाद आख़िरकार घंटी बज ही गई. इसके साथ ही मेरी धड़कने भी बढ़ गईं. तभी बाहर
अपनी बारी आने के इंतज़ार में किसी ने जोर से बूथ का दरवाज़ा पीटते हुए कहा- अरे नहीं
 लग रहा है तो बाहर निकल, दूसरों को लगाने दे. इधर मुझे गुस्सा आ रहा था कि घंटी बज
 रही है और सामने वाला फोन नहीं उठा रहा है. कहीं फोन कट न जाय, धड़कन की गति
और तेज हो गयी. दुर्भाग्य से बूथ के अन्दर का पंखा खराब था, सो गर्मी के कारण पसीने
 से तर हो गया था. खैर फोन कटने से पहले उधर से हलो की आवाज़ आ गयी थी. जिससे
जान में जान गा गयी थी.फोन पड़ोसी के घर मिलाया था.पूरे गाँव में दो ही लोगों के घर
फोन था. जो गाँव में रुतबे का प्रतीक था.फोन उठाने वाली रिश्ते में चाची लगती थी. सो
जल्दी से प्रणाम कर बोला- मैं मुंबई से पंकज बोल रहा हूं, हमारी अम्मा या फिर बाबूजी को
बुला दीजिए. 10 मिनट बाद फोन करूंगा. उधर से आवाज़ आई ठीक और मैनें चोंगा रखा
दिया, पर इतने में साढ़े तीन रूपये का बिल गिर ही गया.10 मिनट बाद फोन किया तो मां
की आवाज आई, बाबू पंकज... मैं बोला, हाँ अम्मा ! पालागी, कैसे हो बच्चा, तुम्हारी सर्दी
 ठीक हो गई, मैं बोला- ठीक हो गई. मैं अच्छा हूं, बाबू जी कहां है ? अम्मा बोली- बच्चा हो वो
तो धान के खेत में हैं. मैं भी खेत में ही थी, खेत से जैसे ही घर आई, तभी बुलाने राजू आये
कि तुम्हारा मुंबई से फोन है. मैं भागी - भागी आई. बच्चा तुम तो सब जानते हो, थोड़ा घर
का ख्याल रखो, कुछ मिला कि नहीं. ई पत्तरकारी करने से का फायदा. जब कुछ ना मिले.
4 महीने से एक पैसा नहीं भेजे. तुम्हारे सिवा कोईदूसरा सहारा नहीं है. बच्चा, तुम्हारे
बाबूजी परेशान हैं. कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं. खाद की उधारी पिछले सीजन की बाकी है.
बिजली भी मुश्किल से एक दो घंटे के लिए आती है.खेत तक पानी पहुंचता है कि तब तक
बिजली कट जाती है. इंजन से सिंचाई बहुत मंहगी है. डीजल भी बलैक के बिना मुश्किले है.
अइसे तो खेती गिरहस्ती बिलाय जाई बेटवा. कैसा मालिक है ? कुछ करो बच्चा, मैं बोला-
हां, मैं कुछ करता हूं, जैसे मिलता है.तभी अम्मा बोल पड़ी, मिलता नहीं, कुछ करो बच्चा.
 नहीं तो खेती-बारी बेचनी पड़ जाएगी. मेरी बात का बुरा मत मानना बच्चा. अपने सेठ को
 बोलो कि घर पइसा भेजना बहुत जरूरी है. तुम बोले ही नहीं होगे. मैनें कहा- बोला था, कि
बहुत जरूरी है घर पइसा भेजना है, पर कुछ बोला नहीं. इतना सुनकर अम्मा गुस्से में
बोली – ई कइसा मालिक है बेईमान, काम करा के पइसा नाहीं देत. देवीमाई  उसकी
कमाई में आग लगे. मेरे बेटे की कमाई हजम करेगा कीड़े पड़ेंगे बेईमान को. ई अत्तरकारी-
पत्तरकारी के आलावा कौनो काम नाही मिलत.गरीब की आह खाली नाही जात. बहुत
नरक भोगेगा. मैंने कहा जाने दो सरापो मत. उधर मेरा ध्यान बिल पर गया तो देखा 60
रूपये तक पहुँच गया था.अम्मा फिर बोली सरापूं नहीं तो क्या करूँ तुम्ही बताओ ? अब
तक कितने साल से बम्बई में हो, कभी एक पैसा नहीं मांगी. पर अब बच्चा पानी सिर से
ऊपर हो रहा है. तो चुप नहीं रहा जाता.तुम्हारे बाप दिनों-दिन बूढ़े होते जा रहे हैं, अब वो
पहले वाली ताकत नहीं रही. घुटने में अक्सर दर्द रहता है.मुझे भी आज कल चक्कर आता है
एक दिन सरकरिया अस्पताल पर गई थी,डाक्टर बोला- चश्मा बनवाना पड़ेगा. आँख भी
जबाब दे रही है.ज्यादा क्या बोलूं, बच्चा तुम खुद ही समझदार हो. बगल से आवाज आ रही
थी, भइया, वहां कैसे हैं ? किस परिस्थिति में है ! तुमको मालूम है ! अपना बोझ भइया के
ऊपर.... पइसा के अलावा कुछ और नहीं.. लाओ अम्मा मुझे भी भइया से बात करनी है. मैं
कभी बात नहीं कर पाती. सब लोग भइया से बात करते हैं. फोन में सब आवाज आ रही थी
 वह मेरी प्यारी बहन अनामिका की आवाज थी. तभी अम्मा बोली, ‘ये बच्चा पंकज’ जरा
अनामिका से बात करो, कहती है- सब लोग बात करते हैं, परंतु मैं भइया से कभी बात नहीं
कर पाती.मैंने कहा - फोन दीदी को दो अम्मा, फोन पर एक स्नेह भरी आवाज़ उभरी, भइया
 प्रणाम.मैंने आशीर्वाद दिया-  खुश रहो बच्चा. अनामिका कैसी हो बच्चा ? अच्छी हूं भैया.
आप कैसे हो ? अम्मा की बात पर ध्यान मत देना. अपना ख्याल रखना. कैसे हो ? मैंने
कहा - अच्छा हूं. तुम बोलो, क्या बोलूं, मैं भी अच्छी हूं. आप बताओ भइया, मैंने फिर कहा - मैं
बिल्कुल ठीक हूं. तुम क्या कहना चाहती हो बच्चा ? बोलो, संकोचो मत, मैं अच्छी हूं भइया,
कहते हुए उसका गला रूँध गया.अनामिका ने दबे स्वर में कहा- कोठरी का दरवाजा टूट
गया है. फिर वह सकुचाते हुए बोली- मैं बिना दरवाजे के अकेले  कोठरी में सोती हूं. डर
लगता है. सब कुछ वही ले दे के एक कोठारी ही है.सारा सामान यहां तक कि आटा-दाल भी
 उसी में रहता है. हो सके तो दरवाजे के लिए कुछ करना, मैं यह सब नहीं कहती भइया...
लेकिन … कहते–कहते रो सी पड़ी और फोन रख दी.मेरा भी गला रुंध आया. आँख भर
 आई. हम भाई-बहन एक - दूसरे को देख तो नहीं सकते थे,परन्तु दर्द महसूस कर सकते थे.
 और महसूस कर रहे थे. मैं उसकी परेशानी, भावना, समझ रहा था . उसका स्नेह, उसकी
पीड़ा, उसका अनबोला डर, अनकहा संशय,विवशता से भरी अतुल्य आत्मीयता इन सबने
मुझे एक क्षण के लिए अपरिमित पीड़ा से मुर्क्षित कर दिया और पुनःअगले क्षण मुझे
झकझोर कर रख दिया. ऐसी विवशता ... किकर्तव्य विमूढ़ सा हो गया.एक भाई ही एक
बहन की भावना को समझ सकता है.  फोन कट जाने के बाद भी थोड़ी देर तक मेरी आँखें
बरसती रही. तभी किसी ने जोर से आवाज़ दी,साथ ही कांच के लगे पारदर्शी दरवाजे को
कई बार तेजी से थपथपाया... ये भाई बाहर निकल. बाहर आके जितना रोना है रो. हमें भी
 फोन करना है.मैं उस अपरिचित की बातों का बिना कोई उत्तर दिए बिना बूथ से बाहर आ
 गया.कुछ घंटों के लिए अम्मा की बातें भूल गया.सिर्फ बहन की आवाजों की गूंज मेरे
कानों में दौड़ रही थी. मित्र मेरी हालत देख कर थोड़ा घबरा गया, थोड़ा सकुचाते हुए बोला-
क्या हुआ ? सब ठीक तो है. मैं उसके प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं दे सका.उसने फिर पूछा- घर
में सब कुशल तो है ? इस बार मैनें हाँ में सर हिलाया. रात को थोड़ी राहत मिली.तो सोंचा
क्या करूँ ? सम्पादक कम मालिक जी से से कह-कह के परेशान हो गया था,परन्तु फिर
हिम्मत किया कि कल जरूर पैसे मांगूंगा चाहे झगड़ा ही होजाए. फिर सोंचा कल का कल
देखेंगे.फिलहाल किसी तरह आज कटे.आज छुट्टी थी, देर तक नीद नहीं आई. बार-बार घड़ी
देखता ...रात के 2 बज चुके थे.सोंचा कब सुबह हो और सम्पादक जी से बात हो. मेरी चार
महीने का पगार दें अथवा हिसाब करके नौकरी से निकाल दें.

पवन तिवारी

सम्पर्क – 7718080978

poetpawan50@gmail.com

गुरुवार, 23 नवंबर 2017

बियाह कटवा






















जब से भगेलू कै बियाह तैं भयल है
जब देखा दोस्तन संग बगियै में जमल है

नयका अँगोछा तब से गंटई में टंगल है
खोब पान खात हवै अपने में रमल है

गाएँ कै जौ पूछै केहु कहिया बियाह है
मुस्की मारि उल्टै पूछै केकर बियाह है

सुनली तौ तोहरै है तूही के पता नाय
कहैं तब भगेलू अबहिन बातचीत चलति है

क्योह भी जौ पूछाला तौ इहै बतावैनै
आवत-जात बाय सब बातचीत चलति है

चाची वोकर कहले हईं केहू से बताया जिन
भेद बहरे जाई नाही घर ही के भेदी बिन


गउवैं कै चुगुली कइके बियाह तोड्वावै नै
आई के दुवारे फिर मुँह बिच्कावैं न

चौराहे पे नात-बात क्योह जौ भेंटाला
बियाहे के जौ पूछै तौ पान खियावैला

 यही के खिया के पान एक दिन मंगरू
बाति ही बाति में कुलि जानि लेहनै मंगरू

दुइय्यै दिन बाद नाऊ भगेलू के घर आयल
लड़की के बापे कै एक चिट्ठी लै आयल

लड़की के मंगरू के पसंद नाहीं फोटो है
देखले में लगत है कदो वोकर छोटो है

लड़की के मामा के जंचत नाही रंग है
यही नाते शादी हम करत हई भंग है


मँगरू कै बाप पढिके गइनै गुस्साई
कवनो सार चुगुली लगाय देहलै माई

दुसरे कै दोष का इहै है निकम्मा
इहै ससुरा कवनों से बकले होई अम्मा

पवन तिवारी
सम्पर्क – 7718080978
poetpawan50@gmail.com




बुधवार, 22 नवंबर 2017

जनतंत्र बोल रहा है









जनतंत्र बोल रहा है
गड्ढ़ों में बिलखती सड़कें बोल रही हैं
अपने ही बदन की बदबू से परेशान कचरे
दबे हुए सांप की तरह फुसफुसा रहे हैं
यातायात में फँसे वाहन की विवशताएँ
फुरफुराते हुए कुछ तो बोल रही हैं
प्रदूषण से परेशान हवा रो-रो कर डोल रही है
तालाब में मच्छरों से घिरा बेबश
सडांध को झेलता पानी कौन जाने
कुलबुला रहा है कि बोल रहा है
रसायनों से पीड़ित बजबजाते
काले हो गये नाले रेंग रहे हैं
शायद वे अपना दुखड़ा बोल रहे हैं
एक अजीब गंध से परेशान सरकारी अस्पताल
न डोल रहे,न बोल रहे, बस घिंघिया रहे हैं
रिश्वत से परेशान वर्षों से दबी फाइलें
जिनकी मजबूरी का बेसाख्ता फायदा उठाकर
दीमक नोच रहे हैं
वो बस चीखने की कोशिश में मर रही हैं
युवा परेशान है और बेरोजगारी
छाती पीटकर मुनादी कर रही है
फिर भी कोई हलचल नहीं
और वो पछाड़े खाकर गिर रही है
असुरक्षा की आशंका से सुरक्षा को शंका है
सुरक्षा की ये हालत देख बेटियाँ भयभीत हैं
और कुछ उंगली पर नाचने वाले लोग
नारा दे रहे हैं, इण्डिया गेट पर चिल्ला रहे हैं

जनतंत्र बोल रहा है 

पवन तिवारी 
सम्पर्क - 7718080978
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रविवार, 19 नवंबर 2017

पास जब पैसे नहीं होते




















पास जब पैसे  नहीं होते 
लोग फिर लोग नहीं होते

ख़ूब  देखा है जी  करके
यूँ विश्वास डिगे नहीं होते

जिन्दगी  थम  जाती है अचानक
जिस दिन कुरते में जेब नहीं होते

साथ छूटने का डर तब ज्यादा होता है
जब कभी हमारे खाते अमीर नहीं होते

नज़रें,नजरिये बदल जाते हैं बेसाख्ता
जब  कभी  बटुए  गरम  नहीं  होते

दौलत  जब  दामन  छुड़ाती  है  तो
अंदर के जज्बात तक अपने नहीं होते


और जब ये  साथ  नाचती है तो
क्या बताऊँ गैर भी गैर नहीं होते

धन्यवाद ईश्वर का ऐसे हालात में
बस  जो  दोस्त  हैं गैर नहीं होते


पवन तिवारी
सम्पर्क – 7718080978

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शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

निर्धनता की घोर घटा



















निर्धनता की घोर घटा जब घिर-घिर आयें
उमड़-घुमड़ बादल आयें टिप-टाप बरस जायें
असफल प्रयास हों जब सारे ना कोई युक्ति चले
ऐसे में केवल धर्म मित्र उसकी ही शरण चले आयें

होके समर्पित बिन विचलित हो करें कर्म
ना सोंचे परिणाम अधिक क्या होगा मर्म
सुत,भगिनी,दारा,संबंधी भी छिटकनें लगें जब
समझो तुम्हे परखने को आया हुआ है धर्म

भरी सभा में द्रौपदी सा जब भीषण संकट आये
छोड़ आस जग की तब केवल ईश्वर में रम जायें
ऐसे में डूबती हुई नैय्या भी ऊपर आ जाती
धर्म की हो पतवार तो खेने खुद ईश्वर आयें

पवन तिवारी
सम्पर्क – 7718080978
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बुधवार, 15 नवंबर 2017

जिनको भी धन मिला , चाहें सम्मान वे




















जिनको भी धन मिला,चाहें सम्मान वे

जिनका सम्मान,धन को तरसते हैं वे 

विद्वता, सारा सम्मान है अधूरा
धन के बिन सच में होता न ये पूरा
मान सम्मान के साथ धन भी जो है
पूर्णता में तभी उसका सम्मान है

मान सम्मान से अहं भर जाता है
मान-सम्मान से उदर भरता नहीं
भूख जब भी मचाती कोहराम है
मान-सम्मान का होता अपमान है

सच यही है कि कुछ एक अपवाद हैं
मरते दम तक हैं लड़ते जज्बात हैं
अर्थ बिन भी जिए जो सम्मान से
वे महामना हैं कर गुजर जाते हैं

पवन तिवारी

सम्पर्क - 7718080978 
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मंगलवार, 14 नवंबर 2017

जाने क्यों बहुत कुछ आता है जाने के बाद















जाने क्यों बहुत कुछ आता है जाने के बाद
जाने क्यों बहुत कुछ मिलता है मरने के बाद
जाने क्यों कुछ लोग मशहूर होते हैं गुजरने के बाद
जाने क्यों बहुत अच्छे आदमी कहे जाते हैं न रहने के बाद
किसी में अच्छाइयाँ क्यों आ जाती हैं अचानक उसके न होने के बाद
क्यों किसी की पीढ़ियाँ अमीर होती हैं उसके मरने के बाद
उसके सवालों के जवाब क्यों मिलते हैं उसके चले जाने के बाद
क्यों नहीं कुछ होता वक्त पर क्यों होता है वक्त बीत जाने के बाद
क्यों कुछ लोग अमर होते हैं मर जाने के बाद
फिर भी ये बाद क्यों होता है सब कुछ करने के बाद
लोग सरकारी योजना क्यों हैं जो होती है पूरी समय बात जाने के बाद
जिस दिन ये बाद हो जाएगा पहले वो दिन होगा
दुनिया भर के लिए ख़ास
लोग पढ़ेंगे,याद करेंगे कविताएं लेकिन कविताओं में
कुछ मर जाने के बाद
काश ये बदले मनहूस परम्परा, लोग याद किये जाएँ
अच्छे कहलायें ,अमर हों,बाद होने से पहले आबाद हों
फिर कहीं बाद हों


पवन तिवारी

सम्पर्क – 7718080978

poetpawan50@gmail.com