यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

न रहे मेरे ही सपने मेरे

न रहे मेरे  ही  सपने  मेरे

वक्त हिलते लगे कटने मेरे

 

वक्त झुकता जो दिखा मेरी तरफ

ग़ैर  लगने  लगे  अपने  मेरे

 

ख़बर फैली जो उसके आने की

सपने भी लग  गये  जगने मेरे

 

उसे देखा तो कैनवास पे फिर

हाथ खुद ही  लगे  चलने मेरे

 

जब से गप मेरे मीठे लफ्जों को

आते कुछ लफ़्ज को चखने मेरे  

 

पवन तिवारी

११/०३/२०२१

 

नेता विशेषणों से

नेता विशेषणों  से  अब  तो  गाली  बन  गया

कविता का मोल कुछ करों की ताली बन गया

 

ऐसे  करेंगे  नाम  क्या  जिनकी   मुराद  बस

खुश हैं कि उसके होठों की वो लाली बन गया

 

वो  नागफनी   हुश्न   के   साँचे   में पड़ा तो

पलक झपें  फूल   भरी   डाली   बन   गया

 

जो रोज नोचता  था  बगीचों  के  फूल को

उसकी अदा को देखते  ही माली बन गया

 

पवन तिवारी

१३/०३/२०२१/

तुम समझना चाहते नहीं

तुम समझना चाहते नहीं तो क्या करूँ

तुम ठहरना चाहते  नहीं तो क्या करूँ

 

ऐसे ही नहीं मिलते दुनियादारी के मोती

तुम भटकना  चाहते नहीं  तो  क्या करूँ

 

अख्तियार कहने भर को था सो कह दिया

तुम  बदलना  चाहते  नहीं  तो  क्या करूँ

 

सज धज के घर निकली  सभी देखते रहे

तुम मचलना  चाहते  नहीं तो क्या करूँ

 

प्यासी भी हूँ सावन भी हैं और कैसे बताऊँ

तुम  बरसना  चाहते   नहीं  तो  क्या करूँ

 

प्यार में कुछ बात  बिन कहे  कही जाती

तुम बहकना चाहते  नहीं  तो  क्या करूँ 

 

पवन तिवारी

१५/०३/२०२१

वो नज़ाकत समझ नहीं पाया

वो नज़ाकत  समझ  नहीं पाया

ज़रा सी  बात  सह  नहीं पाया

 

कर नहीं पाता कुछ भी आसाँ वो

धारा के  साथ  बह  नहीं पाता

 

उसकी सुन्दरता जान ले बैठी

फूल होकर  महक नहीं पाया

 

देखते – देखते   हुआ  उसका

तपाक बोला  रह नहीं पाया

 

गिरा भी तो वो अपनी शर्तों पर

यूँ ही   चुपचाप ढह  नहीं  पाया

 

पूरा घर ही  संभाले  रखता था

खुद पे आया सम्भल नहीं पाया

 

पवन तिवारी

१४/०३/२०२१

फागुन में बदली छायी है

फागुन  में बदली छायी है

हाय घटा घिर के आयी है

इंद्र धनुष भी दिया दिखाई

देवों  को   होली  लायी है

 

बादल भी  होली खेलेंगे

इंद्र धनुष  से  रंग रेलेंगे

पानी के अधिपति वे ही हैं

पिचकारी  हजार ठेलेंगे

 

धरती रंग  बिरंगी नभ भी

बच्चे खेल  रहे  हैं  अब  भी

रंगों  जैसा  ही  जीवन  है

करें शिकायत ये जग तब भी

 

जैसे  देव  रंगीले होते

वैसे मनुज छबीले होते

दोनों के स्वभाव मिलते हैं

रिश्ते सभी रसीले  होते

 

पवन तिवारी

१३/०३/२०२१

 

रात धीमें से ढल रही होगी

रात  धीमें  से  ढल  रही  होगी

हवा भी  तेज  चल  रही  होगी

 

प्यार करती  है कह नहीं पाती

अपनी खुशियों को छल रही होगी

 

प्रेम में  छल  मिला  उसे जब से

बर्फ  सी  रोज  गल  रही  होगी

 

कचरे में आँख  खुली थी उसकी

दूब  के  जैसी  पल  रही  होगी

 

प्रेम का कोयला  मिला  जब से

धीमी धीमी सी जल रही होगी

 

पवन तिवारी

१२/०३/२०२१

सुलझे लोगों में

सुलझे लोगों में  बड़ी उलझन है

खुद से ही खुद की होती अनबन है

ढूंढने  से  नहीं   मिलते   अपने

जिन्दगी  हो  गयी सघन वन है

 

सारे किस्सों की मौत होने लगी

गाँव की ख़ुशबू कहीं सोने लगी

दादी  नानी  से  छिटकते जाते

उनकी मासूमियत है खोने लगी

 

जल्दबाजी का  सबमें जोर हुआ

आधुनिकता का बहुत शोर हुआ

संस्कृति को समझते पिछड़ापन

लोक धुन सुन के बहुत बोर हुआ

 

अपनी भाषा भी फीकी लगती है

आशा  अंग्रेजियत   से  जगती  है

धोती   कुर्ते   में   गँवारू  समझें

अर्धनग्नों  के   पीछे   भागती  है


पवन तिवारी

१२/०३/२०२१ 

वक्त झुकता जो

न रहे मेरे  ही  सपने  मेरे

वक्त हिलते लगे कटने मेरे

 

वक्त झुकता जो दिखा मेरी तरफ

ग़ैर  लगने  लगे  अपने  मेरे

 

ख़बर फैली जो उसके आने की

सपने भी लग  गये  जगने मेरे

 

उसे देखा तो कैनवास पे फिर

हाथ खुद ही  लगे  चलने मेरे

 

जब से गप मेरे मीठे लफ्जों को

आते कुछ लफ़्ज को चखने मेरे  

 

पवन तिवारी

११/०३/२०२१

बुधवार, 27 अप्रैल 2022

आया अपने गाँव तो

आया अपने गाँव  तो  कल  खेत  की पकड़ी डगर

रास्ते  में  टिटहरी  की  पड़  गयी  मुझ  पर  नज़र

बोली  जामुन  कब तलक भाकोगे यूँ ही दर-बदर

हरित  भोली  वादियों  में  छोड़  कर आओ  नगर

 

गाँव  में  मुझे   देखकर   हँसते   हुए   बोली  नहर

अब न जाना छोड़ कर तुम अपनी माटी गाँव घर

कुकुरमुत्ता चहक बोला रहना अब इसी हरगुजर

फुदक  गौरैया  भी  बोली  यहीं  पर  जाओ  ठहर

 

शहर की चालाकियों  से  सिकुड़ता  जाता जिगर

बथुए ने रो कर  कहा  कि  लौट आओ इस डगर

बाह  में   शरमाया  महुआ  आम  हो बोला निडर

नगर के जीवन में मिलता स्वास्थ्य से ज्यादा सगर 

 

मेंड़  बोली  खेत   बोला   पवन  जी   आओ  इधर

दूब मीठे  स्वर   में  बोली  आप का मन है किधर

गिलहरी ने कहा कवि जी लौट आओ अपनी दर

नगर में ज्यादा है नकली   असली केवल है जहर

 

नेह सिंचित बोल सुनकर हिय हुआ था तरबतर

मैं रहूँगा गाँव में अब सुन  हुआ  खुश भी भ्रमर

बाग पोखर धूल मिट्टी सरसो तक पहुँची ख़बर

गाँव में  कविता की सरिता अब बहेगी हर प्रहर

 

पवन तिवारी

०८/०३/२०२१

सोमवार, 25 अप्रैल 2022

अम्बर में तो घिर आये थे

अम्बर में  तो  घिर  आये थे

हिय में भी बादल घिर आये

नैना  कब  से  बरस  रहे  थे

मेघा अब  बरसन  को आये

 

आग लगी है  सपनों में भी

हाय इन्हें अब कौन बुझाए

अभिलाषायें तड़प के जलती

हाय इन्हें अब कौन बचाए

 

अपनों ने भी आग लगायी

तभी तमाशा  देख  रहे हैं

मरुथल हो गये थे मेरे सुख से

अब मेरे दुःख से सींच रहे हैं

 

ना भाये चिड़ियों का कलरव 

भोर में भोर भी नहीं  सुहाये

जिस चांदनी को तरसा करता

उसे  देख   अब  मन  भुसुराये

 

सब कुछ मिल गया प्रेम मिला तो

 हम  थे  फूलों  नहीं  समाये

इसी  प्रेम  ने  लूट भी डाला

इतना दुःख कोई कैसे  गाये

 

मरना है  अंतिम पथ  केवल

पर उससे  पहले  लड़ना  है

दुःख को भी है मजा चखाना

अच्छे से  उसको  जड़ना  है 

 

पवन तिवारी

२१/०४/२०२१