यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

सा रे गा मा पा धा नि सा















सा रे गा मा पा धा नि सा
जिन्दगी का क्या भरोसा
जब तलक है प्यार कर ले
सा नि धा पा मा गा रे सा

सा सा रे रे गा गा मा मा
तेरे बिन कुछ हैं ना हम  
पा पा धा धा नि नि सा सा
भाग्य का ये खेल कैसा

सा सा नि नि धा धा पा पा
जिनको चाहें वो ना मिलता
मा मा  गा गा रे रे सा सा
है अजब ये प्यार का किस्सा

सा रे गा, रे गा मा, गा मा पा, 
कुछ भी हो गर प्यार सच्चा
मा पा धा पा धा नि धा नि सा
अंत फिर होता है अच्छा

सम्पर्क-7718080978

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

वो कुछ भी बोलेगा सच मान लिया जाएगा











वो कुछ भी बोलेगा सच मान लिया जाएगा
''अमीर है''दुश्मनी कौन लेने जाएगा


 इस सलीके से झूठ बोलेगा
मैं कहूंगा सच ,मगर झूठ माना जाएगा 


तर्क ऐसा वो देगा महफिल में
हर शख्स मेरे खिलाफ जाएगा 


उसकी जेबों में अशर्फियाँ हैं भरी
उसकी बातों को सुना जाएगा 


सबको मालूम है इन्साफ किधर जाएगा
जेब खाली है इधर, उधर जाएगा


मुझको जन्नत की आरजू ही नहीं
मेरा वजूद इसी मिट्टी में मिल जाएगा 

poetpawan50@gmail.com

सम्पर्क-7718080978

सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

जिन्दगी तूं ही बता तेरी असलियत क्या है




















जिन्दगी पर बहुत कुछ लोग बोल जाते हैं
जिन्दगी जादू है कुछ लोग लिखे जाते हैं

जिन्दगी तुझको मुसल्सल पाने की चाहत में
 तमाम उम्र यूँ ही  गुज़ारे जाते हैं

तूं न मिलती है मुसल्सल कभी भी
लोग प्यासे ही चले जाते हैं 


जग में आते ही तेरी लत में कैद होते हैं
उम्र भर कैद में मर जाते हैं 


कोई समझे,कोई चाहे,कोई इरादा करे
ख्वाहिशों के तले दब के ही गुज़र जाते हैं 


दुश्मनी,लूट,कत्ल और भी जाने क्या-क्या
तेरी चाहत में लोग नज़रों से भी गिर जाते हैं 


तुझे हराने के चक्कर में फ़कीर और साधू
जाने क्या -क्या लोग बन जाते हैं 


जिन्दगी तूं ही बता तेरी असलियत क्या है
हम तो बेपरवाह जिए जाते हैं 

poetpawan50@gmail.com

सम्पर्क- 7718080978


रविवार, 19 फ़रवरी 2017

साथी

मित्रों ये रचना मैंने १४ फरवरी की रात में करीब 3 बजे लिखी .कारण मेरी जीवन साथी उसी दिन मुंबई से गाँव गई . एक लम्बे अरसे बाद हम बिछुड़े . घर लौटने पर एक उदासी सी छा गयी.नीद भी नहीं आई.रट के तीन बज गये .फिर बत्ती जलाया कलम और कागज उठाया उसके बाद जो भाव आये उतार दिया कागज पर उसके बाद थोड़ा सा सुकून मिला.करीब ५ बजे सुबह नींद आयी होगी. इस भाव से आप इस रचना को पढ़ें तो शायद ठीक लगे आप को ....
          

























              १
जब थे साथ लड़े - झगड़े
शिकवे शिकायतें रोज किये
बहँसें हुई,न जाने कितने हंगामें 
खाना -पीना, कपड़ा-लत्ता,स्त्री करना
हर काम में नुक्ता-चीनी 
रोज भुनभुनाहट,भीनी-भीनी
इन सबके भी बीच कुछ पल 
तेरी मेरी कथा-कहानी 
कुछ हँसी-ठिठोली 
कुछ सपनों के ताने-बाने बुनते थे 
साहस देते इक दूजे को 
चिंता न करो अच्छा होगा
अब सो जाओ बड़ी देर हुई 
              
                   २

फिर सुबह हुई, आफिस जाना
जूते-मोज़े,कपड़े,चश्में का खो जाना
फिर झल्लाना और चिल्लाना 
इन छोटी -छोटी में फिर लड़ जाना  
फिर गुस्से में तेजी से दरवाज़ा भिड़काना 
और दौड़कर उनका दरवाजे पर आना
जूते की खट-खट और सीढ़ियों का नप जाना 
शाम लौटकर फिर घर आना 
लपककर उनका पानी देना 
और पूछना दिन का हाल 
ठीक ही रहा नहीं कुछ ख़ास 
खडूस आदमी है नया बॉस 
और पूछना उनका चाय बनाऊँ

           

जब झगड़े में दोनों गुस्सा हो जाते 
''मैं कहता- जाने कब पीछा छूटेगा''
''वो कहतीं- फूटे मेरे करम थे जो तुम्ही मिले''
अब जब चली गईं वो याद बहुत आती हैं 
कपड़े धोना,स्त्री करना, चाय पिलाना 
काम से घर आते ही झट से पानी लाना 
कैसे बीता दिन का सारा हाल पूछना 
सपने पूरे होंगे का विश्वास दिलाना 
साया बनकर रहना हर-पल साथ निभाना 
तुम बिन घर सूना-सूना है, 
और मन मेरा बुझा-बुझा 
बड़ा कठिन होता है बिन साथी के जीना 
मोल नहीं कर पाते संग -संग रहने पर 
                    
                      

बिछुड़े तो एहसास हुआ हैं वो अनमोल
उसका क्या हम मोल लगाते जो अनमोल 
दरवाज़े,खिड़की,दीवारें
मंदिर,खाट,रसोई,आँगन
सब सूनें हैं,सब उदास 
कल तक तुम थीं,तो ये घर था 
अब कोई मकां भयानक लागे 
बिन जीवन साथी के घर तो 
घर के सिवा सभी कुछ लागे
साथ में रहके मोल न समझें 
होते हैं कुछ लोग अभागे 
सोचें-समझें गुनें जिन्दगी
ऐसा ना हो फिर कभी आगे 

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सम्पर्क-7718080978

शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

तुम्हे प्यार करता हूँ ,करता रहूँगा.




















तुम्हे प्यार करता हूँ ,करता रहूँगा.
जब तक जियूँगा तुम पे मरता रहूँगा 

जिधर देखा तुम ही दिखाई दिए हो 
 यही प्रेम है इसमें डूबा रहूँगा

तुम्ही एक जग में हो सिर्फ मेरी 
मरके भी मैं तुम्हारा ही रहूँगा 

कहीं और भटकूँगा जग में नहीं मैं 
 तेरे साथ, तेरे रूह में मैं रहूँगा 

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सम्पर्क- 7718080978

परी हो या तुम परियों की रानी हो















परी हो या तुम परियों की रानी हो
ख्वाबों में आने वाली तुम नई कहानी हो
अधर तुम्हारे हैं गुलाब की पंखुड़ियाँ
नैनों में बसती हैं जादूगरनियाँ
खूबसूरती की तुम चढ़ी जवाने हो

परी हो या तुम परियों की रानी हो

स्त्री हो या कविता का तुम श्रृंगार हो
श्लेष,यमक,अनुप्रास कौन सा अलंकार हो
दुःख में भी तुम्हे देख के हुलसित हो जाए मन
रोम-रोम खिल उठे सिहर उठे सारा तन
शची हो या तुम और कोई तुम क्या हो

परी हो या तुम परियों की रानी हो

केशों को झटको तो घटा घिर आये
चाल देखकर हिरनी भी शरमा जाए 
तेरी कटि के लचक का भी क्या कहना
तेरा इक-इक अंग सुनहरा सा गहना
क्या सच में इस जग की रानी हो

परी हो या तुम परियों की रानी हो

अभी तक हो सुरक्षित खुसी है मुझको
जग है बेमुरव्वत इसका डर मुझको
ये हंसी ये खुशबू बिखेरती तुम रहना
बस इतना सा तुमसे मेरा है कहना
मीरा सी पावन लगती दीवानी हो

परी हो या तुम परियों की रानी हो

ये तुम्हारी काया सुगंधित मलय है
बाँह तुम्हारी सुन्दर सी रेशममय है
चेहरा तुम्हारा प्रात का सूरज है
नयन तुम्हारा जैसे जलज है
सूर की तुम ब्रज या तुलसी की अवधी हो

परी हो या तुम परियों की रानी हो

जब लब खोलो निकले छंद सवैया
देख के तुमको हो न जाऊं गवैया
इस हद तक मई तुम पर फ़िदा हो गया हूँ
खुद की सुध नहीं है दीवाना हो गया हूँ
तुम क्या काम देवी रति हो

परी हो या तुम परियों की रानी हो

poetpawan50@gmail.com

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गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

देश प्रेम























प्यार पर बात करना सहज है मगर 
देश पर बात करना समझ -बूझकर
प्यार तो दो दिलों का ही बस खेल है 
देश का खेल तो करोड़ों आन है 

प्यार में मर मिटेंगे तो दो जान ही 
देश पर तो शहीदों की गिनती नहीं 
प्यार दो लोगों का आपसी प्रेम है 
देश से प्रेम १८५७ है 

मानता हूँ कि पावन बहुत प्रेम है 
प्रेम का रूप राधा व मीरा भी है 
देश से प्रेम उद्दात और श्रेष्ठ है 
चंद्रशेखर भगत सिंह व सुखदेव है 

इनकी पावनता गंगा से कम है नहीं 
देश के गर्व हैं देव से कम नहीं 
प्रेम करना ही है देश से फिर करो 
ऐसे ही प्रेमियों की जरूरत भी है 

लैला मज़नू से बनता नहीं देश है 
देश बनता है तो घोष और बोस से 
प्यार में मरना यदि है जरुरी सनम 
तो मर जाइए फिर वतन के लिए .

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बुधवार, 15 फ़रवरी 2017

बात अच्छी नहीं कुछ भी बोलना

बात अच्छी नहीं  कुछ भी बोलना
पहले तुम सोंचना बाद लब खोलना
दूसरों की उड़ाई है खिल्ली बहुत
अपने ऐबों पे भी जरा लब खोलना 


वादे करने निभाने में अंतर बहुत
सच को कहने में भी लगती ताक़त बहुत
अपनी शर्तों पे जीना है आसाँ नहीं
इसकी कीमत चुकानी है पड़ती बहुत 


छूट जाते हैं रिश्ते कई राह में
 नफरतें मिलती हैं ऐसे बाज़ार में
स्वाभिमानी को तो ठोकरें मिलती हैं
कांटे ही कांटे है ऐसे बागान में

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

बस इतनी है ख्वाहिश तेरे,दामन में निकले दम































तुम जो चलो साथ,सुहाना सफर ये हो 
चलते रहें कदम-ब–कदम, कम सफ़र न हो 

तुम जो मिले तो मेरे,दिल में कमल खिले
चलते रहे यूँ प्यार के , अपने सिलसिले

मैनें जो आरज़ू , की थी खुदा से
मेरी वो आरज़ू सनम,तुम हो कसम से

संग-संग तुम्हारे चलना, किसी तीर्थ से न कम
मंजिल कभी न आये खुदा,चलते रहें हम

मर भी जाएँ हम अगर,होगा न कोई गम
बस इतनी है ख्वाहिश तेरे,दामन में निकले दम

 सम्पर्क -7718080978   


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सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

तुम पर जवानी फिसली प्यार वज़ह थी
















प्यार हुआ था तुमसे जवानी वज़ह थी 
तुम पर जवानी फिसली प्यार वज़ह थी 
संग - संग चले हम-तुम इकरार वज़ह थी  
खुशहाल जिए हम दोनों विश्वास वज़ह थी 


तुम थीं तो मुस्काने  की अनेक वज़ह थी 
तुम थीं तो जीने की भी अनेक वज़ह थीं 
तुम गई तो सारी वजहें भी चली गईं
घर को आग लगाने की बस एक वज़ह थी 

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सम्पर्क -7718080978


रविवार, 5 फ़रवरी 2017

जग को मुझ पर भरोसा नहीं

जग को मुझ पर भरोसा नहीं
और मैं चाहता भी नहीं 

मुझको खुद पर यकी हैं मगर 
जग को खुद पर भरोसा नहीं 

जग पे कैसे भरोसा करें हम सभी 
अपने खूं पे ही खुद को भरोसा नहीं 

छोड़ो सबका भरोसा तुम आगे बढ़ो 
खुद पे विश्वास तो कुछ भी मुश्किल नहीं 

और भी जिन्दगी में कई काम हैं 
एक रुकने से जग सारा रुकता नहीं 

तुम बढ़ो बस बढ़ो आगे बढ़ते रहो
फिर फलक और बुलंदी भी कुछ नहीं  

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सम्पर्क -7718080978

खुद से मिलने का शौक रखता हूँ.

भीड़ से रोज-रोज मिलता हूँ
काम मैं रोज यही करता हूँ


सुबह जाता हूँ शाम आता हूँ
यूँ ही जिन्दगी बिताता हूँ


लोगों से दिन भर मिलता हूँ
शाम अकेला फिर होता हूँ


जमाने भर से मिल चुका हूँ मगर
खुद से मिलने का शौक रखता हूँ


जिससे जब चाहा सब मिले मुझको
खुद से की बात तो फटकारा मुझको  


हूँ मैं क्या खुद को समझना चाहता हूँ
मैं खुद को खुद से मिलाना चाहता हूँ


मेरी हस्ती है क्या समझना चाहता हूँ
कुछ सवालात खुद से खुद ही करना चाहता हूँ


जिन्दगी भी खूब अय्यारियां करती है मुझसे
खुद को ही खुद से कभी  मिलने नहीं देती


जमाने भर को मैं जमाने से मिलाता हूँ
चाहकर मैं खुदी से खुद नहीं मिल पाता हूँ


बहुत घूमा हूँ जमाने भर में बाहर-बाहर
मेरे भीतर भी एक है दुनिया  देखना उसको अब मैं चाहता हूँ. 

भूख की कीमत क्या है जाओ देखो थाने पर 

रोटी चोर भाग रहा था पकड़ा गया है थाने पर


ये बुरा वो और बुरा उँगली उठाता सब पर
खुद से खुद को देख जो पाता खुद शर्माता खुद पर 


अब रोने से क्या होगा जीवन भर हँसे दूसरों पर
काश हुनर सीखा होता कुछ हँसने का खुद पर 

poetpawan50@gmail.com 

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गुरुवार, 2 फ़रवरी 2017

प्यार

        

 गीत



प्यार जब होता है नींद खो जाती है
इक खुमारी सी खुद पे ही छा जाती है 
लब से कहने की कोई जरूरत नहीं
आखों-आँखों में भी बात हो जाती है

प्यार की तो जुबाँ एक होती नहीं
उसके दरवाज़े-खिड़की कई होते हैं
आखों से जुल्फों से और अदाओं से भी
काम की सारी बातें भी हो जाती हैं

प्यार में जितना कम लब को खोलें सनम
प्रेम की उतनी लम्बी उमर हो सनम
आँखों-आँखों इशारों में बाते चलें
ऐसा ही प्रेम होता सफल है सनम

लब जो ज्यादा खुले भेद खुल जायेगा
प्यार की राह में शोला बिछ जाएगा
पूरी करना कहानी कठिन होगा फिर
फिर ज़माना भी दुश्मन हो जाएगा

 प्यार की जब भी कोई कहानी लिखो
हो न किसको खबर सावधानी रखो
प्यार की पूर्णाहुति जब हो जाए सनम
फिर जमाने में साया कहानी करो .

poetpawan50@gmail.com

सम्पर्क - 7718080978



बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

फर्क तो है गाँव और शहर में

   



 शहर के दस वर्गफुट में गुजरती है जिन्दगी
बस दो बाल्टी पानी,नहाना खाना सब
गाँव में ५ कमरे बरामदा द्वार और बहुत कुछ
पड़ोसी से झगड़ा खूंटे की जगह के लिए
एक बाल्टी में बस दातून और मुँह की सफाई

फर्क तो है गाँव और शहर में

गाँव आर्थिक दुर्बलताओं के पहाड़ पर स्थित
 ढँकी पूरी की पूरी हर बेटी हर स्त्री
शहर अर्थ की अट्टालिकाओं से भरा गर्वित
हर युवती हर महिला खुली-खुली   

फर्क तो है गाँव और शहर में

गाँव में बीमार के लिए पूरा गाँव अपना
अम्मा सिरहाने बैठकर माथे पर फेरती हाथ
रखकर सर पर सरसों का तेल करती मालिश
मुँह में डालती अपने हाथों से दवा
पिलाती पानी नम आँखों से
खाट के इर्द गिर्द होते हैं
अनगढ़,ठेठ,देसी पर संवेदना से भरे लोग
 शहर में बीमारी में एकाकी, विवश,
किसी के दरवाजे की घंटी बजाने की बेसब्र आस
बेड पर पड़े-पड़े कभी दीवाल
कभी खिडकियों को निहारना
कांपते हाथों से पानी लेना और दवा खाना
कभी-कभी ऊबकर खीझ से अचानक टीवी बंद कर देना
और मोबाइल पर किसी नम्बर में खोजना अपनापन

 फर्क तो है गाँव और शहर में

कभी गाँव में शौकिया चूल्हे पे
जताइए इच्छा बनाने की खाना
हँसती हैं घर की पड़ोस की औरतें
देती हैं ताना ‘मेहरा हैं क्या’
रसोइया बनेंगे बनेंगे ‘चुल्हपोतना’
उड़ाती हैं उपहास
शहर में चूल्हा जलाना काम से लौटकर देर रात
जल्दी –जल्दी में तवे पर
रोटी और हथेली दोनों का जल जाना
और हो जाना तरकारी में नमक ज्यादा
और फिर पानी के साथ चुपचाप घोंटना
बिना किसी तरह खाने में नुक्स निकाले
सुबह देर से उठने पर
सिर्फ सूखी रोटी लेकर काम पर जाना
कोई नहीं पूछता सूखी रोटी का सबब

फर्क तो है गाँव और शहर में

----- पवन तिवारी 


  

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