शहर के दस वर्गफुट में गुजरती है जिन्दगी
बस दो बाल्टी पानी,नहाना खाना सब
गाँव में ५ कमरे बरामदा द्वार और बहुत कुछ
पड़ोसी से झगड़ा खूंटे की जगह के लिए
एक बाल्टी में बस दातून और मुँह की सफाई
फर्क तो है गाँव और शहर में
गाँव आर्थिक दुर्बलताओं के पहाड़ पर स्थित
ढँकी
पूरी की पूरी हर बेटी हर स्त्री
शहर अर्थ की अट्टालिकाओं से भरा गर्वित
हर युवती हर महिला खुली-खुली
फर्क तो है गाँव और शहर में
गाँव में बीमार के लिए पूरा गाँव अपना
अम्मा सिरहाने बैठकर माथे पर फेरती हाथ
रखकर सर पर सरसों का तेल करती मालिश
मुँह में डालती अपने हाथों से दवा
पिलाती पानी नम आँखों से
खाट के इर्द गिर्द होते हैं
अनगढ़,ठेठ,देसी पर संवेदना से भरे लोग
शहर में
बीमारी में एकाकी, विवश,
किसी के दरवाजे की घंटी बजाने की बेसब्र आस
बेड पर पड़े-पड़े कभी दीवाल
कभी खिडकियों को निहारना
कांपते हाथों से पानी लेना और दवा खाना
कभी-कभी ऊबकर खीझ से अचानक टीवी बंद कर देना
और मोबाइल पर किसी नम्बर में खोजना अपनापन
फर्क तो
है गाँव और शहर में
कभी गाँव में शौकिया चूल्हे पे
जताइए इच्छा बनाने की खाना
हँसती हैं घर की पड़ोस की औरतें
देती हैं ताना ‘मेहरा हैं क्या’
रसोइया बनेंगे बनेंगे ‘चुल्हपोतना’
उड़ाती हैं उपहास
शहर में चूल्हा जलाना काम से लौटकर देर रात
जल्दी –जल्दी में तवे पर
रोटी और हथेली दोनों का जल जाना
और हो जाना तरकारी में नमक ज्यादा
और फिर पानी के साथ चुपचाप घोंटना
बिना किसी तरह खाने में नुक्स निकाले
सुबह देर से उठने पर
सिर्फ सूखी रोटी लेकर काम पर जाना
कोई नहीं पूछता सूखी रोटी का सबब
फर्क तो है गाँव और शहर में
----- पवन तिवारी
poetpawan50@gmail.com
सम्पर्क - 7718080978
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