दिनकर जी की वर्षगाँठ २३ सितम्बर पर
विशेष लेख
आइये कुछ कविता की
पंक्तियाँ पढ़ते हैं----
रे रोक युधिष्ठर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर पर फिरा हमें गांडीव गदा,
लौटा दे अर्जुन भीम वीर - (हिमालय से)
जाने दे उनको स्वर्ग धीर पर फिरा हमें गांडीव गदा,
लौटा दे अर्जुन भीम वीर - (हिमालय से)
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास
गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो - (कुरुक्षेत्र से)
उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो - (कुरुक्षेत्र से)
मैत्री
की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान हस्तिनापुर आये, पांडव का संदेशा लाये। - (रश्मिरथी से)
दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान हस्तिनापुर आये, पांडव का संदेशा लाये। - (रश्मिरथी से)
दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
·
लेकिन संधि की कौन कहे,
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
कुछ याद आया इन पंक्तियों को सुनकर..... ऐसे तेजस्वी स्वर
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के सिवा भला किसका हो सकता है.
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने हिंदी साहित्य में न सिर्फ वीर रस के काव्य को एक नयी ऊंचाई दी, बल्कि अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का भी सृजन किया.
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने हिंदी साहित्य में न सिर्फ वीर रस के काव्य को एक नयी ऊंचाई दी, बल्कि अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का भी सृजन किया.
इसकी एक मिसाल 70 के दशक में
संपूर्ण क्रांति के दौर में मिलती है. दिल्ली के रामलीला मैदान में लोकनायक
जयप्रकाश नारायण ने हजारों लोगों के समक्ष दिनकर की पंक्ति -
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है,
का उद्घोष करके तत्कालीन सरकार के खिलाफ विद्रोह का शंखनाद किया था.ऐसे महान साहित्य मनीषी के लेखन और व्यक्तित्व के बारे में कुछ और बातें जानें जैसे -दिनकर जी के वास्तविक कवि जीवन का आरम्भ 1935 से हुआ, जब छायावाद के कुहरे को चीरती हुई 'रेणुका' प्रकाशित हुई तथा हिन्दी साहित्य की दुनिया एक बिल्कुल नई शैली, नये तेवर ,नई ऊर्जा, नई भाषा की नाद से भर उठा। उसके तीन वर्ष के अंतराल पर जब 'हुंकार' प्रकाशित हुई,तो देश के नौजवानों ने दिनकर जी और उनकी ओजमयी रचनाओं को कंठहार बना लिया।जनमानस के लिए दिनकर जी अब राष्ट्रीयता, विद्रोह और क्रांति के शिखर कवि थे।'कुरुक्षेत्र' दूसरे विश्वयुद्ध के समय की रचना है,किंतु उसकी मूल प्रेरणा युद्ध नहीं,देशभक्त युवाओं के हिंसा-अहिंसा के द्वंद से उपजी थी।
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है,
का उद्घोष करके तत्कालीन सरकार के खिलाफ विद्रोह का शंखनाद किया था.ऐसे महान साहित्य मनीषी के लेखन और व्यक्तित्व के बारे में कुछ और बातें जानें जैसे -दिनकर जी के वास्तविक कवि जीवन का आरम्भ 1935 से हुआ, जब छायावाद के कुहरे को चीरती हुई 'रेणुका' प्रकाशित हुई तथा हिन्दी साहित्य की दुनिया एक बिल्कुल नई शैली, नये तेवर ,नई ऊर्जा, नई भाषा की नाद से भर उठा। उसके तीन वर्ष के अंतराल पर जब 'हुंकार' प्रकाशित हुई,तो देश के नौजवानों ने दिनकर जी और उनकी ओजमयी रचनाओं को कंठहार बना लिया।जनमानस के लिए दिनकर जी अब राष्ट्रीयता, विद्रोह और क्रांति के शिखर कवि थे।'कुरुक्षेत्र' दूसरे विश्वयुद्ध के समय की रचना है,किंतु उसकी मूल प्रेरणा युद्ध नहीं,देशभक्त युवाओं के हिंसा-अहिंसा के द्वंद से उपजी थी।
दिनकर जी के प्रथम तीन काव्य-संग्रह प्रमुख हैं– 'रेणुका' (1935 ई.), 'हुंकार'
(1938 ई.) और 'रसवन्ती' (1939 ई.) उनके आरम्भिक आत्म मंथन के युग की रचनाएँ हैं। इनमें दिनकर का कवि
अपने व्यक्ति परक, सौन्दर्यान्वेषी मन और सामाजिक चेतना से
उत्तम बुद्धि के परस्पर संघर्ष का तटस्थ द्रष्टा नहीं, दोनों
के बीच से कोई राह निकालने की चेष्टा में संलग्न साधक के रूप में मिलता है।
उर्वशी के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी साहित्य जगत में एक ओर उसकी कटु आलोचना
और दूसरी ओर भूरि-भूरि प्रशंसा हुई। धीरे-धीरे स्थिति सामान्य हुई, इस काव्य-नाटक
को दिनकर की 'कवि-प्रतिभा का चमत्कार' माना
गया। कवि ने इस पौराणिक मिथक के माध्यम से देवता व मनुष्य, स्वर्ग व पृथ्वी, अप्सरा व लक्ष्मी और अध्यात्म के
संबंधों का अद्भुत विश्लेषण किया है।
दिनकरजी ने अनेक प्रबन्ध काव्यों की रचना भी की है,
जिनमें 'कुरुक्षेत्र' (1946 ई.), 'रश्मिरथी' (1952 ई.) तथा 'उर्वशी' (1961 ई.) प्रमुख हैं। 'कुरुक्षेत्र' में महाभारत के शान्ति पर्व के मूल
कथानक का ढाँचा लेकर दिनकर ने युद्ध और शान्ति के विशद, गम्भीर
और महत्त्वपूर्ण विषय पर अपने विचार भीष्म और युधिष्ठर के संलाप के रूप में
प्रस्तुत किये हैं। दिनकर के काव्य में विचार तत्व इस तरह उभरकर सामने पहले कभी
नहीं आया था। 'कुरुक्षेत्र' के बाद
उनके नवीनतम काव्य 'उर्वशी' में फिर
हमें विचार तत्व की प्रधानता मिलती है। साहसपूर्वक गांधीवादी अहिंसा की आलोचना
करने वाले 'कुरुक्षेत्र' का हिन्दी जगत
में यथेष्ट आदर हुआ। 'उर्वशी' जिसे कवि
ने स्वयं 'कामाध्याय' की उपाधि प्रदान
की है– ’दिनकर’ की कविता को एक नये
शिखर पर पहुँचा दिया है। भले ही सर्वोच्च शिखर न हो, दिनकर
के कृतित्त्व की गिरिश्रेणी का एक सर्वथा नवीन शिखर तो है ही। दिनकर ने अनेक
पुस्तकों का सम्पादन भी किया है, जिनमें 'अनुग्रह अभिनन्दन ग्रन्थ' विशेष रूप से उल्लेखनीय
हैं।दिनकर की शैली में प्रसादगुण यथेष्ट हैं, प्रवाह है, ओज है, अनुभूति की तीव्रता है, सच्ची संवेदना है। उनका जीवन-दर्शन उनका अपना जीवन-दर्शन है,
उनकी अपनी अनुभूति से अनुप्राणित, उनके अपने विवेक से अनुमोदित परिणामत: निरन्तर परिवर्तनशील है। दिनकर प्रगतिवादी,
जनवादी, मानववादी आदि रहे हैं और आज भी हैं, पर 'रसवन्ती' की भूमिका में यह कहने में उन्हें संकोच नहीं हुआ कि "प्रगति शब्द में जो नया अर्थ ठूँसा गया है, उसके फलस्वरूप हल और फावड़े कविता का सर्वोच्च विषय सिद्ध किये जा रहे हैं और
वातावरण ऐसा बनता जा रहा है कि जीवन की गहराइयों में उतरने वाले कवि सिर उठाकर
नहीं चल सकें।"
बाल-काव्य
विषयक उनकी दो पुस्तिकाएँ प्रकाशित हुई हैं —‘मिर्च का मजा’ और ‘सूरज का ब्याह’। ‘मिर्च का मजा’
में सात कविताएँ और ‘सूरज का ब्याह’ में नौ कविताएँ संकलित हैं। 'मिर्च का मजा' में एक मूर्ख क़ाबुलीवाले का वर्णन है, जो अपने जीवन
में पहली बार मिर्च देखता है। मिर्च को वह कोई फल समझ जाता है-
सोचा, क्या अच्छे दाने
हैं, खाने से बल होगा,
यह ज़रूर इस मौसम का कोई मीठा फल होगा।
यह ज़रूर इस मौसम का कोई मीठा फल होगा।
अलाउद्दीन ख़िलज़ी ने जब चित्तौड़ पर कब्ज़ा कर लिया, तब राणा अजय सिंह अपने
भतीजे हम्मीर और बेटों को लेकर अरावली पहाड़ पर कैलवारा के क़िले
में रहने लगे। राजा मुंज ने वहीं उनका अपमान किया था, जिसका बदला हम्मीर
ने चुकाया। उस समय हम्मीर की उम्र सिर्फ़ ग्यारह साल की थी। आगे चलकर हम्मीर बहुत
बड़ा योद्धा निकला और उसके हठ के बारे में यह कहावत चल पड़ी कि 'तिरिया तेल हमीर हठ चढ़ै न दूजी बार।’ इस रचना में
दिनकर जी का ओजस्वी-तेजस्वी स्वरूप झलका है। क्योंकि इस कविता
की विषय-सामग्री उनकी रुचि के अनुरूप थी। बालक हम्मीर कविता राष्ट्रीय गौरव से
परिपूर्ण रचना है। इस कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ पाठक के मन में गूँजती रहती
हैं-
धन है तन का मैल, पसीने का जैसे हो
पानी,
एक आन को ही जीते हैं इज्जत के अभिमानी।
एक आन को ही जीते हैं इज्जत के अभिमानी।
राष्ट्रकवि
रामधारी सिंह दिनकर का दालान बिहार के बेगूसराय ज़िले में स्थित है। जीर्ण-शीर्ण हो चुका है यह दालान जीर्णोद्धार के लिए अब
भी शासन-प्रशासन की राह देख रहा है। कुछेक वर्ष पहले इसके जीर्णोद्धार को लेकर
सुगबुगाहट शुरू हुई थी,
परंतु वह भी अब ठंडी पड़ चुकी है। ऐसे में यह 'धरोहर' कभी भी 'ज़मींदोज'
हो सकती है। कहा जाता है दिनकर जी ने पठन --पाठन को लेकर बड़े ही शौक़ से यह दालान बनवाया था। वे पटना अथवा दिल्ली से जब भी गांव आते थे, तो
इस जगह उनकी 'बैठकी' जमती थी। यहाँ पर
वे अपनी रचनाएँ बाल सखा, सगे - संबंधी परिजन-पुरजन व ग्रामीणों को सुनाते थे। फुर्सत में लिखने-पठने का कार्य
भी करते थे। वर्ष 2009-10
में मुख्यमंत्री विकास योजना से इसके जीर्णोद्धार के लिए पांच लाख
रुपये आये, परंतु तकनीकी कारणों से वह वापस चले गए। युवा
समीक्षक व राष्ट्रकवि दिनकर स्मृति विकास समिति, सिमरिया के
सचिव मुचकुंद मोनू कहते हैं, उक्त दालान की उपेक्षा दुखी
करता है। कहीं से भी तो पहल हो। अब तो यह नष्ट होने के कगार पर पहुंच चुका है।
जबकि, जनकवि दीनानाथ सुमित्र का कहना है कि दिनकर जी का
दालान राष्ट्र का दालान है। यह हिंदी का दालान है। उनके परिजनों को यह समाज-सरकार को सौंप देना चाहिए।
उधर दिनकर जी के पुत्र केदार सिंह कहते हैं कि 'पिताजी ने हमारे चचेरे भाई आदित्य नारायण सिंह के विवाह के अवसर पर इसे
बनाया था। इसके जीर्णोद्धार को लेकर पांच लाख रुपये आये थे, यह
हमारी नोटिस में नहीं है। यह अब मेरे भतीजे अरविंद बाबू की देखरेख में है।'
4. चांद का कुर्ता
हठ कर बैठा
चाँद एक दिन, माता से यह बोला,‘‘सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।
सनसन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,
ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’
बच्चे की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!
कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ।
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।
घटता-बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है।
अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज़ लिवाएँ,
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?’’
लालमिर्च
एक काबुली वाले की कहते हैं
लोग कहानी,
लाल मिर्च को देख गया भर उसके मुँह में पानी।
सोचा, क्या अच्छे दाने हैं, खाने से बल होगा,
यह जरूर इस मौसम का कोई मीठा फल होगा।
एक चवन्नी फेंक और झोली अपनी फैलाकर,
कुंजड़िन से बोला बेचारा ज्यों-त्यों कुछ समझाकर!
‘‘लाल-लाल पतली छीमी हो चीज अगर खाने की,
तो हमको दो तोल छीमियाँ फकत चार आने की।’’
‘‘हाँ, यह तो सब खाते हैं’’-कुँजड़िन बेचारी बोली,
और सेर भर लाल मिर्च से भर दी उसकी झोली!
मगन हुआ काबुली, फली का सौदा सस्ता पाके,
लगा चबाने मिर्च बैठकर नदी-किनारे जाके!
मगर, मिर्च ने तुरत जीभ पर अपना जोर दिखाया,
मुँह सारा जल उठा और आँखों में पानी आया।
पर, काबुल का मर्द लाल छीमी से क्यों मुँह मोड़े?
खर्च हुआ जिस पर उसको क्यों बिना सधाए छोड़े?
आँख पोंछते, दाँत पीसते, रोते औ रिसियाते,
वह खाता ही रहा मिर्च की छीमी को सिसियाते!
इतने में आ गया उधर से कोई एक सिपाही,
बोला, ‘‘बेवकूफ! क्या खाकर यों कर रहा तबाही?’’
कहा काबुली ने-‘‘मैं हूँ आदमी न ऐसा-वैसा!
जा तू अपनी राह सिपाही, मैं खाता हूँ पैसा।’’
लाल मिर्च को देख गया भर उसके मुँह में पानी।
सोचा, क्या अच्छे दाने हैं, खाने से बल होगा,
यह जरूर इस मौसम का कोई मीठा फल होगा।
एक चवन्नी फेंक और झोली अपनी फैलाकर,
कुंजड़िन से बोला बेचारा ज्यों-त्यों कुछ समझाकर!
‘‘लाल-लाल पतली छीमी हो चीज अगर खाने की,
तो हमको दो तोल छीमियाँ फकत चार आने की।’’
‘‘हाँ, यह तो सब खाते हैं’’-कुँजड़िन बेचारी बोली,
और सेर भर लाल मिर्च से भर दी उसकी झोली!
मगन हुआ काबुली, फली का सौदा सस्ता पाके,
लगा चबाने मिर्च बैठकर नदी-किनारे जाके!
मगर, मिर्च ने तुरत जीभ पर अपना जोर दिखाया,
मुँह सारा जल उठा और आँखों में पानी आया।
पर, काबुल का मर्द लाल छीमी से क्यों मुँह मोड़े?
खर्च हुआ जिस पर उसको क्यों बिना सधाए छोड़े?
आँख पोंछते, दाँत पीसते, रोते औ रिसियाते,
वह खाता ही रहा मिर्च की छीमी को सिसियाते!
इतने में आ गया उधर से कोई एक सिपाही,
बोला, ‘‘बेवकूफ! क्या खाकर यों कर रहा तबाही?’’
कहा काबुली ने-‘‘मैं हूँ आदमी न ऐसा-वैसा!
जा तू अपनी राह सिपाही, मैं खाता हूँ पैसा।’’
शक्ति और क्षमा
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबलसबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ, कब हारा?
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।
तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।
उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।
सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।
सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।
समर शेष है कि आख़िरी दो पंक्तियाँ
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध.
·
राष्ट्रभाषा की समस्या पर राष्ट्रकवि दिनकर जी का हृदय बहुत चिंतित था।उन्होंने इस विषय पर दो पुस्तकें लिखी हैं। ‘राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता’ तथा ‘राष्ट्रभाषा आंदोलन और गाँधीजी।’ दिनकरजी का कथन है कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा
इसलिए माना गया कि केवल वही भारत की सांस्कृतिक एकता व राजनीतिक अखंडता को
अक्षुण्ण बनाए रखने में सक्षम थी. संस्कृति के चार अध्याय’ एक ऐसा विशद, गंभीर और खोजपूर्ण ग्रंथ है, जो दिनकरजी को महान दार्शनिक गद्यकार के रूप में प्रतिष्ठित करता है। अध्यात्म, प्रेम, धर्म, अहिंसा, दया, सहअस्तित्व आदि भारतीय संस्कृति के विशिष्ट गुण हैं। मित्रों,पाठकों चलते - चलते दिनकर जी के
जन्म और उस पावन धरा के बारे में थोड़ी बातें कर लेते हैं- जैसा कि साहित्य प्रेमियों को पता है, फिर भी
बताते चलते हैं हमारे नई पीढ़ी के पाठकों को,कि दिनकर जी बिहार के बेगूसराय जनपद
के सिमरिया घाट २३सितम्बर१९०८ को पैदा हुए थे.संयोग देखिये कि आजादी के बाद जब हिन्दी भारत की राजभाषा बनी तो वो माह
सितम्बर ही था.पूरा सितम्बर माह
हिन्दी के आयोजनों कवि सम्मेलनों और
उत्सवों से भरा रहता है.हिन्दी के सच्चे
सपूत और नायक दिनकर जी के पिता बाबू रविसिंह जी किसान और माता मनरूप देवी
गृहणी थी.
दुर्भाग्यवश ..दिनकर जी जब दो वर्ष के थे तभी पिता का स्वर्गवास हो.ऐसे में शिक्षा –
दीक्षा, भरण –पोषण आसान नही था. ऐसे में दिनकर
जी के परिवार की आर्थिक स्थिति इतनी ख़राब हो
गयी कि जब वे मोकामा हाई स्कूल में पढ़ते थे, तब इनके पास पहनने के लिए जूते भी नहीं थे. छात्रावास की फीस भरने के लिए पैसे
न होने के कारण वहां रुक नहीं सकते थे. इसलिए उनका स्कूल में पूरे पीरियड अटेंड
करना संभव नहीं था. उनको लंच ब्रेक के बाद नाव से वापस गाँव जाना पड़ता था. दिनकर जी ने स्नातक इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान में
पटना विश्वविद्यालय से किया. दिनकर जी ने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन था. वे अल्लामा
इकबाल और रवींद्रनाथ टैगोर को अपना प्रेरणा स्रोत मानते थे. 1934 से 1947 तक बिहार सरकार की सेवा में
सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक रहे.
कुछ अन्य जानकारियां संक्षिप्त में
·
1950
से 1952 तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी
के विभागाध्यक्ष.
·
1952
से 1964 राज्यसभा का सदस्य.
·
1964-1965
कुलपति भागलपुर विश्वविद्यालय.
·
1965
से 1971 तक भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार.
.रश्मिरथी.
.परशुराम की प्रतीक्षा.
·
उर्वशी.
·
संस्कृति के चार अध्याय.
·
कुरुक्षेत्र.
·
रेणुका.
·
हुंकार.
·
हाहाकार.
·
चक्रव्यूह.
·
आत्मजयी.
- वाजश्रवा
के बहाने.
·
पद्म विभूषण 1959.
·
‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार 1959.
·
भागलपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर
हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने,
ने उन्हें डॉक्ट्रेट की मानद
उपाधि से सम्मानित किया.
·
1968
में राजस्थान विद्यापीठ ने उन्हें
साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित.
·
उर्वशी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार 1972.
- ‘कुरुक्षेत्र’ को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वाँ स्थान.
- प्रसिद्ध
इतिहासकार डॉ काशी प्रसाद जायसवाल इनको पुत्र की तरह प्यार करते थे. उन्होंने
इनके कवि बनने के शुरुवाती दौर में हर तरीके से मदद की. परन्तु उनका भी 1937 में निधन हो गया. जिसका इन्हें बहुत गहरा
धक्का लगा. इन्होने संवेदना व्यक्त की थी कि, “जायसवाल जी जैसा इस दुनिया में कोई नहीं
था.”
- रेणुका
(1935) और
हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अग्रेज़ प्रशासकों को
समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और
दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात
पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं. चार वर्ष में बाईस बार उनका
तबादला किया गया.
- मशहूर
कवि प्रेम जनमेजय के अनुसार दिनकर जी ने गुलाम भारत और आजाद भारत दोनों में
अपनी कविताओं के जरिये क्रांतिकारी विचारों को विस्तार दिया. जनमेजय ने कहा, ‘‘आजादी के समय और चीन के हमले के समय दिनकर
ने अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों के बीच राष्ट्रीय चेतना को बढ़ाया.’’
एक बार हरिवंश राय बच्चन जी ने कहा कि, “दिनकरजी को एक नहीं, बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिन्दी-सेवा के लिये
अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने चाहिये.” 1999 में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में
डाक टिकट जारी किया.
२४ अप्रैल १९७४ को चेन्नई में
देहावसान.
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