सुलझे
लोगों में बड़ी उलझन है
खुद
से ही खुद की होती अनबन है
ढूंढने
से नहीं मिलते अपने
जिन्दगी
हो गयी सघन वन है
सारे
किस्सों की मौत होने लगी
गाँव
की ख़ुशबू कहीं सोने लगी
दादी
नानी से छिटकते
जाते
उनकी
मासूमियत है खोने लगी
जल्दबाजी
का सबमें जोर हुआ
आधुनिकता
का बहुत शोर हुआ
संस्कृति
को समझते पिछड़ापन
लोक
धुन सुन के बहुत बोर हुआ
अपनी
भाषा भी फीकी लगती है
आशा अंग्रेजियत
से जगती है
धोती कुर्ते
में गँवारू समझें
अर्धनग्नों के
पीछे भागती है
पवन
तिवारी
१२/०३/२०२१
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