यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

रविवार, 26 नवंबर 2017

अत्तरकारी- पत्तरकारी [कहानी]











दीपावली बीत कर करीब 1 महीने गुजर चुके थे.तब से एक बार भी घर पर फोन नहीं
किया था.या यूं कहूँ कि साहस ही नहीं हुआ. दीपावली में अम्मा से बोला था,एक हप्ते के
अन्दर मनीआर्डर भेजूँगा.पर सम्पादक कम बनिए मालिक ने बोनस को कौन कहे बकाये
वेतन से भी एक रूपये ढीला न किया. बड़ी आस थी कि चलो साल भर का त्यौहार हैं वेतन
दे देगा ही. पर आस करना मेरे लिए मूर्खता सिद्ध हुई.ठन-ठन गोपाल ही रहा.उजाले के इस
 त्यौहार में भी मेरे चेहरे पर अन्धेरा ही रहा.जब भी वेतन की बात करता... विज्ञापन का
पैसा आने वाला है.अगले हप्ते देता हूँ, कहकर टाल देता.सोंचता, एक बार पैसा मिल
जाय,मनीआर्डर कर दूँ. फिर शान से फोन करूँ कि अम्मा 1000 का मनीआर्डर कर दिया
हूँ.पर किस्मत फूटी जो पत्रकार बनने का शौक चर्राया. उस पर तुर्रा गणेश शंकर
विद्यार्थी,बाबू विष्णुराव पराड़कर,राहुल बारपुते का आदर्श. वेतन के नाम पर कहने को
 1500 महीना, पर ४ महीने से सिर्फ रेलवे पास का पैसा ही बड़ी मुश्किल से नसीब हुआ
था.ऐसे में ना तो फिर कोई पत्र लिखा और ना ही फोन.वही दीपावली के दिन घर पर फोन
किया था, तब से वेतन की आस लिए ज़िंदा था. बेरोजगारी भी बहुत थी.उम्र भी कम थी.जो
भी शक्ल देखता था,कहता - तुम और पत्रकार.... तुमको तो दाढ़ी - मूछ भी नहीं आयी
है.शक्ल से तो बच्चे दिखते हो....आई कार्ड दिखाओ...कितना पढ़े हो...उल्टा मेरा ही इंटरव्यू
 शुरू हो जाता. हर दूसरी जगह मुझसे यही सवाल होते.मैं भी जवाब दे दे कर थक गया था.
इसलिए जब भी किसी बड़े होटल में या बड़े समारोह में जाता या अखबार की ओर से भेजा
जाता.जगह पर पहुँचने से कुछ दूर पहले ही परिचय पत्र झोले से निकालकर गले में टांग
लेता और पहले से ही एक कागज पर मुझसे अक्सर पूछे जाने वाले सवालों का जवाब
लिखकर कुर्ते की बाईं जेब में रख लेता. एक तो मेरी उम्र और  छोटा कद,उस पर
भी शरीर के नाम पर दधीचि की हड्डियों को कौन बड़े अखबार में रखता,शिक्षा भी आधी
अधूरी... उस पर भी दस सवाल... पढ़ाई क्यों छोड़ दी.... अच्छा,पढ़ाई भी कर रहे हो... तो
 पहले पढ़ाई पूरी कर लो, फिर पत्रकारिता में आना... कई बड़े पत्रकारों ने तो सीधे
कहा...आत्महत्या [पत्रकारिता] क्यों करना चाहते हो ? ऐसे में ऐसे अनेक उपदेशक  कथित
बड़े पत्रकारों से बचने की कोशिश भी करता, फिर भी कहीं न कहीं मुझे पकड़ के ज्ञान
पिला ही देते. ऐसा ही एक बुरे वाले दिन को  मेरे साथ हुआ, एक ज्ञानी पत्रकार जो पत्रकार
कोटे से २-२ मकान ले रखे हैं.एक में रहते हैं एक किराए पर दिए हैं.मुझे एक कटिंग चाय
पिलाकर जबरदस्ती एक घंटे पत्रकारिता की बुराई पर प्रवचन दिए. किसी तरह से उनसे
जान बचाकर प्रेस क्लब के अहाते से बाहर हुआ, तो जान में जान आयी. दिमाग का दही हो
चुका था. ऐसे में एक मित्र के घर की राह पकड़ा.मित्र के घर गया तो पूछने लगे, घर की
हाल - चाल क्या है ? फोन-वोन किए थे कि नहीं, मैंने कहा- दीपावली में किया था, मन
बदला, मित्र को बोला, चलो अभी STD लगाता हूं. मैं और मेरे मित्र STD बूथ पर गए, फोन
के लिए कतार लगी थी.आधे घंटे की प्रतीक्षा के बाद आखिरकार हमारा नम्बर आ ही गया.
पहले दो बार तो नम्बर मिलाने पर चोंगे से आवाज़ आयी.इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं
कृपया थोड़ी देर बाद प्रयास करें. तीसरी बार डायल करने पर ५-६ बार टू- टू की बीप जाने
के बाद आख़िरकार घंटी बज ही गई. इसके साथ ही मेरी धड़कने भी बढ़ गईं. तभी बाहर
अपनी बारी आने के इंतज़ार में किसी ने जोर से बूथ का दरवाज़ा पीटते हुए कहा- अरे नहीं
 लग रहा है तो बाहर निकल, दूसरों को लगाने दे. इधर मुझे गुस्सा आ रहा था कि घंटी बज
 रही है और सामने वाला फोन नहीं उठा रहा है. कहीं फोन कट न जाय, धड़कन की गति
और तेज हो गयी. दुर्भाग्य से बूथ के अन्दर का पंखा खराब था, सो गर्मी के कारण पसीने
 से तर हो गया था. खैर फोन कटने से पहले उधर से हलो की आवाज़ आ गयी थी. जिससे
जान में जान गा गयी थी.फोन पड़ोसी के घर मिलाया था.पूरे गाँव में दो ही लोगों के घर
फोन था. जो गाँव में रुतबे का प्रतीक था.फोन उठाने वाली रिश्ते में चाची लगती थी. सो
जल्दी से प्रणाम कर बोला- मैं मुंबई से पंकज बोल रहा हूं, हमारी अम्मा या फिर बाबूजी को
बुला दीजिए. 10 मिनट बाद फोन करूंगा. उधर से आवाज़ आई ठीक और मैनें चोंगा रखा
दिया, पर इतने में साढ़े तीन रूपये का बिल गिर ही गया.10 मिनट बाद फोन किया तो मां
की आवाज आई, बाबू पंकज... मैं बोला, हाँ अम्मा ! पालागी, कैसे हो बच्चा, तुम्हारी सर्दी
 ठीक हो गई, मैं बोला- ठीक हो गई. मैं अच्छा हूं, बाबू जी कहां है ? अम्मा बोली- बच्चा हो वो
तो धान के खेत में हैं. मैं भी खेत में ही थी, खेत से जैसे ही घर आई, तभी बुलाने राजू आये
कि तुम्हारा मुंबई से फोन है. मैं भागी - भागी आई. बच्चा तुम तो सब जानते हो, थोड़ा घर
का ख्याल रखो, कुछ मिला कि नहीं. ई पत्तरकारी करने से का फायदा. जब कुछ ना मिले.
4 महीने से एक पैसा नहीं भेजे. तुम्हारे सिवा कोईदूसरा सहारा नहीं है. बच्चा, तुम्हारे
बाबूजी परेशान हैं. कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं. खाद की उधारी पिछले सीजन की बाकी है.
बिजली भी मुश्किल से एक दो घंटे के लिए आती है.खेत तक पानी पहुंचता है कि तब तक
बिजली कट जाती है. इंजन से सिंचाई बहुत मंहगी है. डीजल भी बलैक के बिना मुश्किले है.
अइसे तो खेती गिरहस्ती बिलाय जाई बेटवा. कैसा मालिक है ? कुछ करो बच्चा, मैं बोला-
हां, मैं कुछ करता हूं, जैसे मिलता है.तभी अम्मा बोल पड़ी, मिलता नहीं, कुछ करो बच्चा.
 नहीं तो खेती-बारी बेचनी पड़ जाएगी. मेरी बात का बुरा मत मानना बच्चा. अपने सेठ को
 बोलो कि घर पइसा भेजना बहुत जरूरी है. तुम बोले ही नहीं होगे. मैनें कहा- बोला था, कि
बहुत जरूरी है घर पइसा भेजना है, पर कुछ बोला नहीं. इतना सुनकर अम्मा गुस्से में
बोली – ई कइसा मालिक है बेईमान, काम करा के पइसा नाहीं देत. देवीमाई  उसकी
कमाई में आग लगे. मेरे बेटे की कमाई हजम करेगा कीड़े पड़ेंगे बेईमान को. ई अत्तरकारी-
पत्तरकारी के आलावा कौनो काम नाही मिलत.गरीब की आह खाली नाही जात. बहुत
नरक भोगेगा. मैंने कहा जाने दो सरापो मत. उधर मेरा ध्यान बिल पर गया तो देखा 60
रूपये तक पहुँच गया था.अम्मा फिर बोली सरापूं नहीं तो क्या करूँ तुम्ही बताओ ? अब
तक कितने साल से बम्बई में हो, कभी एक पैसा नहीं मांगी. पर अब बच्चा पानी सिर से
ऊपर हो रहा है. तो चुप नहीं रहा जाता.तुम्हारे बाप दिनों-दिन बूढ़े होते जा रहे हैं, अब वो
पहले वाली ताकत नहीं रही. घुटने में अक्सर दर्द रहता है.मुझे भी आज कल चक्कर आता है
एक दिन सरकरिया अस्पताल पर गई थी,डाक्टर बोला- चश्मा बनवाना पड़ेगा. आँख भी
जबाब दे रही है.ज्यादा क्या बोलूं, बच्चा तुम खुद ही समझदार हो. बगल से आवाज आ रही
थी, भइया, वहां कैसे हैं ? किस परिस्थिति में है ! तुमको मालूम है ! अपना बोझ भइया के
ऊपर.... पइसा के अलावा कुछ और नहीं.. लाओ अम्मा मुझे भी भइया से बात करनी है. मैं
कभी बात नहीं कर पाती. सब लोग भइया से बात करते हैं. फोन में सब आवाज आ रही थी
 वह मेरी प्यारी बहन अनामिका की आवाज थी. तभी अम्मा बोली, ‘ये बच्चा पंकज’ जरा
अनामिका से बात करो, कहती है- सब लोग बात करते हैं, परंतु मैं भइया से कभी बात नहीं
कर पाती.मैंने कहा - फोन दीदी को दो अम्मा, फोन पर एक स्नेह भरी आवाज़ उभरी, भइया
 प्रणाम.मैंने आशीर्वाद दिया-  खुश रहो बच्चा. अनामिका कैसी हो बच्चा ? अच्छी हूं भैया.
आप कैसे हो ? अम्मा की बात पर ध्यान मत देना. अपना ख्याल रखना. कैसे हो ? मैंने
कहा - अच्छा हूं. तुम बोलो, क्या बोलूं, मैं भी अच्छी हूं. आप बताओ भइया, मैंने फिर कहा - मैं
बिल्कुल ठीक हूं. तुम क्या कहना चाहती हो बच्चा ? बोलो, संकोचो मत, मैं अच्छी हूं भइया,
कहते हुए उसका गला रूँध गया.अनामिका ने दबे स्वर में कहा- कोठरी का दरवाजा टूट
गया है. फिर वह सकुचाते हुए बोली- मैं बिना दरवाजे के अकेले  कोठरी में सोती हूं. डर
लगता है. सब कुछ वही ले दे के एक कोठारी ही है.सारा सामान यहां तक कि आटा-दाल भी
 उसी में रहता है. हो सके तो दरवाजे के लिए कुछ करना, मैं यह सब नहीं कहती भइया...
लेकिन … कहते–कहते रो सी पड़ी और फोन रख दी.मेरा भी गला रुंध आया. आँख भर
 आई. हम भाई-बहन एक - दूसरे को देख तो नहीं सकते थे,परन्तु दर्द महसूस कर सकते थे.
 और महसूस कर रहे थे. मैं उसकी परेशानी, भावना, समझ रहा था . उसका स्नेह, उसकी
पीड़ा, उसका अनबोला डर, अनकहा संशय,विवशता से भरी अतुल्य आत्मीयता इन सबने
मुझे एक क्षण के लिए अपरिमित पीड़ा से मुर्क्षित कर दिया और पुनःअगले क्षण मुझे
झकझोर कर रख दिया. ऐसी विवशता ... किकर्तव्य विमूढ़ सा हो गया.एक भाई ही एक
बहन की भावना को समझ सकता है.  फोन कट जाने के बाद भी थोड़ी देर तक मेरी आँखें
बरसती रही. तभी किसी ने जोर से आवाज़ दी,साथ ही कांच के लगे पारदर्शी दरवाजे को
कई बार तेजी से थपथपाया... ये भाई बाहर निकल. बाहर आके जितना रोना है रो. हमें भी
 फोन करना है.मैं उस अपरिचित की बातों का बिना कोई उत्तर दिए बिना बूथ से बाहर आ
 गया.कुछ घंटों के लिए अम्मा की बातें भूल गया.सिर्फ बहन की आवाजों की गूंज मेरे
कानों में दौड़ रही थी. मित्र मेरी हालत देख कर थोड़ा घबरा गया, थोड़ा सकुचाते हुए बोला-
क्या हुआ ? सब ठीक तो है. मैं उसके प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं दे सका.उसने फिर पूछा- घर
में सब कुशल तो है ? इस बार मैनें हाँ में सर हिलाया. रात को थोड़ी राहत मिली.तो सोंचा
क्या करूँ ? सम्पादक कम मालिक जी से से कह-कह के परेशान हो गया था,परन्तु फिर
हिम्मत किया कि कल जरूर पैसे मांगूंगा चाहे झगड़ा ही होजाए. फिर सोंचा कल का कल
देखेंगे.फिलहाल किसी तरह आज कटे.आज छुट्टी थी, देर तक नीद नहीं आई. बार-बार घड़ी
देखता ...रात के 2 बज चुके थे.सोंचा कब सुबह हो और सम्पादक जी से बात हो. मेरी चार
महीने का पगार दें अथवा हिसाब करके नौकरी से निकाल दें.

पवन तिवारी

सम्पर्क – 7718080978

poetpawan50@gmail.com

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