ऐसा कुछ हाल हुआ है मेरा
खुद से खुद रूठ भी नहीं
सकता
अब भी आशा है किन्तु ना
जानूँ
उर ये किसका है रास्ता तकता
पहले सोचूँ कि कैसे रोते सब
नहीं रुकता जो आँसू अब बहता
वैसे उठाता हुआ सा दिखता हूँ
किन्तु अंदर से सारा कुछ
ढहता
युद्ध लम्बा था कई वर्ष चला
लड़ाई खुद से थी किससे कहता
अति सर्वत्र वर्ज्यते कहते
सीमा के पार भी कितना सहता
मुझको प्रतिरोध ने बचा रखा
सारा दुःख,त्रास,छल को झेल गया
मौत भी प्राण बचाकर भागी
इस तरह जान पे मैं खेल गया
पवन तिवारी
२०/१०/२०२२
क्या बात है प्रिय पवन जी।एक मर्मांतक अभिव्यक्ति जो मन को छू गई।खुद से लड़ना ही जीवन में सबसे कठिन और पीडादायक है।
जवाब देंहटाएंरेणु जी अभी मैंने देखा आप ने मेरी अनेक रचनाओं को मनोयोग से पढकर अपनी सार्थक और प्रोत्साहित करने वाली टिप्पणी की है. उसके लिए अनेक आभार. आशा करता हूँ आप का पाठकीय स्नेह मिलता रहेगा.शुभकामनाओं सहित
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