तेरे द्वारे पे हम भी आये थे
तेरी खुशियों में जमके गाये
थे
वक़्त ने मुझसे मुख था क्या
मोड़ा
वर्षों खुद को अकेले पाए थे
गिरते उठते थे और चलते थे
अच्छे दिन याद करके खलते थे
ऐसा लगता था हजारों अपने
सोचते और हाथ मलते थे
सारी उम्मीद रोके जाती रही
सफेदी तेज गति से आती रही
मुझको सब भूलने ही वाले थे
तभी धुन मेरी कोई गाती रही
चर्चा गीतों की मेरे होने
लगी
आगे-पीछे की पीढ़ी खोने लगी
पता चला कि उस पवन की है
एक बुढ़िया थी सुन के रोने
लगी
माँ का बेटा जो लौट आया था
सबके अधरों पे वो ही छाया
था
साधना सिद्ध हो गयी उसकी
सारे जग का दुलार पाया था
पवन तिवारी
११/१०/२०२२
बहुत मार्मिक शब्द चित्र के प्रिय पवन जी। जिसमें एक व्यथा यात्रा है।गीत वहीं उमड़ते हैं जहाँ घनीभूत वेदना रहती है।यूँ ही लिखते रहिये।यूँ गीतों में व्यक्तिगत भावनाएं व्यक्त की जाती हैं पर उन्हें बाज़ार और विस्तार मिलता है तो ये जन-जन के अपने गीत बन जाते हैं।सस्नेह शुभकामनाएं।कामना है कि आपके गीतो को वैसा ही विस्तार मिले जैसा इनमें इंगित किया गया है।
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