उदासियों ने घेर रक्खा है
हमने भी खूब दुःख को चक्खा
है
कोई दिखता नहीं
है दूर तलक
दर्द अपने भी सर
पे अक्खा है
रात कुछ नींद काट देती है
दिन की सौगात जान
लेती है
शाम सुई सी चुभोती जैसे
ज़िन्दगी बारिशों की खेती है
आज-कल रोज खुद से घिरता हूँ
खुद से ही मारा-मारा फिरता हूँ
इतना उलझा हूँ खुद में क्या
ही कहूँ
धीरे चलता हूँ फिर भी गिरता
हूँ
यही समय है संभलना
इससे
सब पराये हैं तो
कहें किससे
धीर रखना है वक़्त फिरने तक
सुनेंगे सब ही कहेंगे जिससे
पवन तिवारी
०८/१०/२०२२
अपनी व्यथा खुद से कहती हुई मार्मिक अभिव्यक्ति प्रिय पवन जी।👌👌👌
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