यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

हिंदी के जयचंद और विभीषण


दोस्तों आजादी के 70 वर्ष बाद भी भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है, लेकिन आम तौर पर आम आदमी हिंदी को ही भारत की राष्ट्रभाषा समझता है । जबकि यह राजभाषा है। दोनों में एक बड़ा अंतर है। जिसे समझना आवश्यक है। भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है। इन सभी भाषाओं को राष्ट्रभाषा  मान सकते हैं ,अर्थात संविधान के द्वारा मान्यता प्राप्त  सभी भाषाएँ  राष्ट्रभाषा हैं। ऐसा है तो हमारी हिंदी भाषा का क्या महत्व ? इस पर विचार करने की आवश्यकता है ? हिंदी हमारे संघ की राजभाषा है ।   भारत की  राजभाषा के रूप में मान्यता हिन्दी को 1949 में 14 सितंबर को भारतीय संसद द्वारा दी गई. तब से हर वर्ष 14 सितंबर को  राजभाषा पखवाडा, सप्ताह या हिन्दी दिवस, जो भी कहें, मनाया जाता है। राजभाषा वह है जिसे संघ अथवा कोई राज्य अथवा सरकार विधि द्वारा अपने सरकारी कामकाज में प्रयोग के लिए स्वीकार कर ले । यह किसी राज्य में 1 से अधिक भी हो सकती है। संविधान की अष्टम सूची में शामिल सभी 22 भारतीय भाषाएं राष्ट्रभाषायें कहलाती हैं। ये भाषाएँ विभिन्न प्रयोजनों के लिए उपयोग की जाती हैं।यह तो हो गई राजभाषा और राष्ट्रभाषा की बात। अब विषय उठता है कि,भारत की कोई राष्ट्रभाषा क्यों नहीं है ? क्या कोई राष्ट्र बिना राष्ट्रभाषा के हो सकता है ? आखिर एक देश में 22 राष्ट्र भाषाएं कैसे हो सकती हैं ?और यदि हैं तो क्यों? इसके कुछ मूल कारण हैं। जैसे भारत मात्र एक देश नहीं बल्कि एक उपमहाद्वीप है! आजादी से पहले भारत में कई रियासतें और रजवाड़े थे। उनकी अपनी भाषाएं भी थीं। भारत के राज्यों का विभाजन भाषा के आधार पर ही हुआ है। इसलिए भाषा को लेकर कहीं आपसी विवाद में देश बंटवारे या हिंसा का शिकार न हो जाए। मोटा - मोटी उन सभी भाषाओं को राष्ट्रभाषा मान लिया गया। जिनमें प्रचुर साहित्य था, जिनकी अपनी लिपि थी या जिन भाषाओँ के अपने व्याकरण या बोलने वाले, लिखने वाले अधिसंख्य थे, साथ ही कुछ और भी कारक या मानक थे, क्योंकि भाषाई कलह ने ही रशिया के टुकड़े किये और बांग्लादेश का उदभव भी भाषाई लड़ाई का ही परिणाम है।लेकिन सबसे अधिक चलन में हिंदी ही थी। जो कई राज्यों में समान रूप से लिखी और बोली जाती थी और भी कई भाषाएं थीं [हैं] जिनकी लिपि देवनागरी ही थी [है] जिनमें संस्कृत, पालि,  मराठी, कोंकणी, सिन्धी, कश्मीरी, डोगरी, नेपाली,  मैथिली, संथाली जैसी भाषाएं शामिल हैं। पर क्या ऐसे में हम विदेशों में  भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में 22 भाषाओं को प्रस्तुत कर सकते हैं ? मेरा जवाब है नहीं, या कोई विदेशी हमसे पूछे कि आप की राष्ट्रभाषा क्या है ? तो हमारे पास कोई सीधा जवाब न होकर यह कहना पड़ेगा कि  हमारी 22 राष्ट्रभाषाएँ हैं । सामने वाला चकरा जाएगा और हमें उपहास की दृष्टि से देखेगा । कोई एक भाषा ऐसी हो, जिसे हम सभी सवा सौ करोड़ भारतीय गर्व से कह सकें कि हां यह हमारी राष्ट्रभाषा है। बाकी भाषाओं को हम मातृभाषा कह सकते हैं। अन्य भारतीय भाषाओँ की अपेक्षा आज हिंदी का फलक वैश्विक है । उसकी क्षमता किसी भी दूसरी वैश्विक भाषा से अधिक है। राजभाषा होते हुए भी भारत की संपर्क भाषा तो हिंदी ही है।अधिसंख्य लोग जिनकी भाषा हिंदी नहीं है वे दूसरे भाषा - भाषियों से हिंदी में ही बात करते हैं। महाराष्ट्र से लेकर कश्मीर और राजस्थान से लेकर हिमाचल प्रदेश और हैदराबाद से लेकर पंजाब तक सब जगह लोग हिंदी बोलते और समझते हैं।असम में भी काफी संख्या में बिहार के लोग रहते हैं और वहां भी हिंदी की अच्छी संख्या है। वहां से कई हिन्दी अखबार भी निकलते हैं। हां , दक्षिण भारत के कुछ राज्य हैं जहां हिन्दी अभी थोड़ी दुर्बल है, पर उतनी भी नहीं है कि लोग एकदम न समझें।ऐसे में हिंदी को निजी पूर्वाग्रहों और अल्पकालिक स्वार्थों से ऊपर उठकर सामूहिक प्रयास करके, एकता बनाकर, राष्ट्रहित में राष्ट्रभाषा के रूप में संवैधानिक और मानसिक तौर पर मान्यता दिलवानी  चाहिए. ऐसा मेरा मत है।क्योंकि जब हम देश से बाहर जाते हैं तो सबसे पहले हम हमारी राष्ट्र भाषा में संवाद करते हैं लेकिन जिसकी राष्ट्रभाषा ही नहीं है वह किस भाषा में बात करेंगे। जो भी  शिक्षित भारतीय जब भी बाहर जाते हैं अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं। कई विदेशी उनसे पूछते हैं आप की भी राष्ट्र भाषा अंग्रेजी है क्या ? तो भारतीय अक्सर सकपका जाते हैं या शर्मिंदा हो जाते हैं, और फिर दबी जुबान में कहते हैं, नहीं, हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी  है। जबकि वह वहां भी झूठ बोल रहे होते हैं । क्योंकि वास्तव में भारत की कोई एक राष्ट्रभाषा है ही नहीं। भारत की 22 राष्ट्रभाषायें हैं और अगर वह किसी को बताएंगे कि उनकी 22 राष्ट्रभाषायें है तो लोग उन पर हंसेंगे और उस 22 राष्ट्रभाषा होने के कारण बताने में काफी समय चला जाएगा ।
आखिर हिंदी को दुनियाभर में महत्त्व मिल रहा है भारतीय फिल्मों के कारण ,विशाल भारतीय बाजार के कारण और विदेशों में बसे करोड़ों हिंदी भाषियों और भारतीयों कारण । दुनिया के कई  देश है जहां दूसरी भाषा के तौर पर हिंदी प्रयोग की जाती है। जिनमें मॉरिशस,फिजी,गुयाना,सूरीनाम प्रमुख हैं। हमारे पड़ोसी नेपाल में भी काफी लोग हिंदी का प्रयोग करते हैं। पूरा पाकिस्तान एक तरह से हिंदी ही बोलता है उर्दू मिश्रित हिंदी। जिसे हिंदुस्तानी करते हैं । उसे हम भी समझते हैं। श्रीलंका और बांग्लादेश में भी हिंदी की अच्छी पैठ है । हमें अंग्रेजी के बजाय हिंदी को महत्व देना चाहिए। क्योंकि हिंदी हमारे देश की भाषा है। हमारी माँ की भी  भाषा है  और अंग्रेजी उनकी भाषा है जिन्होंने हमें सैकड़ों वर्षो गुलाम बनाए रखा । हमारी परंपराओं, हमारी संस्कृतियों, हमारी शिक्षा को नष्ट - भ्रष्ट कर दिया। जिन्होंने हमारी जड़ो को काटने का काम किया। हमारे हजारों- लाखों भाई बहनों की जान ले ली। उन्हें अपमानित किया। हमारे संसाधनों का दोहन करके वह अपने देश ले गए। क्या हम ऐसे लोगों की भाषा से विकास करेंगे या विकास करना चाहते हैं, जिससे उपनिवेशवाद की बू आती हो ? यह एक भारतीय के तौर पर शर्म की बात है। हमें इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए कि, हम अपनी भाषा में भी बेहतर विकास कर सकते हैं। इस मामले में हम चीन से सीख सकते हैं आज भूमंडलीकरण, भौगोलीककरण और उदारीकरण के काल में चीनी उनकी भाषा नहीं सीखते जो लोग उनके देश में बड़ी संख्या में आ रहे हैं। बल्कि वह उन्हें अपनी भाषा सिखाते हैं, उसका ठीक उल्टा जो विदेशी हमारे यहां आते हैं हम उन्हें अपनी भाषा सिखाने के बदले उनकी भाषा सीख रहे हैं। ओलंपिक खेल आने वाले दिनों में चीन में होंगे, फिर भी चीन अपनी भाषा में ही कार्य कर रहा है और योजनाएं चला रहा है। चीन अन्य भाषाओं को सीखने के बजाए अपनी भाषा सिखाने की व्यवस्था कर रहा है। इसलिए हमें चीन से सीखना चाहिए। अच्छी चीजें कहीं से भी सीखी जा सकती है और हिंदी को कोई बाहरी रोक नहीं रहा है बल्कि कुछ देशी अंग्रेज भारतीय हैं जो हिंदी को राष्ट्रभाषा ही नहीं, बल्कि विश्वभाषा बनने से रोक रहे हैं। वह अंग्रेजी दा  नहीं चाहते कि हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा बने। क्योंकि यदि हिंदी राष्ट्रभाषा बन जाएगी तो तमाम सरकारी, अर्ध सरकारी कार्य, संसदीय कार्य, न्यायालयीन कार्य सब हिंदी में होने लगेंगे ।  प्रशासनिक प्रतियोगी परीक्षाएं भी हिंदी में होंगी। ऐसे में आम आदमी के बच्चे शासन - प्रशासन में काबिज हो जाएंगे और अंग्रेजीदा के अँग्रेज बच्चे व्यवस्था से बाहर हो जाएंगे। क्योंकि जैसे आम आदमी को अंग्रेजी नहीं आती वैसे 5 प्रतिशत इन खास लोगों के बच्चों को और इनको ढंग की  हिंदी नहीं आती। क्योंकि इन्हें आम आदमी से कोई सरोकार ही नहीं है । तो यह आम आदमी की भाषा क्यों सीखेंगे ?आम आदमी से इन्हें इतनी ही जरूरत होती है जितनी एक साहब को एक चपरासी से ।इससे ज्यादा ये आम आदमी को महत्व भी नहीं देते।   इनका न्याय अंग्रेजी में, इनकी प्रशासनिक, सचिव, विदेश सेवा, जिलाधिकारी, आयुक्त आदि की परीक्षाएं अंग्रेजी में, संविधान अंग्रेजी में, आवेदन तक अंग्रेजी में, फिर आम आदमी हिंदी पढ़कर कैसे व्यवस्था में अपनी पैठ बना सकेगा ? यही कारण है कि आज हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है।यह वास्तव में अंग्रेजों के जमाने में ऊंचे पदों पर बैठे हुए  भारतीय रहे हैं इन्होंने ही भारत की अस्मिता के खिलाफ, भारत की स्वतंत्रता के खिलाफ, अंग्रेजो के लिए जय चन्दों और विभीषणों की तरह काम किया। ऐसे में अंग्रेजों ने जाने से पहले अपने पिट्ठुओं के लिए, अंग्रेजी को व्यवस्था में घुसा कर गए और आज तो इतने गहरे तक घुस गई है कि उस गुफा में आम आदमी का पहुंचना बेहद मुश्किल है। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए कई बार कमेटियां गठित की गई। लेकिन उस कमेटी में सारे के सारे अंग्रेजीदा पुराने विभीषण और जयचंद थे। इसलिए उन्होंने अनेकों कारण हिंदी के खिलाफ दिए कि फला - फला कारणों से हिंदी अभी 10-15 वर्षों के लिए राष्ट्रभाषा नहीं बनाई जा सकती। इसी तरह जब भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए प्रयास हुए।  विभीषण और जयचंदों की एक कमेटी बना दी जाती थी और वह फिर 10 - 5 वर्षों के लिए कई सारे कारण अंग्रेजी के पक्ष में और हिंदी के विपक्ष में देकर हिंदी को पटखनी दे देते थे । मुझे महापंडित राहुल सांकृत्यायन की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं। उन्होंने एक बार हिंदी और विकास नामक लेख में लिखा था कि - यदि किसी समाज का निम्न वर्ग उन्नति करेगा। तभी पूरा समाज उन्नति करेगा और उसके उत्थान का यह कार्य किसी विदेशी भाषा के माध्यम से संभव नहीं । क्योंकि भाषा का सवाल सीधे  रोटी का सवाल होता है। एक दूसरे लेख "हिन्दी के विभीषण" में लिखते हैं - जो आजाद भारत में भी अंग्रेजी का मोह नहीं छोड़ पा रहे और ख़ूब पैसा खर्चा करके अंग्रेजी पढ़ाते हैं। वह हिंदी को क्यों पसंद करने लगे ? ऊंची नौकरियों की प्रतियोगिता के लिए हिंदी या प्रादेशिक भाषाओं को माध्यम मान लेने पर सब धान बाईस पसेरी हो जाएगा । कानवेंट की घुट्टी पिलाने वाले या यूरोपियन स्कूलों में पढ़ने वाले लड़कों के पास ही प्रतिभा की इजारेदारी है, यह कोई नहीं मानेगा। हिंदी में प्रतियोगिता होने पर उनके लिए सफलता अत्यंत संदिग्ध है । इसलिए उनके माता-पिता जिनमें देव - महादेव से लेकर बड़े-बड़े नौकरशाह तक शामिल हैं । कभी पसंद नहीं करते कि अंग्रेजी हटे। एक जगह वह लिखते हैं - चाहे दिल्ली के देवता कितने ही शाप देते रहें, अपनी मातृभाषा और मातृ संस्कृत के प्रति लोगों का प्रेम कम नहीं हो सकता ।
यदि हिंदी राष्ट्रभाषा बनती है तो सबसे पहले अंग्रेजो के पिठ्ठू रहे और आज की व्यवस्था को संचालित करने वाले अधिकारी, प्रशासन खुद व्यवस्था से बाहर हो जाएंगे। 95%आम आदमी शासन-प्रशासन में अपनी हिस्सेदारी सहजता से पा लेगा और यह 5% देश को हांकने वाले बाहर हो जाएंगे। तब आएगा असली लोकतंत्र , असली आजादी, वास्तविक विकास, लेकिन उससे इन 5%लोगों की लूट, मौज, तानाशाही खत्म हो जाएगी। जो यह किसी कीमत पर होने नहीं देना चाहते । फिर चाहे वह आई ए यस हों आई आर यस हों उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में बैठे जज हों या उच्च शिक्षा समितियों, आयोगों में बैठे बड़े-बड़े अंग्रेजीदा हों , इन्होंने ही आम आदमी के  विकास की राह रोक रखी है। इन्हें यहां से हटाना होगा, तभी हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा हो सकेगी। उसके बाद तो दुनिया हिन्दी को हाथों - हाथ  लेगी। उसके बगैर उनका काम ही नहीं चलेगा। 130 करोड़ लोगों को कोई कैसे अनदेखा कर सकता है ? और वह भी बाजारवाद के युग में । जब चारों तरफ हाहाकार मचा है । ऐसे में भारत करीब आठ प्रतिशत की दर से दौड़ रहा है। ऐसे में जिसको बाजार में खड़ा होना है, भारत के साथ व्यापार करना है। भारत की भाषा सीखेंगे। वैसे भी दुनिया के करीब डेढ़ सौ देशों में हिंदी पढ़ाई जाती है। बाकी आंकड़े तो बहुत कुछ हैं और उन पर बहुत कुछ बातचीत भी की जा सकती है। लोग मूल विषयों पर तो कभी बात नहीं करते।मूल विषय हैयह है कि सभी कार्य भारतीय भाषाओं में किए जाएं। द्विभाषा सूत्र लागू किए जाएं। हिंदी दूसरी राज्य भाषा हो। तीसरी भाषा ''अंग्रेजी'' वैकल्पिक कर दी जाए। यदि उसे हटा नहीं सकते तो। बीस साल बाद जो नई पीढ़ी आएगी। उसे सिर्फ और सिर्फ हिंदी से प्यार होगा। अपनी मातृभाषा से प्यार होगा । वह लिखेगा, बोलेगा, पढ़ेगा ,रोजगार पाएगा और हंसेगा या रोयेगा भी तो अपनी मातृभाषा या राष्ट्रभाषा में। उसे कहने की जरूरत नहीं होगी और उसे भाषा की, संस्कार की घुट्टी भी पिलाने की जरूरत नहीं होगी। बस! हिंदी और देश की दूसरी भाषाओं को रोजगार से जोड़ दिया जाए, शिक्षा और रोजगार से  बाहर जिस दिन अंग्रेज़ी  होगी, उसी दिन वास्तव में देश विकास करेगा। इतनी तेजी से की कि दुनिया के सारे देश पीछे छूट जाएंगे ।

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