कहां से हम कहाँ को अब
जा रहे हैं
अपनी माटी से ही
कटते जा रहे हैं
संस्कृति के दांत तोड़े जा रहे हैं
भाषा के भी पट उतारे
जा रहे हैं
आपसी बंधुत्व की
हत्या करा के
चीखों में कुछ गीत
गाये जा रहे हैं
लोक से अब लोक गायब
हो रहे हैं
कथित अगुवा ही अजायब
हो रहे हैं
कल तलक जो मार्ग थे
पगडंडी हो गये
लूटने वाले ही
नायब हो रहे
हैं
इसलिए अब गीत बदले जा
रहे हैं
कुछ नए सुर ताल
जुड़ते जा रहे हैं
राग निज का त्याग कर
हैं बढ़ चले
देश से चुपचाप मिलने
जा रहे हैं
गीत अब हम राष्ट्र
के गाने लगे हैं
बेड़ियों से पार अब जाने लगे हैं
गीत जो गाते कभी
श्रृंगार के थे
शब्दों में अंगार वे लाने लगे हैं
नौजवाँ जागे तो सब ही जग गये
राष्ट्र की खातिर सभी थे लग गये
भारती के लाल की
हुंकार सुनकर
जो थे दुश्मन दम
दबाकर भग गये
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – पवनतिवारी@डाटामेल.भारत
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