यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

रविवार, 13 जून 2021

आदमी होने का डर

आदमी होने का डर

अगर कोई मुझसे पूछे या

मुझ पर कसे व्यंग्य

और कहे

आदमी हो कि क्या हो ?

तो मैं, निश्चित ही

आदमी होने से मुकर जाऊँगा !

अब सोचता हूँ ;

कच्चे फलों को असमय कौन

तोड़ लेता है.

अधखिले फूलों को

कौन तोड़ लेता है ?

हरे भरे पौधों को को

कौन तोड़ लेता है ?

तालाबों को कौन पाट देता है ?

मूक पशुओं को कौन मार देता है ?

पक्षियों को कौन पिंजरों को क़ैद करता है ?

असमय बच्चियों को कौन मार देता है ?

कौन उन्हें स्त्री बनने से पहले रौंद देता हूँ?

अपने अन्दर से ही

उत्तर मिलता है, आदमी ! तो,

अपराधबोध और घृणा से भर जाता हूँ

और कर देता हूँ

आदमी होने से इंकार!

आदमी सृष्टि का

सबसे स्वार्थी शब्द है.

इस आदमी शब्द के जैसा

होने से डरता हूँ.


पवन तिवारी 

संवाद- ७७१८०८०९७८ 

 

३०/०६/२०२०

अंदर ही अंदर उर डोले

अंदर ही अंदर उर डोले

कोई उसकी सांकल खोले

सब के बस का ये भी नहीं है

उर उर की भाषा में बोले

 

प्रेम जाल हैं बड़े अनूठे

सुंदर बदन पे ही सब टूटे

मन की राह में बदन की माया

सो मन से सब रहे अछूते

 

प्रेम को पाना प्रभु को पाना

बड़ा कठिन है मन तक जाना

देह राह में है भटकाती

उसके आगे प्रेम घराना

 

हिय जब हिय से है मिल जाता

सब पावन पावन हो जाता

तब जाकर आनन्द मिले है

नन्द कहीं पीछे रह जाता

 

पवन तिवारी

०४/०७/२०२०

गैरों ने मुझको प्यार दिया

गैरों ने मुझको प्यार दिया

अपनों ने मुझको लूटा है

ऐसे - ऐसे  ताने  मारे

घर बार तलक सब छूटा है

 

जिसको दिल की बगिया सौंपी

उसने ही चमन को कुचला है

रिसता घावों को देखकर मेरे

मन हर्ष से उसका मचला है

 

मेरे पावन प्रेम को हँसकर

प्रेम रूप ने छल डाला

प्रेम अग्नि की आहुति में

घी के बदले में जल डाला

 

ऊपर से था रूप चाँद सा

हिय में कलुष बड़ा भारी था

इसी सोच में पड़ा अभी तक

क्या वह उर सच में नारी था

 

पर तेरे छल के कारण मैं

जीवन छोड़ नहीं सकता

नयी वाटिका रोपूंगा फिर

वो माली जो ना थकता

 

सच तो ये मैं प्रेम पथिक हूँ

ये मन छल से ना रुकता

खुद ही प्रेम दिया औ बाती

दीप अखंड जो ना बुझता

 

पवन तिवारी

संवाद - ७७१८०८०९७८ 

 

०९/०७/२०२०

 

 

 

अपनों के धोखों

अपनों के धोखों के दुःख से जीवन त्याग नहीं देते हैं.

योद्धा बिना युद्ध  के यूँ  ही  अपना भाग नहीं देते हैं.

कितने ही छल कपट त्रास को झेल के भी जीवन चलता है.

अपने प्रिय को अपने हाथों क्या हम आग नहीं देते हैं.

 

अपनों से ही दुःख मिलते हैं अपनों से ही सुख मिलते हैं

सबसे अधिक जगत में अपने सच है अपनों से जलाते हैं

सब कुछ जान समझ कर भी हम रिश्तों का दस्तूर निभाते

हाथ छुड़ाने वालों के भी हाथ पकड़ कर हम चलते हैं

 

जीवन में मिलते धोखे जो समझो तो वे एक गुरू हैं

अपनों से यदि मिले हैं धोखे तो समझो कि सही शुरू हैं

धोखे ही जीवन में सबसे मूल्यवान अनुभव देते हैं

धोखों से जिस-जिस ने सीखा हुए वे गुरुओं के भी गुरू हैं

 

बाधाओं से ही अपनी असली क्षमता का भान है होता

गिर-गिर कर  जो उठे बढे हैं उनका सच में मान है होता

छोटे - छोटे व्यवधानों से जो घबराकर रुक जाते हैं

उनका जीवन में अक्सर ही जहाँ-तहाँ अपमान है होता

 

पवन तिवारी

संवाद - ७७१८०८०९७८  

१७/०७/२०२०  

   

मंगलवार, 25 मई 2021

ज़िन्दगी में अचानक

ज़िन्दगी में अचानक जो  आने लगे

सोचना तुम ज़रा हैं वे कितने  सगे

अपनापन हैं जताते तुम्हें  हर घड़ी

वक़्त आने पे वे सबसे  पहले भागे

 

वैसे संबंध  बहुतों  से  हो  जाते हैं

जुड़ना चाहो बहुत लोग जुड़ जाते हैं

किन्तु संबंधों का अर्थ  तब होता है

जब  निभाते  हुए  दूर तक जाते हैं

 

सांत्वना  अर्थ  से भी बड़ी होती है

वक़्त पर हौले से जब खड़ी होती है

स्नेह का  मोल कोई लगा न सका

रिश्ते की सबसे प्यारी कड़ी होती है

 

रिश्ते कम अच्छे हों तो भी चल जाता है

व्यर्थ का लम्बा रिश्ता भी खल जाता है

जितना हो  उसको  मन से निभाते रहो

सारा  अवरोध  धीरे  से  टल  जाता है

 

पवन तिवारी

संवाद – ७७१८०८०९७८

१७/६/२०२०

     

सोमवार, 24 मई 2021

भोर जो आकर खिड़की खोली

भोर जो आकर खिड़की खोली

सुबह ने फिर दरवाज़ा खोला

सारे पक्षी सोच रहे थे

पर पहले आ कागा बोला

 

सूरज की आहट पाते ही

अलसाया जग लगा डोलने

किरणों से जब भेंट हुई तो

सुमन पंखुड़ी लगे खोलने

 

पत्ता-पत्ता गीला करके

ओस की बूँदें लगी पसरने

घर से निकल के सारा ही जग

अपने काम से लगा बिखरने

 

अल्प समय में ही जग भर में

हँस कर सूरज लगा टहलने

यूँ सूरज को हंसते देखकर

बिटिया का मन लगा बहलने

 

बाऊ जी हमें सूरज चाहिए

कहकर बेटा लगा पुलकने

उसकी भोली बातें सुनकर

सारे लोग लगे हँसने

 

पवन तिवारी

संवाद – ७७१८०८०९७८

१५/६/२०२० अलाउद्दीनपुर

 

मैं चाहता हूँ ज़िन्दगी

मैं चाहता हूँ ज़िन्दगी

मेरे साथ बीते

मुझसे बतियाते हुए

मेरा और अपना

सब कुछ साझा करते हुए

किन्तु वह कट रही है

किसी और के साथ

और मैं अकेले बीत रहा हूँ

यह अकेले बीतना ही

ज़िन्दगी की त्रासदी है

और इससे बचते हुए

बीतना सुखद ज़िन्दगी  


पवन तिवारी 

संवाद - 7718080978

 

 

१/६/२०२०, अलाउद्दीनपुर

मंगलवार, 2 जून 2020

बीतना


मैं चाहता हूँ ज़िन्दगी
मेरे साथ बीते,
मुझसे बतियाते हुए ;
मेरा और अपना
सब कुछ साझा करते हुए.
किन्तु वह कट रही है,
किसी और के साथ !
और मैं अकेले बीत रहा हूँ.
यह अकेले बीतना ही
ज़िंदगी की त्रासदी है.
और इससे बचते हुए 
बीतना सुखद ज़िंदगी.


पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८

पतझड़ में फूल


पतझड़ में भी फूल खिले हैं
जंगल में भी  मीत मिले हैं
कभी-कभी कुछ लोगों को तो
गैरों से  भी  गिले  रहे हैं

रोना भी  सुख दे जाता है
गैर से भी मरहम पाता है
कुछ भी हो सकता है यहाँ पर
ये भी जीवन कहलाता है

अपने  कभी   पराये   होते
अपनों में ही  खुद  को खोते
मरुथल में भी झील मिली है
अपनों  से  खा  धोखा रोते

जीवन       तो    बहुरंगा  है
जो   समझा   सो   चंगा   है
दिल की किया तो खुश रह लेगा
मान के चल   सब जग चंगा है

पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८    

तुझको चाहा था


तुझको चाहा था तुझको चाहूँगा
पर  कोई  वादा  न निभाऊंगा
प्यार  होकर  भी  रहेंगे झगड़े
तेरी  तरह  तुझे   तड़पाऊंगा

प्यार कब  बार - बार होता है
दिल तो बस एक बार खोता है
खोते जो बार-बार दिल अपना
उनमें बस  काम-काम होता है

तेरी   चर्चा   करूंगा  कोसूँगा
तेरे धोखे को  जम के भोगूँगा
दर्द कविता में लिखके तुझपे मैं
खुद को मरने से  सदा  रोकूँग

रो  के  भी  तू रो न   पायेगी
होगी रुसवा  जहाँ भी  जायेगी
तेरे धोखे का फल मिलेगा तुझे
अपने दुःख हँसते  हुए गायेगी

पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८