आदमी होने का डर
अगर कोई मुझसे पूछे
या
मुझ पर कसे व्यंग्य
और कहे
आदमी हो कि क्या हो ?
तो मैं, निश्चित ही
आदमी होने से मुकर
जाऊँगा !
अब सोचता हूँ ;
कच्चे फलों को असमय कौन
तोड़ लेता है.
अधखिले फूलों को
कौन तोड़ लेता है ?
हरे भरे पौधों को को
कौन तोड़ लेता है ?
तालाबों को कौन पाट
देता है ?
मूक पशुओं को कौन
मार देता है ?
पक्षियों को कौन
पिंजरों को क़ैद करता है ?
असमय बच्चियों को
कौन मार देता है ?
कौन उन्हें स्त्री
बनने से पहले रौंद देता हूँ?
अपने अन्दर से ही
उत्तर मिलता है,
आदमी ! तो,
अपराधबोध और घृणा से
भर जाता हूँ
और कर देता हूँ
आदमी होने से इंकार!
आदमी सृष्टि का
सबसे स्वार्थी शब्द
है.
इस आदमी शब्द के
जैसा
होने से डरता हूँ.
पवन तिवारी
संवाद- ७७१८०८०९७८
३०/०६/२०२०
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