आज
मनमानियों के बढ़े दौर हैं
आज सुन्दरता
में वर्ण ही गौर हैं
पहले
नैतिक सदाचारी होते बड़े
आज-कल
के बड़े लोग ही और हैं
अर्थ
से प्राथमिकता बदल जाती है
सत्य
के सामने आँख ढल जाती है
सारी
नैतिकता का मोल जिह्वा ही तक
कर्म
की बात हो तो वो गल जाती है
दिन-ब-दिन
कलि का बढ़ता चरण जा रहा
है
मनुजता का होता क्षरण जा रहा
कहने
को यज्ञ मन्दिर अधिक बढ़ रहे
किन्त्तु
जीवन से ही आचरण जा रहा
लोग
हैं लोगों से ही जले जा
रहे
अपने
अपनों से ही हैं छले जा रहे
अर्थ
ने व्यक्ति को आत्मकेंद्रित किया
सभ्यता
से बिछड़ते चले जा रहे
पवन
तिवारी
१२/१०/२०२१
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