पातन
पर ठहरी है
ये जो गुजरिया
वृष्टि
झरे टप टप टप बहे जो बयरिया
झोका
कोई आये जो मस्ती में झूम के
ऐसे लचके
डाली हो जैसे कमरिया
वृष्टि
ने ऐसा शृंगार किया है जग का
प्रेमी
मन बोल रहे बोलो बोलो अब का
दूब
– दूब, वृक्ष – वृक्ष, पंछी नहाए हैं
चेहरा
भी खिला खिला लगता है नभ का
गीली
गीली हवा हुई छूती है तन को
ठंडा
- ठंडा एहसास होता है मन को
पलकों
से वृष्टि झरे, झरें जैसे नैना
सारा
श्रेय जाता है सावन के घन को
बिना
भेदभाव के ये सबको नहलाता है
धरणी
से खुलकर ये प्रेम जतलाता है
खुशियाँ
ये देता है जग भर को भर के
जब
जब ये धीरे धीरे मस्ती में आता है
पवन
तिवारी
२३/०६/२०२१
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