तुम्हारी
चेतना के स्वर
हमारे उर में बजते हैं
तुम्हारे
सारे सुंदर स्वप्न इन आँखों में
सजते हैं
तुम्हें
देखा हूँ जब से सारा कुछ अच्छा ही लगता है
अधर
अब हर घड़ी
केवल तुम्हारा नाम जपते हैं
हुआ
है प्रेम जब
से रेत भी
सुंदर से लगते हैं
तुम्हारे
स्वप्न
ऐसे कि सुबह
में देर जगते
हैं
मुझे
अपनी कुशलता ज्ञान पर अभिमान बिलकुल था
मगर
बच्चे तुम्हारे नाम से मुझे रहते
ठगते हैं
मेरे
व्यवहार में अब
नम्रता कुछ बढ़ गयी लगती
मेरी
मुझसे से ही अब तो ख़ूब छनती और है पगती
उधर
ठहरी हुई सी ज़िंदगी थोड़ी
उदासी थी
आज -
कल लग रहा है ज़िन्दगी ये रेल सी भगती
खिले
हैं सुमन खुशियों के कि गिनती कर नहीं सकता
नये
हैं भाव इच्छाएँ कि अब
मैं मर नहीं सकता
प्रेम
ने शक्ति साहस
इस तरह से
है बढ़ाया कुछ
कि
अब यमराज आयें तो भी ये उर डर नहीं सकता
पवन
तिवारी
१७/०६/
२०२१
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