निराला को
जो ताने
मारे गये थे
कहे गये थे
जो,
उपहासात्मक
शब्द !
जिन
भंगिमाओं से
किया गया
अपमानित, वह सब!
आज-कल प्रत्यक्ष देख और
सुन रहा
हूँ .
अपनों और
अपने
कहलाने
वालों का
अमानवीय
दंश
महसूस कर
रहा हूँ.
मुक्तिबोध
की बीड़ी से
उठते हुए
धुएं पर
गलीय व्यंग्य और
उनकी
प्रतिभा की
हँसी उड़ाती
सुंदर
किन्तु
असभ्य आवाज़ें
मेरे कान
साफ़ – साफ़
आज भी सुन
रहे हैं क्योंकि,
मैंने जान
लिया है
मैं क्यों
हूँ ? और
मुझे क्या
करना है ?
लोग भी
शायद जान गये हैं!
तभी मेरे
कानों ने सुना-
निराला और
मुक्तिबोध
बनने चले
हैं .
कोई काम
क्यों नहीं करते ?
मेरा काम
कोई काम नहीं ??
इसी ने
हत्या की – निराला, प्रेमचन्द और
मुक्तिबोध
आदि की! किन्तु
मैं 'पवन
तिवारी' ही बनूँगा!
आश्वस्त
करता हूँ .
पवन तिवारी
संवाद-
७७१८०८०९७८
१८/०२/२०२१
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