मेरी खुशियों के
छल्ले में सदा से तू जरूरी था
मगर ये सच नहीं की तू
कभी मेरी मजबूरी था
साक्षी की जरुरत कब रही
है हिय के रिश्तों को
न होगा जल के भी
काला प्रेम अपना कर्पूरी थी
तुझे था या न था
मुझको मगर विश्वास था तुझ पर
नहीं परवाह थी
क्योंकि मुझे विश्वास था मुझ पर
मात्र औरों के बल पर
कोई भी ना युद्ध जीता है
किसी भी जीत की
संभावना तो अपने ही भुज पर
ये ऐसा रोग है
विश्वास इसकी एक औषधि है
कि इस सम्बन्ध की
गहराई नापोगे तो जलधि है
रहा अविश्वास इस जग
में ही सबसे क्रूर बैरी है
समन्वय का मिले जोरन
तो एकदम ताजी सी दधि है
तुझे खोना तुझे पाना
नहीं अभिलाषा थी मेरी
रहे तू हर्ष में
प्रतिक्षण कि इतनी आशा थी मेरी
अपेक्षा से कभी भी
प्रेम सच्चा निभ नहीं पाता
मैं बिखरा व्याकरण
था हिन्दी का तू भाषा थी मेरी
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें