कल जब मैं नये मकान
में आया
उदास सा दिखा पूरा
मकान
उसकी दीवारें,छतें,
खिड़कियाँ
यहाँ तक कि
मुख्यद्वार की चौखट भी
एक अजीब सा एकाकीपन
वीरानापन, दीवारों
को छूकर देखा
अजीब सी गंध थी,ऊब
जैसी
जैसे वर्षों से
नहाया न हो
और दातून भी न किया
हो
न ही कपड़े बदला हो,
उसके बदन पर उग आयी
थी
ढीठ फफूदियाँ !
बड़ी मुश्किलों के
बाद मिला था
ये उदास मकान भी
वो भी उदास, मैं भी
उदास
मैंने कर लिया था तय
इसी उदास मकान को
घर बनाने का
अब सिर्फ मकान को तय
करना था
वह घर बनना चाहता है
कि नहीं
मैं सीढ़ियों से
उतरते हुए
मकान के दलाल से
दबती जुबान में बोला
– ठीक है
आप मकान मालिक से
बात कीजिये
और फिर मैं
बेचैनियों वाली
रात को किसी तरह
गुजार कर
अगली सुबह अपने
बेकार
गैर ज़रूरी और आवश्यक
सामानों की
गठरी लिए हाजिर हो
गया
थककर पसीने से लिपटा
हुआ
फर्श पर हो गया
धराशायी
हिम्मत कर फिर उठा
पंखें का बटन दबाया
और फिर ज्यों का
त्यों धराशायी
पूरा फ़ैल गया
निस्पृह
एक अजीब गंध और फिर
सुध में आया दो घंटे
बाद
वही दीवारे अच्छी लग
रही थी
अंदर के कमर में
खुली खिड़की से
शीतल मंद हवा आ रही
थी
खुद को छुवा तो पूरे
शरीर में
एक झुरझुरी सी दौड़
पड़ी
और दीवारों को देखा
वे सब मुस्करा रही
थी
मुझे आश्चर्य हुआ, कल
तक
अभी कुछ घंटों पहले
तक
थके हारे उदास दीवारों-दर
अब मुस्करा रहे थे
मैंने साहस जुटाकर
मकान से पूछा-
आप तो उदास और दुखी
थे
अब मुस्करा रहे हैं
मकान नें हँसकर कहा-
मकान उदास था,
मैं क्यों उदास होऊं
मैं तो घर हूँ,
घर तो हमेशा चहकता
है
और आप भी तो कल उदास
थे
आप ने ही निश्चय
किया
मुझे घर बनाने का
आप नहीं थे तो मैं
मकान था
जीवन तो घर में होता
है
मकान में नहीं
मैं तो हमेशा बने
रहना चाहता हूँ घर
पर कोई मकान को
घर बनाने वाला तो
आये
मैं भी घर की बातें
सुन मुस्करा दिया
अब मुझे अच्छा महसूस
हो रहा था
क्योंकि अब ये मकान
नहीं मेरा घर था
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com
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