यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

बुधवार, 31 अगस्त 2016

महादानी ऋषि दधीचि से जब भगवान् विष्णु भी हार गये और चक्र निष्क्रिय हो गया

  दधीचि से जब भगवान् विष्णु भी हार गये और चक्र निष्क्रिय हो गया
 मित्रों,पाठकों आज हम महादानी के रूप में विख्यात ऋषि दधीचि की कुछ अनकही कहानियाँ आप को बताऊंगा.  आइये उन अनसुनी कहानियों को मेरे साथ मेरे शब्दों में आत्मसात करें ...


# दधीचि जी का एक बार इंद्र ने सिर काट कर वध कर दिया था. किन्तु अश्विनीकुमारों ने पुनः दधीचि ऋषि का सिर जोड़ दिया.

# दक्ष के यज्ञ में शिव जी को नहीं बुलाने पर सबसे पहले दधीचि ने ही प्रजापति दक्ष की आलोचना की थी और यज्ञ का त्याग कर अपने आश्रम लौट आये थे.

# ऋषि दधीचि के समय समस्त विश्व में सिर्फ दधीचि को ही ब्रम्ह विद्या का ज्ञान था. जिसे इंद्र सीखना चाहते थे,किन्तु दधीचि ने इंद्र को ब्रम्ह विद्या सिखाने से मना कर दिया.क्योंकि उनकी दृष्टि में इंद्र उस विद्या को सीखने योग्य नहीं थे. तभी इंद्र ने प्रण किया कि अगर आप ने किसी को ब्रम्ह विद्या सिखाई तो मै आप का वध कर दूँगा. बाद में अश्विनीकुमार को ब्रम्ह विद्या का ज्ञान दधीचि ने दिया और प्रतिशोध स्वरूप इंद्र ने दधीचि का सर काट लिया.
राजा क्षुप से अपमानित होने पर शुक्राचार्य ने दधीचि को भगवान् शंकर की आराधना करने को कहा. जिसके फलस्वरूप भगवान् शंकर ने दधीचि की तपस्या से प्रसन्न होकर तीन वरदान दिए. जिनमें एक वरदान उनका किसी के भी द्वारा अवध्य होना भी था.

# दधीच ऋषि भगवान् शिव के परमभक्त थे. उनके आशीर्वाद के कारन उनका शरीर वज्र था .

# वज्र और ब्रम्हशिर नामक बाण दधीचि की रीढ़ हड्डियों से बना था.

# राजा क्षुप ने भारी तप करके भगवान् विष्णु को प्रसन्न कर दधीचि को नीचा दिखने के लिए भगवान् विष्णु से कहा- किन्तु विष्णु जी ऐसा कर न सके. युद्ध करके थक गये. दधीचि पर सुदर्शन चक्र से प्रहार किये किन्तु चक्र दधीचि को लगने से पहले ही कुण्ठित हो गया और विष्णु जी को हारकर वापस जाना पड़ा.

दधीचि के पिता का नाम अथर्वा और माता का नाम चित्ति था.

# दधीचि ने उस व्यक्ति [इंद्र] को अपना शरीर दान कर दिया. जिसने कभी उनका सर काट लिया था. क्या कोई ऐसा दानी कभी हुआ है.

# दधीचि ने जब अपना शरीर दान किया, उस समय उनकी पत्नी सुवर्चा गर्भवती थी. उन्होंने अपना पेट फाड़कर अपने बेटे को निकाल पीपल के पेड़ को सौंप सती हो गयी.

# दधीचि के पुत्र को पीपल ने पाला और पीपल के पत्ते खाकर बड़े हुए.  इसलिए उनका नाम पिप्लादि पड़ा.

# पिप्लादि भगवान् शंकर के अवतार माने जाते थे.जो उनके नाम का स्मरण करता है शनि उसे परेशान नहीं करता. पिप्लादि ने एकबार आकाश में शनि को घूर कर देख लिया था जिसके तेजोमय प्रभाव से शनि आकाश से सीधे पृथ्वी पर आकर गिर पड़े और उनका पैर टूट गया था .

मंगलवार, 30 अगस्त 2016

चवन्नी का मेला: ध्रुव की कुछ अचर्चित और रोचक अनसुनी कहानियाँ....

पढ़ें भक्त ध्रुव की अनकहीं अनसुनी कहानियाँ ......
ध्रुव पूर्व जन्म में एक ब्राह्मण पुत्र थे.उनका मित्र राजा का पुत्र था. इस लिए उनके मन में भी राजपुत्र होने की इच्छा हुई और अगले जन्म में ध्रुव राजा उत्तानपाद के पुत्र हुए.चवन्नी का मेला: ध्रुव की कुछ अचर्चित और रोचक अनसुनी कहानियाँ....: मित्रों,पाठकों भक्त ध्रुव की कथा तो सबने सुनी है.... कि सौतेली माँ द्वारा अपमानित होकर उन्होंने भगवान् विष्णु की घोर तपस्या की और बदले...

ध्रुव की कुछ अचर्चित और रोचक अनसुनी कहानियाँ....


मित्रों,पाठकों भक्त ध्रुव की कथा तो सबने सुनी है.... कि सौतेली माँ द्वारा अपमानित होकर उन्होंने भगवान् विष्णु की घोर तपस्या की और बदले में उन्हें प्रभु ने पिता उत्तानपाद के सिंहासन से ऊँचा स्थान दिया. सप्तऋषियों से भी ऊँचा स्थान ध्रुव को प्राप्त हुआ. आइये अब कुछ अनसुनी या कम चर्चित कहानियाँ ध्रुव के बारे में जानें......

# क्या आप जानते हैं ध्रुव के पिता 3 भाई थे ? ज्यादातर लोग जानते हैं कि ध्रुव के पिता 2 भाई थे. प्रियव्रत और उत्तानपाद  जबकि तीसरे भाई का नाम वीर था.ध्रुव के पिता उत्तानपाद से बड़े प्रियव्रत थे. प्रियव्रत साधारण जीवन जीना चाहते थे,उन्हें राजपाट में रूचि नहीं थी. उनके इनकार के बाद उत्तानपाद को राजा बनाया गया.

# ध्रुव की तीन बुवा थीं..............आकूति, देवहुति और प्रसूति
अक्सर दो बुवा के बारे में ही कहा जाता है.

# ध्रुव के नाना का नाम प्रजापति धर्म था.

# ध्रुव ने भगवान् को प्रसन्न करने के बाद तुरंत स्वर्ग नहीं गये ,बल्की वापस आकर नारदजी के कहने और उत्तानपाद के क्षमा मांगने के बाद अपने पिता उत्तानपाद का सिंहासन सम्भाला. ध्रुव चक्रवर्ती राजा बने और 36 हजार वर्ष राज किये.
  

# भक्त की उपाधि इस लिए मिली कि वैसी कठिन भक्ति किसी ने किसी भी काल में नहीं की . मात्र साढ़े 4 वर्ष की उम्र में निर्जन वन में ध्रुव ने तप आरम्भ किया.

# ध्रुव ने अनन्य चित्त होकर तप किया. जिस कारण भगवान् विष्णु ध्रुव के ह्रदय में स्थित हो गए. जिस कारण ध्रुव का भार पृथ्वी को सम्भालना मुश्किल हो गया.   

# ध्रुव ने एक पैर पर खड़े होकर तप किया. कुछ दिनों तक बाएं पैर पर खड़े होकर और कुछ दिनों तक दायें पैर पर . ध्रुव जिस पैर पर खड़े होकर तप करते पृथ्वी उस ओर आधा दब जाती या झुक जाती थी.
    
# ध्रुव ने कुछ दिनों तक मात्र पैर के अंगूठे के बल पर खड़े होकर तप किया जिसके दबाव के कारण पहाड़ों सहित धरती हिलने लगी.
  
# इंद्र ने धुव की तपस्या भंग करने की काफी कोशिश की पर असफल रहे .

# इंद्र की माया से अनेक राक्षस डराने आये . ध्रुव की मया रूपी माँ भी रोते हुए आयी पर ध्रुव पर कोई असर नहीं हुआ .

# हारकर इंद्र आदि देव स्वयं भगवान् विष्णु की पास गये और ध्रुव को दर्शन दे उसकी तपस्या समाप्त करवाने की विनती की.
# ध्रुव के कठोर तप के तेज के कारण देवलोक तपने लगा था. ध्रुव ने कई महीनों तक सिर्फ हवा पीकर तप किया. इसलिए ध्रुव ‘’भक्त ध्रुव’’ कहलाये.

# ध्रुव जब घर से तप के लिए से निकले तो सर्व प्रथम उन्हें नारद ने नहीं सप्तऋषियों ने मार्गदर्शन दिया. वे सप्तर्षि थे ....मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वशिष्ठ .

# ध्रुव ने मधुवन में यमुना के तट पर तप किया था.

# ध्रुव पूर्व जन्म में एक ब्राह्मण पुत्र थे.उनका मित्र राजा का पुत्र था. इस लिए उनके मन में भी राजपुत्र होने की इच्छा हुई और अगले जन्म में ध्रुव राजा उत्तानपाद के पुत्र हुए.
  
# विष्णु भगवान् ने ध्रुव को देवों और सप्तर्षि से भी ऊँचा स्थान दिया.सप्तर्षि ध्रुव की परिक्रमा करते हैं.

# देवताओं की आयु 4 युगों या अधिकतम एक मन्वन्तर होती है, किन्तु भगवान् विष्णु ने ध्रुव को और साथ में उनकी माता सुनीति को भी एक कल्प की आयु दी. [एक कल्प में 14 मन्वन्तर होते हैं]

#  ध्रुव के सौतेले भाई उत्तम जो सुरुचि के गर्भ से पैदा हुआ था. उसको यक्षों ने जंगल में मार डाला था.

# ध्रुव ने अपने भाई उत्तम की मृत्यु का बदला लेने के लिए यक्षों से भीषण युद्ध किया और उनका संहार करना शुरू किया. यक्षों के राजा कुबेर ने महाराज ध्रुव से युद्ध बंद करने की प्रार्थना की. तब जाकर ध्रुव ने युद्ध बंद किया.

# ध्रुव की सौतेली माँ सुरुचि दावानल में फंसकर भस्म हुई.

# ध्रुव ने अपने पुत्र वत्सर को राज्य सौंप बदरिकाश्रम गये और वहीं शरीर त्याग कर परमधाम को गये .

# ध्रुव के बड़े पुत्र का नाम उत्कल था, जो तत्वज्ञानीएवं दार्शनिक थे.

# ध्रुव के चाचा प्रियव्रत के प्रपौत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा. इससे पहले इसे जम्बूद्वीप कहते थे.जिसके राजा ध्रुव के चचेरे भाई आग्रीध थे.   





रविवार, 28 अगस्त 2016

चवन्नी का मेला: कश्मीर और उसके जख्म

चवन्नी का मेला: कश्मीर और उसके जख्म: कश्मीर का प्राचीन विस्तृत लिखित इतिहास मिलता है कल्हण द्वारा 12वीं शताब्दी ई. में लिखी गई  ‘’राजतरंगिणी’’ में  ।  तब तक यहां पूर्ण हिन्दू ...

कश्मीर और उसके जख्म

कश्मीर का प्राचीन विस्तृत लिखित इतिहास मिलता है कल्हण द्वारा 12वीं शताब्दी ई. में लिखी गई  ‘’राजतरंगिणी’’ में  तब तक यहां पूर्ण हिन्दू राज्य रहा था। यह अशोक महान के साम्राज्य का हिस्सा भी रहा । लगभग तीसरी शताब्दी में अशोक का शासन रहा था । तभी यहां बौद्ध धर्म का आगमन हुआ, जो आगे चलकर कुषाणों के अधीन समृध्द हुआ था । उज्जैन के महाराज विक्रमादित्य के अधीन छठी शताब्दी में एक बार फिर से सनातन धर्म की वापसी हुई । उनके बाद ललितादित्या हिन्दू शासक रहे, जिसका काल 697 ई. से 738 ई. तक था ।उसके बाद अवन्तिवर्मन ललितादित्या का उत्तराधिकारी बना । उसने श्रीनगर के निकट अवंतिपुर बसाया । उसे ही अपनी राजधानी भी बनाया । जो एक समृद्ध क्षेत्र रहा । उसके खंडहर अवशेष आज भी शहर की कहानी कहते हैं । यहां महाभारत युग के गणपतयार और खीर भवानी मन्दिर आज भी मिलते हैं । गिलगिट में पाण्डुलिपियां हैं , जो प्राचीन पाली भाषा में हैं । उसमें बौद्ध लेख लिखे हैं । त्रिखा शास्त्र भी यहीं की देन है । यह कश्मीर में ही उत्पन्न हुआ । चौदहवीं शताब्दी में यहां मुस्लिम शासन आरंभ हुआ। उसी काल में फारस से सूफी इस्लाम का भी आगमन हुआ । जम्मू का उल्‍लेख महाभारत में भी मिलता है। हाल में अखनूर से प्राप्‍त हड़प्‍पा कालीन अवशेषों तथा मौर्य, कुषाण और गुप्‍त काल की कलाकृतियों से जम्मू के प्राचीन स्‍वरूप पर नया प्रकाश पड़ा है। जम्मू 22 पहाड़ी रियासतों में बंटा हुआ था।
सन १५८९ में यहां मुगल का राज हुआ । यह अकबर का शासन काल था । मुगल साम्राज्य के विखंडन के बाद यहां पठानों का कब्जा हुआ । यह काल यहां का काला युग कहलाता है । फिर १८१४ में पंजाब के शासक महाराजा रणजीत सिंह द्वारा पठानों की पराजय हुई, व सिख साम्राज्य की स्थापना हुई ।
अंग्रेजों द्वारा सिखों की पराजय १८४६ में हुई, जिसका परिणाम था लाहौर संधि । अंग्रेजों द्वारा महाराजा गुलाब सिंह को गद्दी दी गई, जो कश्मीर के स्वतंत्र शासक बने । गिलगित रीजेन्सी अंग्रेज राजनैतिक एजेन्टों के अधीन क्षेत्र रहा । उस समय कश्मीर क्षेत्र से गिलगित क्षेत्र को बाहर माना जाता था । अंग्रेजों द्वारा जम्मू और कश्मीर में पुन: एजेन्ट की नियुक्ति हुई । महाराजा गुलाब सिंह के सबसे बड़े पौत्र महाराजा हरि सिंह 1925 ई. में गद्दी पर बैठे, जिन्होंने 1947 ई. तक शासन किया ।
कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने पाकिस्तान और भारत के साथ तटस्थ समझौता किया । ताकि कश्मीर सुरक्षित भी रहे और उसकी सम्प्रभुता भी बनी रहे ।पहले पाकिस्तान के साथ समझौते पर हस्ताक्षर हुए । भारत के साथ समझौते पर हस्ताक्षर से पहले, पाकिस्तान ने कश्मीर की आवश्यक आपूर्ति को काट दिया जो तटस्थता समझौते का उल्लंघन था । उसने कश्मीर का पाकिस्तान में विलय हेतु दबाव का तरीका अपनाना आरंभ किया , जो भारत व कश्मीर, दोनों को ही स्वीकार्य नहीं था । किन्तु जब पाकिस्तान के दबाव का यह तरीका विफल रहा , तो कबाइलियों को साथ में पाक सेना  ने भी मिलकर कश्मीर पर आक्रमण कर दिया । तब तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद का आग्रह किया । यह 24 अक्टूबर, 1947 की बात है । किन्तु पंडित नेहरू ने रूचि नहीं दिखाई क्योंकि पंडित नेहरु को महाराजा से अपना पुराना हिसाब चुकता करना था । इस घटना से कुछ कुछ महीने पहले ही कश्मीर की सीमा पर खडे होकर नेहरु ने कश्मीर के राज्यपाल को कहा था, ‘तुम्हारा राजा कुछ दिन बाद मेरे पैरों पड़कर गिडगिडायेगा ।’ शायद महाराजा का कसूर केवल इतना था कि १९३१ में ही उन्होंने लंदन में हुई गोल मेज कान्फ्रेंस में ब्रिटेन की सरकार को कह दिया था कि ‘हम भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में एक साथ हैं।’ उस वक्त वे किसी रियासत के राजा होने के साथ - साथ एक आम गौरवशाली हिन्दुस्तानी के दिल की आवाज की अभिव्यक्ति कर रहे थे । हरि सिंह ने तो उसी वक्त अप्रत्यक्ष रुप से बता दिया था कि भारत की सीमाएं जम्मू कश्मीर तक फैली हुई हैं । लेकिन पंडित नेहरु १९४७ में भी इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं थे । उनकी सोंच वहाँ तक थी ही नहीं .वे अड़े हुए थे कि जम्मू कश्मीर को भारत का हिस्सा तभी माना जायेगा जब महाराजा हरिसिंह सत्ता शेख अब्दुला को सौंप देंगे । ऐसा और किसी भी रियासत में नहीं हुआ था । शेख इतनी बडी रियासत में केवल कश्मीर घाटी में भी कश्मीरी भाषा बोलने वाले केवल सुन्नी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते थे। बिना किसी चुनाव या लोकतांत्रिक पद्धति से शेख को सत्ता सौंप देने का अर्थ लोगों की इच्छा के विपरीत एक नई तानाशाही स्थापित करना ही था । नेहरु तो विलय की बात हरि सिंह की सरकार से करने के लिये भी तैयार नहीं थे । विलय पर निर्णय लेने के लिये वे केवल शेख को सक्षम मानते थे, जबकि वैधानिक व लोकतांत्रिक दोनों दृष्टियों से यह गलत था । महाराजा इस शर्त को मानने के लिये किसी भी तरह तैयार नहीं थे। नेहरू का नकारात्मक रवैया देखकर हरि सिंह ने गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन को कश्मीर में संकट के बारे में लिखा, व साथ ही भारत में विलय की इच्छा प्रकट की । आख़िरकार विलय पत्र पर 26 अक्टूबर, 1947 को पण्डित जवाहरलाल नेहरू और महाराज हरीसिंह ने हस्ताक्षर किये ।  इस विलय को माउंटबेटन द्वारा 27 अक्टूबर, 1947 को स्वीकार किया गया ।  पर तब तक काफी देर हो चुकी थी । कबाइलियों के रूप में पाक सेना ने एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था । विलय पर हस्ताक्षर के बाद  भारतीय सेना को हमले की आज्ञा मिली । फिर क्या था भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना के छक्के छुड़ाते हुए, उनके द्वारा कब्जा किए गए कश्मीरी क्षेत्र को पुनः प्राप्त करते हुए तेजी से आगे बढ़ रही थी कि बीच में ही 31 दिसंबर 1947 को नेहरूजी ने यूएनओ से अचानक अपील की कि वह पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी लुटेरों को भारत पर आक्रमण करने से रोके। परिणामस्वरुप 1 जनवरी 1949 को भारत-पाकिस्तान के मध्य युद्ध-विराम की घोषणा कराई गई । इससे पहले 1948 में पाकिस्तान ने कबाइलियों के वेश में अपनी सेना को भारतीय कश्मीर में घुसाकर समूची घाटी कब्जाने का प्रयास किया, जो असफल रहा।
नेहरूजी के यूएनओ में चले जाने के कारण युद्धविराम हो गया और भारतीय सेना के हाथ बंध गए। जिससे पाकिस्तान द्वारा कब्जा किए गए शेष क्षेत्र को भारतीय सेना प्राप्त करने में फिर कभी सफल न हो सकी। वही हिस्सा आज पीओके कहलाता है। भारतीय जम्मू और कश्मीर के तीन मुख्य अंचल हैं : जम्मू (हिन्दू बहुल), कश्मीर (मुस्लिम बहुल) और लद्दाख़ (बौद्ध बहुल)। ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर है और शीतकालीन राजधानी जम्मू-तवी। कश्मीर प्रदेश को 'दुनिया का स्वर्ग' माना गया है। अधिकांश जिला हिमालय पर्वत से ढका हुआ है। मुख्य नदियाँ हैं सिन्धु, झेलम और चेनाब। यहाँ कई ख़ूबसूरत झीलें हैं: डल, वुलर और नागिन 


यदि नेहरु इस जिद पर न अड़े रहते कि विलय से पूर्व सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंपी जाये, तो कश्मीर रियासत का विलय भारत में 15 अगस्त 1947 से पहले ही हो जाता और राज्य का इतिहास आज कुछ और ही होता । बाद में किसी ने ठीक ही टिप्पणी की कि .....महाराजा हरि सिंह ने तो पूरे का पूरा राज्य दिया था , लेकिन नेहरु ने उतना ही रखा जितना शेख अब्दुल्ला को चाहिये था, बाकी उन्होंने पाकिस्तान के पास ही रहने दिया ।
कश्मीर को भारत में विलय कर यहां का अभिन्न अंग बनाया । इस विलय पत्र के अनुसार- "राज्य केवल तीन विषयों- रक्षा, विदेशी मामले और संचार -पर अपना अधिकार नहीं रखेगा, बाकी सभी पर उसका नियंत्रण होगा। उस समय भारत सरकार ने आश्वासन दिया कि इस राज्य के लोग अपने स्वयं के संविधान द्वारा राज्य पर भारतीय संघ के अधिकार क्षेत्र को निर्धारित करेंगे । जब तक राज्य विधान सभा द्वारा भारत सरकार के फैसले पर मुहर नहीं लगाया जायेगा, तब तक भारत का संविधान राज्य के सम्बंध में केवल अंतरिम व्यवस्था कर सकता है। इसी क्रम में भारतीय संविधान में 'अनुच्छेद 370' जोड़ा गया, जिसमें बताया गया कि जम्मू-कश्मीर से सम्बंधित राज्य उपबंध केवल अस्थायी है, स्थायी नहीं।
धारा ३७० भारतीय संविधान का एक विशेष अनुच्छेद (धारा) है जिसके द्वारा जम्मू एवं कश्मीर राज्य को सम्पूर्ण भारत में अन्य राज्यों के मुकाबले विशेष अधिकार अथवा (विशेष दर्ज़ा) प्राप्त है। देश को आज़ादी मिलने के बाद से लेकर अब तक यह धारा भारतीय राजनीति में बहुत विवादित रही है। भारतीय जनता पार्टी एवं कई राष्ट्रवादी दल इसे जम्मू एवं कश्मीर में व्याप्त अलगाववाद के लिये जिम्मेदार मानते हैं तथा इसे समाप्त करने की माँग करते रहे हैं। भारतीय संविधान में अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष उपबन्ध सम्बन्धी भाग २१ का अनुच्छेद ३७० जवाहरलाल नेहरू के विशेष हस्तक्षेप से तैयार किया गया था । स्वतन्त्र भारत के लिये कश्मीर का मुद्दा आज तक समस्या बना हुआ है

धारा 370 के प्रावधानों के अनुसार, संसद को जम्मू-कश्मीर के बारे में रक्षा, विदेश मामले और संचार के विषय में कानून बनाने का अधिकार है लेकिन किसी अन्य विषय से सम्बन्धित क़ानून को लागू करवाने के लिये केन्द्र को राज्य सरकार का अनुमोदन चाहिये।
इसी विशेष दर्ज़े के कारण जम्मू-कश्मीर राज्य पर संविधान की धारा 356 लागू नहीं होती।
इस कारण राष्ट्रपति के पास राज्य के संविधान को बर्ख़ास्त करने का अधिकार नहीं है।
1976 का शहरी भूमि क़ानून जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता।
इसके तहत भारतीय नागरिक को विशेष अधिकार प्राप्त राज्यों के अलावा भारत में कहीं भी भूमि ख़रीदने का अधिकार है। यानी भारत के दूसरे राज्यों के लोग जम्मू-कश्मीर में ज़मीन नहीं ख़रीद सकते।
भारतीय संविधान की धारा 360 जिसके अन्तर्गत देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है, वह भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती।
जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय करना ज़्यादा बड़ी ज़रूरत थी और इस काम को अंजाम देने के लिये धारा 370 के तहत कुछ विशेष अधिकार कश्मीर की जनता को उस समय दिये गये थे। ये विशेष अधिकार निचले अनुभाग में दिये जा रहे हैं।
विशेष अधिकारों की सूची
1. जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के पास दोहरी नागरिकता होती है।

2. जम्मू-कश्मीर का राष्ट्रध्वज अलग होता है।

3. जम्मू - कश्मीर की विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्षों का होता है जबकि भारत के अन्य राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है।

4. जम्मू-कश्मीर के अन्दर भारत के राष्ट्रध्वज या राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान अपराध नहीं होता है।

5. भारत के उच्चतम न्यायालय के आदेश जम्मू-कश्मीर के अन्दर मान्य नहीं होते हैं।

6. भारत की संसद को जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में अत्यन्त सीमित क्षेत्र में कानून बना सकती है।

7. जम्मू-कश्मीर की कोई महिला यदि भारत के किसी अन्य राज्य के व्यक्ति से विवाह कर ले तो उस महिला की नागरिकता समाप्त हो जायेगी। इसके विपरीत यदि वह पकिस्तान के किसी व्यक्ति से विवाह कर ले तो उसे भी जम्मू-कश्मीर की नागरिकता मिल जायेगी।

8. धारा 370 की वजह से कश्मीर में RTI लागू नहीं है, RTE लागू नहीं है, CAG लागू नहीं है। संक्षेप में कहें तो भारत का कोई भी कानून वहाँ लागू नहीं होता।

9. कश्मीर में महिलाओं पर शरियत कानून लागू है।

10. कश्मीर में पंचायत के अधिकार नहीं ।

11. कश्मीर में चपरासी को 2500 रूपये ही मिलते है।

12. कश्मीर में अल्पसंख्यकों [हिन्दू-सिख] को 16% आरक्षण नहीं मिलता।

13. धारा 370 की वजह से कश्मीर में बाहर के लोग जमीन नहीं खरीद सकते हैं।

14. धारा 370 की वजह से ही कश्मीर में रहने वाले पाकिस्तानियों को भी भारतीय नागरिकता मिल जाती है।

धारा ३७० के सम्बन्ध में कुछ  और विशेष बातें
१) धारा ३७० अपने भारत के संविधान का अंग है।

२) यह धारा संविधान के २१वें भाग में समाविष्ट है जिसका शीर्षक है- ‘अस्थायी, परिवर्तनीय और विशेष प्रावधान’ (Temporary, Transitional and Special Provisions)

३) धारा ३७० के शीर्षक के शब्द हैं - जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में अस्थायी प्रावधान (“Temporary provisions with respect to the State of Jammu and Kashmir”)

४) धारा ३७० के तहत जो प्रावधान है उनमें समय समय पर परिवर्तन किया गया है जिनका आरम्भ १९५४ से हुआ। १९५४ का महत्त्व इस लिये है कि १९५३ में उस समय के कश्मीर के वजीर-ए-आजम शेख महम्मद अब्दुल्ला, जो जवाहरलाल नेहरू के अंतरंग मित्र थे, को गिरफ्तार कर बंदी बनाया था। ये सारे संशोधन जम्मू-कश्मीर के विधानसभा द्वारा पारित किये गये हैं।

संशोधित किये हुये प्रावधान इस प्रकार के हैं-

(अ) १९५४ में चुंगी, केंद्रीय अबकारी, नागरी उड्डयन और डाकतार विभागों के कानून और नियम जम्मू-कश्मीर को लागू किये गये ।
(आ) १९५८ से केन्द्रीय सेवा के आई ए एस तथा आय पी एस अधिकारियों की नियुक्तियाँ इस राज्य में होने लगीं । इसी के साथ सी ए जी (CAG) के अधिकार भी इस राज्य पर लागू हुए।
(इ) १९५९ में भारतीय जनगणना का कानून जम्मू-कश्मीर पर लागू हुआ।
(र्ई) १९६० में सर्वोच्च न्यायालय ने जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपीलों को स्वीकार करना शुरू किया, उसे अधिकृत किया गया।
(उ) १९६४ में संविधान के अनुच्छेद ३५६ तथा ३५७ इस राज्य पर लागू किये गये। इस अनुच्छेदों के अनुसार जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक व्यवस्था के गड़बड़ा जाने पर राष्ट्रपति का शासन लागू करने के अधिकार प्राप्त हुए।
(ऊ) १९६५ से श्रमिक कल्याण, श्रमिक संगठन, सामाजिक सुरक्षा तथा सामाजिक बीमा सम्बन्धी केन्द्रीय कानून राज्य पर लागू हुए।
(ए) १९६६ में लोकसभा में प्रत्यक्ष मतदान द्वारा निर्वाचित अपना प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दिया गया।
(ऐ) १९६६ में ही जम्मू-कश्मीर की विधानसभा ने अपने संविधान में आवश्यक सुधार करते हुए- ‘प्रधानमन्त्री’ के स्थान पर ‘मुख्यमन्त्री’ तथा ‘सदर-ए-रियासत’ के स्थान पर ‘राज्यपाल’ इन पदनामों को स्वीकृत कर उन नामों का प्रयोग करने की स्वीकृति दी । ‘सदर-ए-रियासत’ का चुनाव विधानसभा द्वारा हुआ करता था, अब राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होने लगी।
(ओ) १९६८ में जम्मू-कश्मीर के उच्च न्यायालय ने चुनाव सम्बन्धी मामलों पर अपील सुनने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को दिया।
(औ) १९७१ में भारतीय संविधान के अनुच्छेद २२६ के तहत विशिष्ट प्रकार के मामलों की सुनवाई करने का अधिकार उच्च न्यायालय को दिया गया।
(अं) १९८६ में भारतीय संविधान के अनुच्छेद २४९ के प्रावधान जम्मू-कश्मीर पर लागू हुए।
(अः) इस धारा में ही उसके सम्पूर्ण समाप्ति की व्यवस्था बताई गयी है। धारा ३७० का उप अनुच्छेद ३ बताता है कि ‘‘पूर्ववर्ती प्रावधानों में कुछ भी लिखा हो, राष्ट्रपति प्रकट सूचना द्वारा यह घोषित कर सकते है कि यह धारा कुछ अपवादों या संशोधनों को छोड दिया जाये तो समाप्त की जा सकती है।
इस धारा का एक परन्तुक (Proviso) भी है। वह कहता है कि इसके लिये राज्य की संविधान सभा की मान्यता चाहिये। किन्तु अब राज्य की संविधान सभा ही अस्तित्व में नहीं है। जो व्यवस्था अस्तित्व में नहीं है वह कारगर कैसे हो सकती है?
जवाहरलाल नेहरू द्वारा जम्मू-कश्मीर के एक नेता पं॰ प्रेमनाथ बजाज को २१ अगस्त १९६२ में लिखे हुये पत्र से यह स्पष्ट होता है कि उनकी कल्पना में भी यही था कि कभी न कभी धारा ३७० समाप्त होगी । पं॰ नेहरू ने अपने पत्र में लिखा है-

‘‘वास्तविकता तो यह है कि संविधान का यह अनुच्छेद, जो जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा दिलाने के लिये कारणीभूत बताया जाता है, उसके होते हुये भी कई अन्य बातें की गयी हैं और जो कुछ और किया जाना है, वह भी किया जायेगा । मुख्य सवाल तो भावना का है, उसमें दूसरी और कोई बात नहीं है। कभी-कभी भावना ही बडी महत्त्वपूर्ण सिद्ध होती है।’’
जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र विद्रोह में अब तक दस हजार से अधिक लोगों की जानें गयी हैं । कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा पालित उग्रवाद विभिन्न रूपों में मौजूद है । वर्ष 1989 के बाद से उग्रवाद और उसके दमन की प्रक्रिया, दोनों की वजह से हजारों लोग मारे गए । 1987 के एक विवादित चुनाव के साथ कश्मीर में बड़े पैमाने पर सशस्त्र उग्रवाद की शुरूआत हुई, जिसमें राज्य के अलगाववादी धड़े ने एक आतंकवादी खेमे का गठन किया, जिसने इस क्षेत्र में सशस्त्र विद्रोह में एक उत्प्रेरक के रूप में भूमिका निभाई ।  जिसमें सबसे अधिक उत्पीड़न कश्मीरी पंडितों का हुआ ।कश्मीरी पंडितों के साथ इतनी अधिक ज्यादती और अत्याचार हुए कि उन्हें अपनी मातृभूमि से पलायन कर देश के अन्य भागों में शरण लेनी पड़ी । दुर्भाग्य से इस पर न तो नेताओं के लब खुले न भारतीय मीडिया ने इस मामले को उस स्तर पर उठाया, जिस स्तर पर उठाना चाहिए था । जो मीडिया पेलेट गन के विरोध में है वो कश्मीरी पंडितों के मुद्दे पर अंधी और बहरी है । काश कश्मीरी पंडित भी राजनीतिक मुद्दा बनते । दलित और अल्पसंख्यकों की तरह ...काश.... एक वेमुला.... एक कन्हैया...... एक अख़लाक़ की तरह कश्मीरी पण्डितों पर भी राजनीति हुई होती, मीडिया कवरेज हुई होती और सेना पेलेट गन चलाई होती, तो आज 5 लाख कश्मीरी पंडित अपने आशियाने से दर-बदर न होते । पाकिस्तान के इंटर इंटेलिजेंस सर्विसेज द्वारा जम्मू और कश्मीर में अराजकता फैलाने के लिए मुज़ाहिद्दीनों के रूप आतंकियों भेजता रहा । आज तो कश्मीर व भारत के अन्य हिस्सों में आतंकवाद फैलाने के लिए पाक में अनेक आतंकवादी प्रशिक्षण केंद्र इंटर इंटेलिजेंस सर्विसेज व पाक सरकार की देख-रेख में चल रहे हैं । कश्मीरी युवाओं और अलगाववादी नेताओं को पाकिस्तान द्वारा बड़े पैमाने पर धन व हथियार मुहैया कराया जाता है ताकि वे कश्मीर में दंगे भड़काएं । भारत विरोधी गतिविधियाँ चलायें सुरक्षाबलों पर आत्मघाती हमले करें । बुरहानवानी पाक का नया प्यांदा था । उसकी मौत के बाद जो कश्मीर में हो रहा है । वह पूरी तरह पाक प्रायोजित है । वर्तमान सरकार को राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाते हुए पाकिस्तान और अलगाववादियों द्वारा पालित  भारत विरोधी विद्रोहियों पर कड़ी करवाई करनी चाहिए । बुरहानवानी के मामले में सरकार ने अलगाववादियों और पत्थरबाजों के घायल होने पर विशेष चिंतित दिखी । पर पत्थरबाजों के हमले में 4000 से अधिक सेना और पुलिस के घायल हुए जवानों पर  उतनी चिंता नहीं प्रकट की । वर्तमान में अधिसंख्य भारतीय मीडिया राष्ट्र विरोधी रिपोर्टिंग कर रही है। भारतीय सेना को क्रूर बता रही है। पेलेटगन से घायलों की चिंता सर्वोपरि है । पर पुलिस व सेना पर हमले, उनकी हत्या, उनके कैम्पों व पुलिस स्टेशनों को जलाने की घटनाओं पर मीडिया रिपोर्टिंग मामूली और पक्षपात पूर्ण है । वर्तमान भाजपा सरकार भी राजनीतिक दबाव में दिखी । तभी गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बयान दबे– दबे से आये स्थिति बाद से बदतर हो गयी । बीएसऍफ़ को आख़िरकार लाना पड़ा । पत्थरबाजों पर नरमी भरी पड़ गयी ।इस मामले में भारत को अमेरिका, चीन रूस और इजरायल से सीखने की जरूरत है।कश्मीर मसला तभी सुलझेगा जब कोई राजनेता  राजनीतिक लाभ-हानि से ऊपर उठकर, राष्ट्र हित में साहसिक निर्णय लेगा ।उसे इसके लिए भी तैयार रहना होगा कि कश्मीर समस्या के लिए प्रधानमन्त्री का पद भी दांव पर लगाना पड़े तो वो तैयार रहे । हलाँकि मोदी जी बलूचिस्तान के मामले को उठाकर एक साहसिक व शानदार राजनैतिक कदम उठाया है. इस पर आगे बढ़ते रहने की जरूरत है । ये भारत के हित में है । 
 जम्मू और कश्मीर विधानसभा  में जारी सरकारी आंकड़ों के अनुसार यहां लगभग 3,400 ऐसे मामले थे, जो लापता थे । आतंकी घटनाओं , मुठभेड़ और आंदोलनों में जुलाई 2009 तक 47000 लोग मारे गए ।


गुरुवार, 25 अगस्त 2016

चवन्नी का मेला: अभिव्यक्ति की कला ....जरूरी

चवन्नी का मेला: अभिव्यक्ति की कला ....जरूरी

अभिव्यक्ति की कला ....जरूरी


अभिव्यक्ति भी एक महान व महत्वपूर्ण कला है. आखिर अभिव्यक्ति है क्या ?आज - कल  ''अभिव्यक्ति''शब्द खूब चर्चा में है. "अभिव्यक्ति की आजादी" वाक्य अधिसंख्य लोगों ने सुनी होगी . अभिव्यक्ति अर्थात विचार व्यक्त करना या बोलना. बोलना भी एक महत्वपूर्ण कला है.सही समय पर सही बात कहने पर बात बन जाती है.पर वही बात गलत समय पर बोलने पर बात बिगड़ जाती है.अटल बिहारी वाजपेयी ,अमीन सयानी, हरीश भिमानी,अमिताभ बच्चन, नरेंद्र मोदी,कपिल शर्मा आदि अच्छी अभिव्यक्ति के सफल उदाहरण है. इनकी सफलता में इनकी अभिव्यक्तिक कला का महत्वपूर्ण योगदान है. अन्यथा तमाम बुद्धिमत्ता के बावजूद ये आज सफलता केशिखर पर नहीं होते . यदि आप अभिव्यक्ति की कला में माहिर हैं तो आप के लिए जीवन की राहें आसान हो जायेंगी. पहला प्रभाव व्यक्ति का चेहरा होता है , जिसका प्रभाव क्षणिक होता है. किन्तु दूसरा प्रभाव व्यक्ति की अभिव्यक्ति होती है. जो देर तक प्रभाव रखती है और तीसरा प्रभाव आप का बेहतरीन कर्म या आचरण उस प्रभाव को स्थाई भी बना सकता है. जीवन में जिसके पास ये कला नहीं है उसका विकास कुछ ही क्षेत्रों तक सिमट कर रह जाता है.
यदि आप नेता, अभिनेता, रेडियो उद्घोषक, मंच संचालक, प्रवक्ता, वक्ता, अधिवक्ता जनसंपर्क अधिकारी, कार्यक्रम प्रस्तोता, आदि बनना चाहते हैं. या इन या इन जैसे क्षेत्रों में अपना विकास देखते या देखना चाहते हैं तो अच्छी अभिव्यक्ति का होना पहली आवश्यक योग्यता है. साथ ही विभिन्न सामान्य विषयों पर आप का ज्ञान भी अच्छा  व तर्कपूर्ण होना चाहिए, अन्यथा आप की सफलता संदिग्ध हो जाती है. वैसे अच्छी अभिव्यक्ति हर जगह आप की सहायता करती है. जहाँ भी आप बोलते हैं.आप की बात ध्यान से सुनी जाती है. जिस हेतु आप सामने वाले व्यक्ति से बात कर रहे होते हैं.उस हेतु के सफल होने की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं. कई बार लोगों के काम बनते-बनते बिगड़ जाते हैं क्योंकि वे अपनी बात सामने वाले के समक्ष उचित तरीके से नहीं रख पाते .

एक अच्छी अभिव्यक्ति क्या है या अभिव्यक्ति किसे कहते हैं ?आइये इसकी परिभाषा जाने मेरी समझ के अनुसार....  देश,काल,परिस्थिति को देखते व समझते हुए अपनी बात को कम,अर्थपूर्ण एवं मृदु शब्दों में रखना ही अभिव्यक्ति कहलाती है.

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

हिंदी के जयचंद और विभीषण


दोस्तों आजादी के 70 वर्ष बाद भी भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है, लेकिन आम तौर पर आम आदमी हिंदी को ही भारत की राष्ट्रभाषा समझता है । जबकि यह राजभाषा है। दोनों में एक बड़ा अंतर है। जिसे समझना आवश्यक है। भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है। इन सभी भाषाओं को राष्ट्रभाषा  मान सकते हैं ,अर्थात संविधान के द्वारा मान्यता प्राप्त  सभी भाषाएँ  राष्ट्रभाषा हैं। ऐसा है तो हमारी हिंदी भाषा का क्या महत्व ? इस पर विचार करने की आवश्यकता है ? हिंदी हमारे संघ की राजभाषा है ।   भारत की  राजभाषा के रूप में मान्यता हिन्दी को 1949 में 14 सितंबर को भारतीय संसद द्वारा दी गई. तब से हर वर्ष 14 सितंबर को  राजभाषा पखवाडा, सप्ताह या हिन्दी दिवस, जो भी कहें, मनाया जाता है। राजभाषा वह है जिसे संघ अथवा कोई राज्य अथवा सरकार विधि द्वारा अपने सरकारी कामकाज में प्रयोग के लिए स्वीकार कर ले । यह किसी राज्य में 1 से अधिक भी हो सकती है। संविधान की अष्टम सूची में शामिल सभी 22 भारतीय भाषाएं राष्ट्रभाषायें कहलाती हैं। ये भाषाएँ विभिन्न प्रयोजनों के लिए उपयोग की जाती हैं।यह तो हो गई राजभाषा और राष्ट्रभाषा की बात। अब विषय उठता है कि,भारत की कोई राष्ट्रभाषा क्यों नहीं है ? क्या कोई राष्ट्र बिना राष्ट्रभाषा के हो सकता है ? आखिर एक देश में 22 राष्ट्र भाषाएं कैसे हो सकती हैं ?और यदि हैं तो क्यों? इसके कुछ मूल कारण हैं। जैसे भारत मात्र एक देश नहीं बल्कि एक उपमहाद्वीप है! आजादी से पहले भारत में कई रियासतें और रजवाड़े थे। उनकी अपनी भाषाएं भी थीं। भारत के राज्यों का विभाजन भाषा के आधार पर ही हुआ है। इसलिए भाषा को लेकर कहीं आपसी विवाद में देश बंटवारे या हिंसा का शिकार न हो जाए। मोटा - मोटी उन सभी भाषाओं को राष्ट्रभाषा मान लिया गया। जिनमें प्रचुर साहित्य था, जिनकी अपनी लिपि थी या जिन भाषाओँ के अपने व्याकरण या बोलने वाले, लिखने वाले अधिसंख्य थे, साथ ही कुछ और भी कारक या मानक थे, क्योंकि भाषाई कलह ने ही रशिया के टुकड़े किये और बांग्लादेश का उदभव भी भाषाई लड़ाई का ही परिणाम है।लेकिन सबसे अधिक चलन में हिंदी ही थी। जो कई राज्यों में समान रूप से लिखी और बोली जाती थी और भी कई भाषाएं थीं [हैं] जिनकी लिपि देवनागरी ही थी [है] जिनमें संस्कृत, पालि,  मराठी, कोंकणी, सिन्धी, कश्मीरी, डोगरी, नेपाली,  मैथिली, संथाली जैसी भाषाएं शामिल हैं। पर क्या ऐसे में हम विदेशों में  भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में 22 भाषाओं को प्रस्तुत कर सकते हैं ? मेरा जवाब है नहीं, या कोई विदेशी हमसे पूछे कि आप की राष्ट्रभाषा क्या है ? तो हमारे पास कोई सीधा जवाब न होकर यह कहना पड़ेगा कि  हमारी 22 राष्ट्रभाषाएँ हैं । सामने वाला चकरा जाएगा और हमें उपहास की दृष्टि से देखेगा । कोई एक भाषा ऐसी हो, जिसे हम सभी सवा सौ करोड़ भारतीय गर्व से कह सकें कि हां यह हमारी राष्ट्रभाषा है। बाकी भाषाओं को हम मातृभाषा कह सकते हैं। अन्य भारतीय भाषाओँ की अपेक्षा आज हिंदी का फलक वैश्विक है । उसकी क्षमता किसी भी दूसरी वैश्विक भाषा से अधिक है। राजभाषा होते हुए भी भारत की संपर्क भाषा तो हिंदी ही है।अधिसंख्य लोग जिनकी भाषा हिंदी नहीं है वे दूसरे भाषा - भाषियों से हिंदी में ही बात करते हैं। महाराष्ट्र से लेकर कश्मीर और राजस्थान से लेकर हिमाचल प्रदेश और हैदराबाद से लेकर पंजाब तक सब जगह लोग हिंदी बोलते और समझते हैं।असम में भी काफी संख्या में बिहार के लोग रहते हैं और वहां भी हिंदी की अच्छी संख्या है। वहां से कई हिन्दी अखबार भी निकलते हैं। हां , दक्षिण भारत के कुछ राज्य हैं जहां हिन्दी अभी थोड़ी दुर्बल है, पर उतनी भी नहीं है कि लोग एकदम न समझें।ऐसे में हिंदी को निजी पूर्वाग्रहों और अल्पकालिक स्वार्थों से ऊपर उठकर सामूहिक प्रयास करके, एकता बनाकर, राष्ट्रहित में राष्ट्रभाषा के रूप में संवैधानिक और मानसिक तौर पर मान्यता दिलवानी  चाहिए. ऐसा मेरा मत है।क्योंकि जब हम देश से बाहर जाते हैं तो सबसे पहले हम हमारी राष्ट्र भाषा में संवाद करते हैं लेकिन जिसकी राष्ट्रभाषा ही नहीं है वह किस भाषा में बात करेंगे। जो भी  शिक्षित भारतीय जब भी बाहर जाते हैं अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं। कई विदेशी उनसे पूछते हैं आप की भी राष्ट्र भाषा अंग्रेजी है क्या ? तो भारतीय अक्सर सकपका जाते हैं या शर्मिंदा हो जाते हैं, और फिर दबी जुबान में कहते हैं, नहीं, हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी  है। जबकि वह वहां भी झूठ बोल रहे होते हैं । क्योंकि वास्तव में भारत की कोई एक राष्ट्रभाषा है ही नहीं। भारत की 22 राष्ट्रभाषायें हैं और अगर वह किसी को बताएंगे कि उनकी 22 राष्ट्रभाषायें है तो लोग उन पर हंसेंगे और उस 22 राष्ट्रभाषा होने के कारण बताने में काफी समय चला जाएगा ।
आखिर हिंदी को दुनियाभर में महत्त्व मिल रहा है भारतीय फिल्मों के कारण ,विशाल भारतीय बाजार के कारण और विदेशों में बसे करोड़ों हिंदी भाषियों और भारतीयों कारण । दुनिया के कई  देश है जहां दूसरी भाषा के तौर पर हिंदी प्रयोग की जाती है। जिनमें मॉरिशस,फिजी,गुयाना,सूरीनाम प्रमुख हैं। हमारे पड़ोसी नेपाल में भी काफी लोग हिंदी का प्रयोग करते हैं। पूरा पाकिस्तान एक तरह से हिंदी ही बोलता है उर्दू मिश्रित हिंदी। जिसे हिंदुस्तानी करते हैं । उसे हम भी समझते हैं। श्रीलंका और बांग्लादेश में भी हिंदी की अच्छी पैठ है । हमें अंग्रेजी के बजाय हिंदी को महत्व देना चाहिए। क्योंकि हिंदी हमारे देश की भाषा है। हमारी माँ की भी  भाषा है  और अंग्रेजी उनकी भाषा है जिन्होंने हमें सैकड़ों वर्षो गुलाम बनाए रखा । हमारी परंपराओं, हमारी संस्कृतियों, हमारी शिक्षा को नष्ट - भ्रष्ट कर दिया। जिन्होंने हमारी जड़ो को काटने का काम किया। हमारे हजारों- लाखों भाई बहनों की जान ले ली। उन्हें अपमानित किया। हमारे संसाधनों का दोहन करके वह अपने देश ले गए। क्या हम ऐसे लोगों की भाषा से विकास करेंगे या विकास करना चाहते हैं, जिससे उपनिवेशवाद की बू आती हो ? यह एक भारतीय के तौर पर शर्म की बात है। हमें इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए कि, हम अपनी भाषा में भी बेहतर विकास कर सकते हैं। इस मामले में हम चीन से सीख सकते हैं आज भूमंडलीकरण, भौगोलीककरण और उदारीकरण के काल में चीनी उनकी भाषा नहीं सीखते जो लोग उनके देश में बड़ी संख्या में आ रहे हैं। बल्कि वह उन्हें अपनी भाषा सिखाते हैं, उसका ठीक उल्टा जो विदेशी हमारे यहां आते हैं हम उन्हें अपनी भाषा सिखाने के बदले उनकी भाषा सीख रहे हैं। ओलंपिक खेल आने वाले दिनों में चीन में होंगे, फिर भी चीन अपनी भाषा में ही कार्य कर रहा है और योजनाएं चला रहा है। चीन अन्य भाषाओं को सीखने के बजाए अपनी भाषा सिखाने की व्यवस्था कर रहा है। इसलिए हमें चीन से सीखना चाहिए। अच्छी चीजें कहीं से भी सीखी जा सकती है और हिंदी को कोई बाहरी रोक नहीं रहा है बल्कि कुछ देशी अंग्रेज भारतीय हैं जो हिंदी को राष्ट्रभाषा ही नहीं, बल्कि विश्वभाषा बनने से रोक रहे हैं। वह अंग्रेजी दा  नहीं चाहते कि हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा बने। क्योंकि यदि हिंदी राष्ट्रभाषा बन जाएगी तो तमाम सरकारी, अर्ध सरकारी कार्य, संसदीय कार्य, न्यायालयीन कार्य सब हिंदी में होने लगेंगे ।  प्रशासनिक प्रतियोगी परीक्षाएं भी हिंदी में होंगी। ऐसे में आम आदमी के बच्चे शासन - प्रशासन में काबिज हो जाएंगे और अंग्रेजीदा के अँग्रेज बच्चे व्यवस्था से बाहर हो जाएंगे। क्योंकि जैसे आम आदमी को अंग्रेजी नहीं आती वैसे 5 प्रतिशत इन खास लोगों के बच्चों को और इनको ढंग की  हिंदी नहीं आती। क्योंकि इन्हें आम आदमी से कोई सरोकार ही नहीं है । तो यह आम आदमी की भाषा क्यों सीखेंगे ?आम आदमी से इन्हें इतनी ही जरूरत होती है जितनी एक साहब को एक चपरासी से ।इससे ज्यादा ये आम आदमी को महत्व भी नहीं देते।   इनका न्याय अंग्रेजी में, इनकी प्रशासनिक, सचिव, विदेश सेवा, जिलाधिकारी, आयुक्त आदि की परीक्षाएं अंग्रेजी में, संविधान अंग्रेजी में, आवेदन तक अंग्रेजी में, फिर आम आदमी हिंदी पढ़कर कैसे व्यवस्था में अपनी पैठ बना सकेगा ? यही कारण है कि आज हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है।यह वास्तव में अंग्रेजों के जमाने में ऊंचे पदों पर बैठे हुए  भारतीय रहे हैं इन्होंने ही भारत की अस्मिता के खिलाफ, भारत की स्वतंत्रता के खिलाफ, अंग्रेजो के लिए जय चन्दों और विभीषणों की तरह काम किया। ऐसे में अंग्रेजों ने जाने से पहले अपने पिट्ठुओं के लिए, अंग्रेजी को व्यवस्था में घुसा कर गए और आज तो इतने गहरे तक घुस गई है कि उस गुफा में आम आदमी का पहुंचना बेहद मुश्किल है। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए कई बार कमेटियां गठित की गई। लेकिन उस कमेटी में सारे के सारे अंग्रेजीदा पुराने विभीषण और जयचंद थे। इसलिए उन्होंने अनेकों कारण हिंदी के खिलाफ दिए कि फला - फला कारणों से हिंदी अभी 10-15 वर्षों के लिए राष्ट्रभाषा नहीं बनाई जा सकती। इसी तरह जब भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए प्रयास हुए।  विभीषण और जयचंदों की एक कमेटी बना दी जाती थी और वह फिर 10 - 5 वर्षों के लिए कई सारे कारण अंग्रेजी के पक्ष में और हिंदी के विपक्ष में देकर हिंदी को पटखनी दे देते थे । मुझे महापंडित राहुल सांकृत्यायन की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं। उन्होंने एक बार हिंदी और विकास नामक लेख में लिखा था कि - यदि किसी समाज का निम्न वर्ग उन्नति करेगा। तभी पूरा समाज उन्नति करेगा और उसके उत्थान का यह कार्य किसी विदेशी भाषा के माध्यम से संभव नहीं । क्योंकि भाषा का सवाल सीधे  रोटी का सवाल होता है। एक दूसरे लेख "हिन्दी के विभीषण" में लिखते हैं - जो आजाद भारत में भी अंग्रेजी का मोह नहीं छोड़ पा रहे और ख़ूब पैसा खर्चा करके अंग्रेजी पढ़ाते हैं। वह हिंदी को क्यों पसंद करने लगे ? ऊंची नौकरियों की प्रतियोगिता के लिए हिंदी या प्रादेशिक भाषाओं को माध्यम मान लेने पर सब धान बाईस पसेरी हो जाएगा । कानवेंट की घुट्टी पिलाने वाले या यूरोपियन स्कूलों में पढ़ने वाले लड़कों के पास ही प्रतिभा की इजारेदारी है, यह कोई नहीं मानेगा। हिंदी में प्रतियोगिता होने पर उनके लिए सफलता अत्यंत संदिग्ध है । इसलिए उनके माता-पिता जिनमें देव - महादेव से लेकर बड़े-बड़े नौकरशाह तक शामिल हैं । कभी पसंद नहीं करते कि अंग्रेजी हटे। एक जगह वह लिखते हैं - चाहे दिल्ली के देवता कितने ही शाप देते रहें, अपनी मातृभाषा और मातृ संस्कृत के प्रति लोगों का प्रेम कम नहीं हो सकता ।
यदि हिंदी राष्ट्रभाषा बनती है तो सबसे पहले अंग्रेजो के पिठ्ठू रहे और आज की व्यवस्था को संचालित करने वाले अधिकारी, प्रशासन खुद व्यवस्था से बाहर हो जाएंगे। 95%आम आदमी शासन-प्रशासन में अपनी हिस्सेदारी सहजता से पा लेगा और यह 5% देश को हांकने वाले बाहर हो जाएंगे। तब आएगा असली लोकतंत्र , असली आजादी, वास्तविक विकास, लेकिन उससे इन 5%लोगों की लूट, मौज, तानाशाही खत्म हो जाएगी। जो यह किसी कीमत पर होने नहीं देना चाहते । फिर चाहे वह आई ए यस हों आई आर यस हों उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में बैठे जज हों या उच्च शिक्षा समितियों, आयोगों में बैठे बड़े-बड़े अंग्रेजीदा हों , इन्होंने ही आम आदमी के  विकास की राह रोक रखी है। इन्हें यहां से हटाना होगा, तभी हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा हो सकेगी। उसके बाद तो दुनिया हिन्दी को हाथों - हाथ  लेगी। उसके बगैर उनका काम ही नहीं चलेगा। 130 करोड़ लोगों को कोई कैसे अनदेखा कर सकता है ? और वह भी बाजारवाद के युग में । जब चारों तरफ हाहाकार मचा है । ऐसे में भारत करीब आठ प्रतिशत की दर से दौड़ रहा है। ऐसे में जिसको बाजार में खड़ा होना है, भारत के साथ व्यापार करना है। भारत की भाषा सीखेंगे। वैसे भी दुनिया के करीब डेढ़ सौ देशों में हिंदी पढ़ाई जाती है। बाकी आंकड़े तो बहुत कुछ हैं और उन पर बहुत कुछ बातचीत भी की जा सकती है। लोग मूल विषयों पर तो कभी बात नहीं करते।मूल विषय हैयह है कि सभी कार्य भारतीय भाषाओं में किए जाएं। द्विभाषा सूत्र लागू किए जाएं। हिंदी दूसरी राज्य भाषा हो। तीसरी भाषा ''अंग्रेजी'' वैकल्पिक कर दी जाए। यदि उसे हटा नहीं सकते तो। बीस साल बाद जो नई पीढ़ी आएगी। उसे सिर्फ और सिर्फ हिंदी से प्यार होगा। अपनी मातृभाषा से प्यार होगा । वह लिखेगा, बोलेगा, पढ़ेगा ,रोजगार पाएगा और हंसेगा या रोयेगा भी तो अपनी मातृभाषा या राष्ट्रभाषा में। उसे कहने की जरूरत नहीं होगी और उसे भाषा की, संस्कार की घुट्टी भी पिलाने की जरूरत नहीं होगी। बस! हिंदी और देश की दूसरी भाषाओं को रोजगार से जोड़ दिया जाए, शिक्षा और रोजगार से  बाहर जिस दिन अंग्रेज़ी  होगी, उसी दिन वास्तव में देश विकास करेगा। इतनी तेजी से की कि दुनिया के सारे देश पीछे छूट जाएंगे ।

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रविवार, 21 अगस्त 2016

आइये सुर्यवर्चा,बर्बरीक और खाटूश्याम से एक साथ मिलें

बर्बरीक कथा
 
 मित्रों बर्बरीक मेरे प्रिय पौराणिक पात्र हैं.  आज मैं कविता कहानी से इतर भीम के पौत्र बर्बरीक की कहानी आप के साथ अपने अंदाज में कहूँगा ..... तो आइये मेरे साथ सुर्यवर्चा अर्थात बर्बरीक उर्फ़ सुहृदय अर्थात खाटूश्याम की अद्भुत कहानी सुनिए.... मित्रों पांडु पुत्र महाबली भीम एक बार जंगल में अपनी माता सहित सो रहे भाइयों की सुरक्षा हेतु पहरा दे रहे थे. उसी जंगल में हिडिम्ब नामक राक्षस रहता था. जो काफी दूर से ही मनुष्यों की गंध पहचान लेता था. उसे पता चल गया कि इसी जंगल में आसपास मनुष्य हैं. उसने अपनी बहन जिसका नाम हिडिम्बा था, उसे उन मनुष्यों को खोजकर उन्हें मारकर  भोजन के रूप में लाने कहा.... हिडिम्बा की खोज पहरा दे रहे भीम के पास पहुँच कर ख़त्म हो गयी. भीम की खूबसूरती देखकर हिडिम्बा मोहित हो गयी और भीम को मारने का खयाल त्याग दी. भीम ने हिडिम्बा को आने का कारण पूछा तो उसने सच-सच बता दिया. इस बीच जब काफी देर बाद भी हिडिम्बा वापस हिडिम्ब के पास भी नहीं पहुँची तो वह स्वयं   खोजते हुए भीम के पास आ पहुँचा .यहाँ जब देखा कि उसकी बहन भीम से प्रेम की बातें कर रही है तो वह गुस्से में अपनी ही बहन को मारने दौड़ा. इस पर भीम ने हिडिम्ब को ललकारा.... औरत पर क्या हमला करता है दम है तो मुझसे लड़. फिर क्या था. भीम ने हिडिम्ब को यमलोक पहुँचा दिया. इस बीच भीम की माँ और सारे भाई जाग गये. सारा मामला पता चलने पर कुंती की आज्ञा से हिडिम्बा और भीम का विवाह हो गया.एक साल उस जगह भीम हिडिम्बा के साथ रहे और फिर  हिडिम्बा को छोड़कर भाइयो साथ चले गये. कुछ दिनों बाद हिडिम्बा को पता चला वह गर्भ से हैं समय आने पर हाथी के मस्तक जैसा सिर वाला पुत्र पैदा हुआ. उसके सिर पर बाल भी नहीं थे और वह पैदा होते ही बड़ा हो गया. इसलिए हिडिम्बा ने उसका नाम घटोत्कच रखा अर्थात घट का अर्थ हाथी के जैसा मस्तक वाला और उत्कच का अर्थ गंजा सिर या बिना बालों वाला सिर.
  पैदा होते ही घटोत्कच ने अपने बारे में पूछा.... हिडिम्बा ने बताया कि वह पांडु पुत्र महाबली भीम का पुत्र है. हिडिम्बा ने उसे पांडवो का आशीर्वाद लेने भेजा.जिस समय वह इन्द्रप्रस्थ पांडवों का आशीर्वाद लेने पहुँचा. उस समय वहां  भगवान श्रीकृष्ण भी मौजूद थे. घटोत्कच ने सबको प्रणाम किया और अपना परिचय दिया. सब बेहद प्रसन्न हुए. इसी बीच बातों -बातों में युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण


से घटोत्कच के लिए एक सुंदर वधू की चर्चा की. भगवान कृष्ण ने कहा कि प्रागज्योतिषपुर
 में एक सुंदर, अद्भुत पराक्रम वाला मुर दैत्य रहता था वह मेरे हाथों मारा गया.
मित्रों प्रागज्योतिषपुर आज के असम का गोहाटी शहर है. उस के मारे जाने पर उस की पुत्री कामकंटिका जिसे मोरवी या अहिलावती भी कहते हैं. मुझसे युद्ध करने के लिए आई. मेरा उससे भयानक युद्ध हुआ पर मैं उसे हरा न सका. मेरा सारंग धनुष भी उसके सामने नहीं टिका .तब मैंने उस का वध करने के लिए अपना आख़िरी अस्त्र सुदर्शन चक्र उठाया. यह देख कामाख्या देवी मेरे सामने आकर खड़ी हो गई. और बोली.... पुरुषोत्तम आप को इसका वध नहीं करना चाहिए. मैंने इसे वरदान स्वरूप खड्ग एवम् खेटक प्रदान किए हैं । जो अजेय हैं। कामाख्या देवी के ऐसा कहने पर मैंने युद्ध से अपने आप को अलग कर लिया और मोरवी ने भी युद्ध बंद कर दिया. मित्रों कामाख्या देवी ने मोरवी से कहा कि युद्ध में भगवान कृष्ण को कोई भी नहीं मार सकता. संसार में कोई वीर न तो हुआ है और न होगा जो. इसे युद्ध में श्रीकृष्ण से जीत सके. साक्षात भगवान शंकर भी इन्हें परास्त नहीं कर सकते.
मोरवी से कामाख्या माता ने कहा - यह तुम्हारे भाभी ससुर  भी हैं इसलिए तुम युद्ध से हट जाओ।  भविष्य तुम इनके भाई भीमसेन के पुत्र घटोत्कच की पत्नी होगी.  इसलिए अपने ससुर समान भगवान कृष्ण का आदर करो और तुम्हें अपने पिता के वध का शोक नहीं करना चाहिए. क्योंकि इनके हाथ से मृत्यु होने पर तुम्हारे पिता सभी पापों से मुक्त होकर वैष्णो धाम को चले गए. कामाख्या देवी के ऐसा कहने पर मोरवी ने क्रोध त्याग कर भगवान कृष्ण को प्रणाम किया. तब भगवान कृष्ण ने कहा बेटी तुम भगवती से सम्मानित होकर इसी नगर में निवास करो. यहां रहती हुई तुम हिडिम्ब कुमार को अपने पति के रुप में प्राप्त करोगी।
  मित्रों इस तरह सारी कथा भगवान कृष्ण युधिष्ठिर को बताकर द्वारिका चले आये. कुछ दिनों बाद युधिष्ठिर पांडवो और घटोत्कच सहित द्वारिका गये तो फिर घटोत्कच के विवाह की बात चली . भगवान कृष्ण ने कहा – घटोत्कच के लिए मोरवी योग्य वर है वह बेहद सुन्दर है.उसके सौंदर्य का वर्णन करना मेरे लिए ठीक नहीं होगा. क्योंकि मैं उसका ससुर लगता हूं. हाँ एक बात और उसने भी प्रतिज्ञा की है कि अगर उसे कोई निरुत्तर कर के जीत ले तो ही वह उससे विवाह करेगी अन्यथा उसको मौत के घाट उतार देगी. उसके पास बहुत से दैत्य और राक्षस विवाह के चक्कर में गये भी किंतु मोरवी ने सब को युद्ध में हरा दिया और बेचारे जीवित नहीं बचे।
मित्रों भगवान कृष्ण की यह बात सुन  युधिष्ठिर बोले - हे प्रभु, मेरा बेटा तो शुद्ध ठीक से बोलना भी नहीं जानता. हमारे कुल का सबसे बड़ा बेटा है. दुनिया में और भी स्त्रियां हैं कोई दूसरी स्त्री बताइए. इस पर भीम बोले- जब कृष्ण जी ने बताया है तो जरूर हमारे बेटे में कुछ बेहतर होगा. घटोत्कच जरूर मोरवी से ब्याह करेगा. इस पर अर्जुन ने कहा जब कामाख्या देवी ने मोरवी से कहा है कि भीमसेन का पुत्र ही तुमसे विवाह करेगा, तो मेरी राय है कि घटोत्कच को वहां जाना चाहिए. इस पर कृष्ण भगवान बोले मुझे तुम्हारी और भीम की बात पसंद है. हिडिम्ब कुमार बोलो- तुम्हारी क्या राय है ? घटोत्कच ने पूजनीय पिता और भगवान श्रीकृष्ण से हाथ जोड़कर कहा कि- मैं ऐसा प्रयास करूंगा कि आपका सम्मान समाज में बना रहे और आप को लज्जित न होना पड़े. मेरे पिता का निर्मल यश बना रहे. इतना कहकर घटोत्कच ने सब को प्रणाम किया और फिर अपने पितरों को प्रणाम किया। घटोत्कच ने जब वहां से प्रस्थान किया तो भगवान कृष्ण ने कहा बेटा तुम्हारी अभेद्य बुद्धि को मैं अभिलंब बढ़ा दूंगा. बस युद्ध के समय तुम जरूर याद करना. ऐसा कहके भगवान कृष्ण ने उसे गले लगा लिया और आशीर्वाद दिया. उसके बाद घटोत्कच सूर्य, बालासोर और महोदर इन तीन सेवकों के साथ आकाश मार्ग से चला और दिन बीतते- बीतते प्रागज्योतिषपुर में जा पहुंचा. वहां जाने पर घटोत्कच ने एक अच्छा सा सुंदर सा महलनुमा घर देखा. मेरु पर्वत के शिखर पर सुशोभित होने वाला महल देख करके  घटोत्कच बेहद खुश हुआ. दरवाजे पर एक सुंदर स्त्री खड़ी थी. जिसका नाम कर्णप्रावरणा था। घटोत्कक्ष ने उस सुंदर स्त्री से पूछा मूर की बेटी कहां है ? मैं बहुत दूर से आया हूं और उसकी इच्छा पूरी करने वाला अतिथि हूं और उसे देखना चाहता हूं. उसकी बात सुनकर वह स्त्री दौड़ते हुए महल में गई और मोरवी को बोली – मोरवी जी कोई सुंदर, खूबसूरत अतिथि द्वार पर खड़ा है. काफी सुंदर है. मुझे लगता है कि वैसा तीनों लोगों में कोई नहीं होगा. उसके लिए मेरा क्या कर्तव्य है आज्ञा दीजिए. कामकंटिका बोली- जल्दी जाओ... देर क्यों करती हो ? क्या पता देव ने उसे मेरी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए भेजा हो ? मोरवी के ऐसा कहने पर वह घटोत्कच के पास जाकर बोली - अतिथि तुम अंदर आओ... और घटोत्कक्ष अंदर आया .अपना धनुष उसने दरवाजे पर ही छोड़ दिया.  मोरवी को देख कर घटोत्कच ने मन ही मन सोचा मेरे पिता समान कृष्ण ने मेरे लिए सही लड़की ढूंढी है... उसका शरीर विद्युत की तरह चमक रहा था. मोरवी को देख कर घटोत्कच ने चिढाते हुए कहा- हे बज्र के समान कठोर शरीर वाली निष्ठुर स्त्री, तुम्हारे घर अतिथि आया है. उसका उचित साक्षत्कार नहीं करोगी. अपने हार्दिक भाव के अनुसार तो करो..
मित्रो इस तरह की भाषा और अपनी निंदा सुनकर कामकंटिका  क्रोध से बोली - हे भद्र पुरुष, तुम व्यर्थ  ही यहां चले आए. जीते - जी सुखपूर्वक लौट जाओ. यदि मुझे चाहते हो और जिन्दा भी रहना चाहते हो  तो शीघ्र कोई कथा कहकर यदि मुझे तुम सकते या संशय में डाल दोगे तो मैं तुम्हारे बस में हो जाऊंगी उसके बाद तुम्हारी सेवा होगी. उसके ऐसा कहने पर घटोत्कच ने तुरन्त भगवान श्रीकृष्ण को याद कर कथा प्रारंभ की. मित्रों कथा इस प्रकार
 मालू की पत्नी के गर्भ से कोई बालक उत्पन्न हुआ जो युवा होने पर अजितेंद्रिय निकला और उस युवक को एक बेटी हुई और उसकी बीवी मर गई. तब उसने अपनी पुत्री की रक्षा और पालन पोषण पिता ने ही किया. लड़की जब जवान हो गयी . तब अपनी ही बेटी पर बाप की बुरी नजर हो गयी. ऐसे में उस पापी बाप ने अपनी ही बेटी से कहा- प्रिये तुम मेरी पड़ोस की लड़की हो.बचपन में ही तुम्हारे माता –पिता गुजर गये थे. मैंने तुम्हें अपनी पत्नी बनाने के लिए यहां लाकर दीर्घकाल तक पालन पोषण किया है. अब मेरा अभीष्ट कार्य सिद्ध करो. ऐसा कहने पर उस लड़की ने ऐसा ही माना. उसने उसे पति रूप में स्वीकार किया और उसने उसे पत्नी के रूप में. उसके बाद उस लड़की के गर्भ से एक कन्या उत्पन्न हुई. अब बताओ ? कन्या उसकी क्या लगेगी ? पुत्री अथवा दमित्री. यदि तुम में शक्ति है तो मेरे प्रश्न का उत्तर दो ? मित्रों यह प्रश्न सुनकर मोरवी का दिमाद चकरा गया. उसने ने अपने हृदय में अनेक प्रकार से विचार किया किंतु किसी प्रकार से उसे इस प्रश्न का निर्णय नहीं सुझा. खुद को हारते देखकर चालाकी से जैसे ही तलवार लेने दौड़ी. फुर्ती से लपककर घटोत्कच ने उसके बाल पकड़ लिए और धरती पर गिरा दिया. फिर उसके गले पर बायाँ हाथ रखकर और दाहिने  हाथ में कथनी से उसकी नाक काट लेने का विचार किया. मोरवी ने बहुत हाथ पैर मार है किंतु अंत में शिथिल होकर उसने मन्द्सुर में कहा- नाथ मैं तुम्हारे प्रश्न से और शक्ति तथा बल से परास्त हो गई हूं. मैं तुम्हारी दासी हूं. जो आज्ञा दो! वही करूंगी. घटोत्कच ने कहा- ऐसी बात है तो चलो मैंने तुम्हें छोड़ दिया. घटोत्कच के छोड़ देने पर कामकंटिका ने पुनः उसे प्रणाम किया और कहा महाबाहो- मैं जानती हूँ ,तुम बड़े वीर हो, त्रिलोकी में कहीं भी तुम्हारे पराक्रम की कोई सानी नहीं है. तुम इस से पृथ्वी पर साठ करोड़ राक्षसों के स्वामी हो. यह बात मुझे कामाख्या देवी ने बताई थी वह सब आज याद आ रही है. मैं अपने सेवकों और धन के साथ अपना सारा घर तुम्हारे चरणों में समर्पित करती हूं. प्राणनाथ मुझे आज्ञा दो ! मैं किस आदेश का पालन करूं ? घटोत्कच ने कहा -मोरवी जिसके पिता और भाई बंधु मौजूद हैं उसका विवाह छिपकर हो यह किसी प्रकार से उचित नहीं है. इसलिए तुम शीघ्र मुझे इंद्रप्रस्थ ले चलो यही हमारे कुल की परिपाटी है. इंद्रप्रस्थ में गुरुजनो की आज्ञा लेकर मैं तुमसे विवाह करूंगा. तदंतर मोरवी अनेक प्रकार की सामग्री साथ लेकर घटोत्कच को अपनी पीठ पर बिठाकर इंद्रप्रस्थ में ले आई.[ मित्रों आज के जमाने में ऐसी पत्नी मिलेगी?] भगवान कृष्ण और पांडवों ने घटोत्कच का अभिनंदन किया. उसके बाद शुभ मुहूर्त में भीम के पुत्र और मोरवी का पाणिग्रहण हुआ. कुंती, द्रौपदी दोनों ही वधू को देखकर बहुत ही खुश हुई. विवाह हो जाने पर राजा युधिष्ठिर ने घटोत्कच का आदर सत्कार करके अपने राज्य जाने का आदेश दिया. हिडिम्बा कुमार अपनी राजधानी चला आया. वहां मोरवी के साथ काफी दिनों तक आनंद से जीवन बिताया. कुछ समय बाद मोरवी के गर्भ से महा तेजस्वी सूर्य के समान कांतिमान बालक उत्पन्न हुआ. वह जन्म से लेते ही युवावस्था को प्राप्त हो गया. उसने माता -पिता से कहा- मैं आप दोनों को प्रणाम करता हूं. बालक के आज गुरु माता पिता ही हैं. अतः आप दोनों के दिए हुए नाम को मैं ग्रहण करना चाहता हूं. तब घटोत्कच ने अपने पुत्र को छाती से लगाकर कहा- बेटा तुम्हारे केश बर्बराकार अर्थात घुघराले हैं. इसलिए तुम्हारा नाम बर्बरीक होगा. तुम अपने कुल का नाम बढ़ाने वाले होगे. तुम्हारे लिए जो सबसे कल्याण दायक है उसके लिए हम लोग द्वारिकापुरी चलकर भगवान कृष्ण से पूछेंगे. उसके बाद घटोत्कच्छ अपने बेटे को लेकर द्वारिका गए. वहां पर उन्होंने उग्रसेन, वासुदेव साथ ही अक्रूर, बलराम और सभी यदुवंशियों को प्रणाम किया. पुत्र सहित घटोत्कच को अपने चरणों में देखकर भगवान कृष्ण ने उसे और उसके पुत्र को छाती से लगाकर आशीर्वाद दिया। घटोत्कच ने भगवान श्री कृष्ण से कहा कि - हे प्रभु मेरे बेटे के मन में कुछ प्रश्न हैं जो पूछना चाहता है- भगवान कृष्ण ने कहा ठीक है पूछो बेटा- बर्बरीक ने भगवान को प्रणाम करते हुए पूछा - हे भगवान संसार में उत्पन्न हुए लोगों का कल्याण किस साधन से होता है.
 मित्रों भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को  अनेक प्रकार से उत्तर देकर संतुष्ट कर दिया. उसके बाद बर्बरीक को समझाते हुए भगवान बोले - तुम क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए. तो अपना कर्तव्य सुनो. पहले तुम ऐसी शक्ति प्राप्ति के लिए साधना करो. जिसकी कहीं तुलना नहीं हो . फिर उससे दुष्टों का दमन और साधु पुरुषों का पालन करो. ऐसा करने से तुम्हें स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी. बेटा देवों की अत्यंत कृपा होने से ही बल प्राप्त होता है. इसलिए तुम बल प्राप्त करने के उद्देश्य से देवी की आराधना करो. बर्बरीक ने पूछा प्रभु में किस क्षेत्र में? किस देवी की ? और कैसे आराधना करूं? किस प्रकार? ऐसा पूछने पर भगवान दामोदर ने कहा महिसागर संगमतीर्थ में जो गुप्त क्षेत्र के नाम से विख्यात है. वहां जाकर उनकी आराधना करो. वहीं नारद जी द्वारा बुलाई हुई नवदुर्गा में निवास करती हैं। वहां जाकर उनकी आराधना करो. उसके बाद भगवान कृष्ण ने घटोत्कच से कहा हे भीम नंदन तुम्हारा बेटा बहुत ही सुंदर हृदय वाला है. इसलिए मैंने इसे ‘’सुहृदय’’ यह दूसरा नाम प्रदान किया है। यह कह कर भगवान कृष्ण ने बर्बरीक को गले से लगा लिया और उसे अनेक प्रकार का उपहार देकर विदा किया. बर्बरीक ने वहां बैठे सभी यादवों को प्रणाम कर गुप्त क्षेत्र के लिए प्रस्थान किया और घटोत्कच्छ की इंद्रप्रस्थ लौट आये. लगातार विधि विधान पूर्वक 3 वर्षों तक आराधना करने पर देवी बहुत प्रसन्न हुई और प्रत्यक्ष दर्शन देकर दुर्लभ शक्ति प्रदान की.
मित्रों दुर्गा देवी ने बर्बरीक को वहीं कुछ दिनों तक रुकने को कहा- माँ दुर्गा ने बर्बरीक को बताया इस गुप्त क्षेत्र में कुछ ही दिनों में विजय नामक एक ब्राम्हण आयेंगे. वे हमारे परम भक्त हैं. वे यहाँ देवी पूजन करेंगे.तुम्हें उसे निर्विघ्न सम्पन्न करना है.अगले ही दिन विजय ब्राह्मण आ गये और पूजा की तैयारी शुरू की. विजय ने भीम पुत्र बर्बरीक से कहा तुम निद्रा रहित एवं पवित्र हो. देवी के स्तोत्र का पाठ करते हुए यहीं रहो. जिससे जब तक मैं यह विद्या साधन सम्पन्न न कर लूँ.  तब तक किसी प्रकार का देखना  विघ्न न आने पाए. विजय के ऐसा कहने पर महाबली बर्बरीक खड़ा हो गया। तब विजय ने गुँ  गुरुभ्यो नमः, इस मंत्र से गुरुओं को नमस्कार किया और उसके बाद अष्टोतरशत बार जाप करने के बाद उसने भगवान गणेश का मंत्र पढ़ा।ॐ गां गीं गूं गैं गौं गः। पूजा के समय रात में दो राक्षस आए बारी - बारी से जिन्हें बर्बरीक भगा दिया. बाद में रेपलेंद्र  नामक राक्षस यज्ञ करते हुए विजय की तरफ दौड़ा. उसका शरीर एक जोजन लंबा था और उसके सौ पेट और सौ सर थे। उसके मुंह से आग निकल रही थी. बर्बरीक भी उसकी तरफ दौड़ा और दोनों ने काफी देर तक युद्ध हुआ और अंत में उसे बर्बरीक मार डाला और अग्नि कोण में महिसागर के तट पर फेंक दिया. रात के तीसरे पहर में एक राक्षसी आई जिसका आकार पर्वत की तरह था. जब वह चलती थी तो पृथ्वी हिल रही थी और जोर जोर से चिल्लाती थी उसका नाम द्रुह्दृहा था। बर्बरीक ने हंसते हुए उसे रोक लिया और फिर पकड़ कर धरती पर पटक दिया और गला दबा कर मार डाला. चौथे पहर में एक राक्षसी सन्यासी का रूप धारण कर सिर मुडाई दिगंबर भेष में आई और भारी भक्त होने का नाटक करने लगी. उसने यज्ञ को भ्रष्ट बताया .अहिंसा ही परम धर्म है. यह आग क्यों जलाया ? इस में छोटे जीव जल कर मर जाते हैं और पाप होता है. बर्बरीक बोला- आहुति देने से देवताओं की तृप्ति होती है.. तू झूठ बोल रहा है... तू कौन है...? और बर्बरीक ने उसे गुस्से से मारना शुरू किया. उसके दांत तोड़ दिए. फिर उसने अपना असली रूप दिखाया. फिर दोनों में बड़ा युद्ध हुआ. दैत्य बर्बरीक से छुड़ाकर एक गुफा में भाग गया. वह गुफा पाताल में खुलती थी. बहूप्रभा नामक नगरी में वह दैत्य रहता था. बर्बरीक पीछा करता हुआ वहां पहुंच गया. उसे देखकर बड़ी भारी संख्या में पलासी नामक दैत्यों ने बर्बरीक पर हमला कर दिया. चारों तरफ हाहाकार मच गया. बर्बरीक ने बड़ी बहादुरी से युद्ध किया. किसी का गला तोड़ दिया. किसी की छाती फाड़ दी. बर्बरीक ने अपनी बहादुरी से कोहराम मचा दिया. पलासी दैत्यों का समूल नष्ट कर दिया. राक्षसों को मारे जाने पर बासुकी नाग आए और बर्बरीक की स्तुति किए. क्योंकि वह भी प्लासी दैत्यों से पीड़ित थे। बर्बरीक उसके बाद पृथ्वी लोक लौट आए. विजय का यज्ञ पूरा हुआ और उन्होंने सभी सिद्धियां प्राप्त कर ली. उसके बाद वहां से बर्बरीक अपने घर के लिए प्रस्थान किए रास्ते में चंडिकाधाम में रुक गये. तभी पांचो पांडव वहां पहुंचे. वहां चंडीदेवी का मंदिर था पांडवों ने देवी का दर्शन कर वहीं विश्राम करना चाहा. चंडी देवी के गण भी वहां थे। बर्बरीक ने पांडवों को नहीं पहचाना और ना ही पांडवो ने बर्बरीक  को। तभी बर्बरीक ने भीम को तालाब में घुसकर हाथ-पैर धोते देखा तो उन्हें बुरा लगा. बर्बरीक ने भीम से कहा  पानी लेकर बाहर हाथ पैर धोइए. तालाब का पानी दूषित हो जायेगा यह नदी नहीं है. भीम ने बर्बरीक कीबात को अनसुना कर दिया. फिर क्या बातों – बातों में बात बढ़ गयी और दादा पोते में युद्ध शुरू हो गया.बहुत देर तक घमासान युद्ध हुआपर धीरे- धीरे भीम कमजोर पड़ने लगे.आखिरकार घटोत्कच भीम को दोनों हाथों से उठाकर समुद्र में फेकने कि लिए समुद्र की तरफ दौड़ा.तभी भगवानशंकर ने आकाशवाणी की...हे बर्बरीक जिन्हें तुम समुद्र में फेकने जा रहे हो वह तुम्हारे पितामह और घटोत्कच के पिता भीम हैं.इन्हें छोड़ दो.
आकाशवाणी सुनकर बर्बरीक बड़ा लज्जित व दुखी हुआ.उसने भीम को जमीन पर तुरन्त उतार दिया. हाथ जोड़कर क्षमा मांगी. अपने पितामह के साथ दुर्व्यवहार और उनके हत्या के प्रयास से बर्बरीक इतना ग्लानी से भर गया कि उसने समुद्र में डूबकर आत्महत्या करने के लिए समुद्र की ओर तेजी से बढ़ा... भीम पीछे- पीछे पुत्र-पुत्र पुकारते हुए आये. बर्बरीक को आता देख समुद्र भी डर गया.वह सोंच में पड़ गया कि कैसे मैं बरबरीक की जान लूँगा. तभी भगवती सिद्धम्बिका और भगवान रूद्र ने आकर बरबरीक से कहा – तुमसे यह गलती अनजाने में हुई हैं तुम्हें तो मालूम ही नहीं था कि भीम तुम्हारे पितामह हैं. अनजाने में किये पाप से दोष नहीं लगता. तभी भीम ने आकर बरबरीक को गले लगा लिया. भीम बोले – अगर तुम जीवित नहीं रहोगे तो मैं भी तुम्हारे साथ प्राण त्याग दूंगा.तब जाकर बरबरीक ने उदास मन से आत्महत्या का विचार त्याग दिया. फिर सभी पांडवों ने बर्बरीक को स्नेह किया एवं आशीर्वाद दिया.
मित्रों उसके बाद बर्बरीक अपने पिता के पास लौट गया.एक लम्बे समय बाद जब महाभारत युद्ध की तैयारियाँ चल रही थी और इस होनेवाले विश्वयुद्ध की  की चर्चा चारो दिशाओं में फैल गयी. ऐसे में ये जानकारी बर्बरीक तक भी पंहुँची. उसने भी युद्ध में भाग लेने की इच्छा अपनी माता मोरवी से जताई.. मोरवी ने अपने पुत्र बर्बरीक से कहा – तुम युद्ध में अवश्य भाग लो पर युद्ध उसकी तरफ से करना जो हार रहा हो .... बर्बरीक जब युद्ध के मैदान कुरुक्षेत्र की तरफ घोड़े पर सवार होकर बढ़ा तो अन्तर्यामी श्रीकृष्ण को पता चल गया. वे रास्ते में ही उसे रोक लिए और पूछे तुम किसकी तरफ से युद्ध करोगे. बर्बरीक ने कहा जो हारनेवाला होगा उसकी तरफ से.... कृष्ण जानते थे कि कौरव हारेंगे... उन्होंने पूछा तुम इस युद्ध को कितने दिन में जीत सकते हो. बर्बरीक ने कहा कुछ पलों में. उसने अपने तीन अमोघ बाण दिखाए. एक लाल बाण जो दुश्मनों को चिन्हित करेगा. दूसरा उनको मारेगा. तीसरा अपने पक्ष के लोगों को बचाएगा. इसी बीच अचानक कृष्ण ने बर्बरीक का सिर सुदर्शन चक्र से काट लिया.
[ मित्रों कृष्ण द्वारा बर्बरीक के सिर काटने का कारण उसका पूर्व जन्म का श्राप था.पूर्व जन्म में बर्बरीक स्वर्गलोक में सुर्यवर्चा नामक यक्ष /गंधर्व था. उस समय नरका सुर और मूर दैत्य का बेहद आतंक था मूर दैत्य के अत्याचारों से व्यथित हो पृथ्वी अपने गौस्वरुप में देव सभा में उपस्थित हो बोली- हे देवगण! मैं सभी प्रकार का संताप सहन करने में सक्षम हूँ.... पहाड़, नदी, नाले एवं समस्त मानव जातिका भार मैं सहर्ष सहन करती हुई अपनी दैनिक क्रियाओं का संचालन भली भांति करती रहती हूँ,पर मूर दैत्य के अत्याचारों एवं उसके द्वारा किये जाने वाले अनाचारो से मैं दुखित हूँ,... आप लोग इस दुराचारी से मेरी रक्षा करो, मैं आपकी शरणागत हूँ... 
गौस्वरुपा धरा की करूँण पुकार सुनकर सारी देवसभा में एकदम सन्नाटा सा छा गया...थोड़ी देर के मौन के पश्चात ब्रह्मा जी ने कहा- अब तो इससे छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय यही है, कि हम सभी को भगवान विष्णु की शरण में चलना चाहिए और पृथ्वी के इस संकट निवारण हेतु उनसे प्रार्थना करनी चाहिए...
 तभी देव सभा में विराजमान यक्षराज सूर्यवर्चा ने अपनी ओजस्वी वाणी में कहा -हे देवगण! मूर दैत्य इतना प्रतापी नहीं जिसका संहार केवल विष्णु जी ही कर सकें, हर एक बात के लिए हमें उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए... आप लोग यदि मुझे आज्ञा दे तो मैं स्वयं अकेला ही उसका वध कर सकता हूँ ...
इतना सुनते ही ब्रह्मा जी बोले - नादान! मैं तेरा पराक्रम जानता हूँ , तुमने अभिमानवश इस देवसभा को चुनौती दी है ... इसका दंड तुम्हे अवश्य मिलेगा... आपने आप को विष्णु जी से श्रेष्ठ समझने वाले अज्ञानी ! तुम इस देव सभा से अभी पृथ्वी पर जा गिरोगे ... तुम्हारा जन्म राक्षस कुल में होगा,तुम्हारा शिरोछेदन एक धर्मयुद्ध के ठीक पहले स्वयं भगवान विष्णु द्वारा होगा और तुम सदा के लिए राक्षस बने रहोगे...
ब्रह्माजी के इस अभिशाप के साथ ही देव सूर्य वर्चा का अभिमान भी चूर चूर हो गया... वह तत्काल ब्रह्मा जी के चरणों में गिर पड़ाऔर विनम्र भाव से बोला -भगवन ! भूलवश निकले इन शब्दों के लिए मुझे क्षमा कर दे... मैं आपकी शरणागत हूँ... त्राहिमाम ! त्राहिमाम ! रक्षा करो प्रभु...
यह सुनकर ब्रह्मा जी में करुणा भाव उमड़ पड़े... वह बोले - वत्स ! तुने अभिमान वश देवसभा का अपमान किया है, इसलिए मैं इस अभिशाप को वापस नहीं ले सकता हूँ, हाँ इसमें संसोधन अवश्य कर सकता हूँ, कि स्वयं भगवन विष्णु तुम्हारे शीश का छेदन अपने सुदर्शन चक्र से करेंगे, देवियों द्वारा तुम्हारे शीश का अभिसिंचन होगा, फलतः तुम्हे देवताओं के समान पूज्य बननेका सौभाग्य प्राप्त होगा...
तत्पश्चात भगवान श्रीहरि ने भी इस प्रकार यक्षराज सुर्यवार्चा से कहा -

"उस समय देवताओं की सभा में श्रीहरि ने कहा - हे वीर! ठीक है, तुम्हारे शीश की पूजा होगी, और तुम देव रूप में पूजित होकर प्रसिद्धि पाओगे...
अपने अभिशाप को वरदान में परिणिति देख कर सूर्यवर्चा उस देवसभा से अदृश्य हो गए... ]


  फिर कृष्ण ने देवी चंडिका से कहकर बर्बरीक के सिर को अमृत से सिंचित करवाकर अमर करा दिया.तब बर्बरीक के शीश ने कृष्ण से पूरा युद्ध देखने की इच्छा जताई. भगवान कृष्ण ने कहा एवमस्तु ....बर्बरीक का शीश पर्वत की सबसे ऊँची चोटी पर रखवा दिया. जहाँ से बर्बरीक ने सम्पूर्ण महाभारत देखी. युद्ध में विजयी होने पर पांडवों को घमंड हो गया. भीम को लगता था युद्ध में उनके कारण जीत हुई .अर्जुन को लगता मेरे कर्ण जीत हुई. कृष्ण ने कहा चलिए बर्बरीक से पूछते हैं किसके कारण जीत हुईक्योंकि उन्कोने पूरा युद्ध देखा है . बर्बरीक से पूछने पर बर्बरीक ने बताया किमैंने  सिर्फ कृष्ण के सुदर्शन चक्र को युद्ध करते देखा.उसी ने कौरवों का नाश किया. शेष किसी को नहीं. यह सुनकर सभी पांडव लज्जित हो गये . बर्बरीक की बात सुनकर देवलोक से पुष्प वर्षा होने लगी . इसके बाद में श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से अपने कृत्य के लिए क्षमा भी मांगी.भगवान कृष्ण ने बर्बरीक को वरदान दिया कि तुम कलयुग में श्याम नाम से पूजे जाओगे. मित्रों वही बर्बरीक आज खाटूश्यामजी के नाम से प्रसिद्द हैं कालान्तर में वीर बर्बरीक का शालिग्राम शिला रूप में परिणित वह शीश राजस्थान के सीकर जिले के खाटू गाँव में चमत्कारिक रूप से प्रकट हुआ और वहाँ के राजा के द्वारा मंदिर में स्थापित किया गया... श्रद्धालु आज उन्हें खाटूश्याम के नाम से पूजते हैं