आज -
कल सोचते ही रहता
हूँ
कुछ
नहीं और ये ही करता
हूँ
ज़िन्दगी
बीत रही है फिर भी
सच
में क्या रोज़ थोड़ा मरता हूँ
सच
में चाहत बहुत है करने की
वज़ह
इतनी भी नहीं डरने की
तो
भी कर पाता नहीं जो करना
फिर
भी चाहत है रंग भरने की
इसी
ज़िद से मैं थोड़ा ज़िन्दा हूँ
बिना
पर उड़ता सा परिंदा हूँ
अपनी
शर्तों पे जीने का है मजा
नहीं,
बिलकुल नहीं, शर्मिंदा हूँ
अपने
ढंग से जो तुम्हें जीना है
ऐसे
में कुछ गरल तो पीना है
वहीं
से निकलेगा अमृत भी तो
तुम
पे निर्भर है कैसे
पीना है
पवन
तिवारी
०२/०५/२०२२
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें