एक अकेलापन
भारी है
अच्छा
है खुद से यारी है
खिड़की
छत औ दीवारें
हैं
बात
– चीत इनसे जारी है
अदना
एक रसोई खाना
उससे
भी तो है बतियाना
तरकारी
और दाल का झगड़ा
बोलो
किसको आज पकाना
बर्तन
भी तो खुद
धोना है
नहीं
मगर आपा खोना
है
माना
एक कलेजा भी है
रोने
का भी इक कोना है
बाहर
में अच्छा दिखना है
समय
के साथ में भी भगना है
कलम
से ब्याह रचा आये हो
अधरों
पर उसके लिखना है
कागज
कलम भी एक साधना
कठिन
बड़ा है खुद को बाँधना
जान
पे आफत आ
सकती है
मुश्किल
है ज्यों ऊँट नाधना
शब्दों
का पथ बड़ा नुकीला
जैसे
रेगिस्तान में टीला
फिर
भी यदि तुम डटे रहे तो
होगी
पवन सिद्ध फिर लीला
पवन
तिवारी
३०/०४/२०२२
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