आकृति
का आकर्षण ऐसा बिन
बूझे दौड़ा आया हूँ
ऐसा इंद्रजाल काया का जैसे मैं सब पर छाया हूँ
प्रकट हुआ जब सत्य भानु सा माया के घनमाल कटे
तन मन दोनों हुए धूसरित मृदुपूरित धोखा खाया हूँ
हिय हीन वेदना से दोलित हो करके मही पर गिरता हूँ
आकुल आकृति को लिए हुए ज्यों तारापथ पर फिरता हूँ
ऐसी
अनपेक्षित स्थिति है दारुण दुःख से भी कहीं विशद
दिनकर
अपराहन अस्त हुआ ज्यों काल रात्रि से घिरता हूँ
माया
से बढ़कर रति प्रपंच जाना हूँ जब छल पाया हूँ
हूँ
दारा से अनुरक्ति लगा निज पर ही अनादर
ढाया हूँ
सुषमा
की अभिलाषा ने ज्यों पौरुष का मर्दन किया मेरे
रोया
अंदर, सिसकियाँ भरा जग के समक्ष पर गाया
हूँ
अब
हाय - हाय की ध्वनि प्रतिक्षण हिय से निकले पछताता हूँ
जब
कभी कृपा कर धी आती तब ही खुद को समझाता
हूँ
यह
स्वर्ण कलश में गरल सा है इसको केवल शिव
धार सके
बहुधा
विक्षिप्त सा हो करके पुनि- पुनि इस पथ पर आता हूँ
पवन
तिवारी
२४/०४/२०२२
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