देह मिलने की कभी
अभिलाषा जागी ही नहीं
प्रेम इतना चाहता था
मन से हो जाए मिलन
जो भी मेरे यत्न हैं
बस मूल उनका इतना भर
मेरी इतनी चाह है बस,
तेरे अधरों का खिलन
प्रेम सुरसरि है गणित
मैंने कभी माना नहीं
तुम्हरी मर्जी सो
करो तुम मैं न करता आकलन
रूठने, रोने, बिछड़ने की नहीं मैं सोचता
मैं तुम्हारी
मुस्कराहट का करूँ बस संकलन
प्रेम की इक दृष्टि का
भी गान मैं कैसे करूँ
देखने भर से
तुम्हारे सब दुखों का स्खलन
है मुझे विश्वास
आओगी अगर मेरे साथ में
कर सकूँगा हँसते-हँसते
बस विकारों का दलन
पूस की रातों में भी
जब याद करता हूँ तुम्हें
सच कहूँ तो भाग जाती
शीत की भारी गलन
प्रेम भी इक अनल है ऐसा न कोई देवता
स्वर्ण जैसा शुद्ध कर दे
प्रेम है ऐसी जलन
पवन तिवारी
संवाद - ७७१८०८०९७८
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