खेती करना मरने जैसा
गाँव नहीं अब रहने जैसा
कहने को बहु लोग
कहें हैं
नहीं रहा कुछ करने जैसा
कुछ को बातें बुरी
लगेंगी
कुछ को थोड़ी सही लगेंगी
गाँव का वासी ही सच
जाने
गाँव की मेड़ें सड़ी लगेंगी
जब देखो अकाल पड़
जाता
खेत आवारा पशु खा
जाता
सरकारों के इंतज़ार में
हरा खेत यूँ ही चर जाता
सूखे से घटती आबादी
ओला से भी हो बर्बादी
बाढ़ में यदि अनुदान
मिले भी
उसको भी खा जाये
खादी
मजबूरी का नाम
किसानी
कहने को भारत की
निशानी
नये – नये तो नगर को
भागे
गाँव में कैसे कटे जवानी
गाँव स्वर्ग थे नर्क
हो गये
अर्थ के कारण फर्क
हो गये
खाली हाथ झुलाते कब
तक
झूठे - मूठे तर्क हो
गये
बाग़ भी कटते-कटते कट
गये
ताल भी पटते-पटते पट
गये
अब सूखे का
रोना रोते
जल के सारे स्रोत
निपट गये
रिश्ते भी स्वारथ
में बंट गये
अपने ही अपनों को चट
गये
यहाँ भी पश्चिम
आते ही
भाई भी भाई से कट गये
मुश्किल में मजदूरी है
जीना भी तो जरुरी है
इसीलिये हैं भाग रहे सब
गाँव से बढ़ती दूरी है
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक –
पवनतिवारी@डाटामेल.भारत
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