ओ आदिवासियों, खानाबदोशों,
गरीबों, श्रमिकों,
मजदूरों
आदमी की परिभाषा से
निष्कासित लोगों सुनो
– सुनो !
मैं तुम पर कविता
क्यों नहीं लिखता ?
कविता की मूल पहचान,
उसका स्वर, पता है ?
तुम्हें कैसे पता
होगा !
हाँ, तुम्हें पता होगी
!
भूख की पीड़ा, अपमान
की,
नीच की, अछूत की
हेयता की, अधिकारों के
वंचन की,
उपहास और दुत्कार की
पीड़ा,
ये तो पता होगी !
हाँ, हाँ, ये तो पता
होगी !
तभी तो नहीं लिखता,
तुम पर कविता !
कविता की मूल पहचान
संवेदना, पीड़ा,
उपेक्षा,
अपमान और संघर्ष है.
ये सब, तुम्हारी
आखों में है.
जब भी तुम्हारी
टिमटिमाती या
डबडबाई पनीली आँखे
देखता हूँ,
मुझे तुम्हारी आँखों
में, दुनिया भर की
श्रेष्ठ कवितायेँ
तैरती हुई,
नजर आती हैं.
तुम्हारे मस्तक की
लकीरें
कविता के एक पूरे
इतिहास की
गवाही देती हैं.
तुम खुद हजारों –
हजार
जीती-जागती कविताओं
के
शिखर पुरुष हो !
मैं, ऐसे में तुम पर,
क्या कविता लिखूँ ?
मुझे क्षमा करना,
मेरी क्षमता नहीं है
कि
मैं तुम पर कविता
लिखकर
तुम्हारे विराट व्यक्तित्व
और तुम्हारे
अस्तित्व का
तुच्छ आकलन कर सकूँ.
इसीलिये मैं तुम पर
कविता नहीं लिखता.
पवन तिवारी
सम्वाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – पवनतिवारी@डाटामेल.भारत
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें