मैं स्वतंत्र पथ का अनुगामी बंधन नहीं मुझे भाया
बात-बात पर हाँ जी-
हाँ जी अति सुन्दर ना कह पाया
आया नहीं अर्थ की खातिर चरण पादुका सर धरने
मैं स्वतंत्रता सत्य
का वाहक मैं चारण नहि बन पाया
मैं निज का अवलम्ब
और निज व्योम लिए फिरता हूँ
मैं प्रसन्न अपने पथ
पर गिर-गिर पुनि-पुनि उठता हूँ
खा सकता बादाम शारदे
नहि पिंजर में मैं रहकर
तेरा शब्द पुत्र
हूँ मैं संघर्षों
से नहि डरता
हूँ
मेरे शब्द राष्ट्र
को अर्पित मेरी कविता जन - मन को
स्वाभिमान ही प्रथम
रहा मैं गिरा नहीं लोलुप धन को
जो जीवन में सहज
मिला उसको ही लगाया मस्तक से
मेरी कविता गीत
मेरे सब अर्पित हैं प्रति जन-जन को
जाने कितनों ने
व्यंग कसे जाने कितने उपहास किये
सौ कहने वालों
में केवल इक्का – दुक्का साथ दिए
पथ से जाते
देख मुझे वे हेय दृष्टि से देखा करते
पर मेरी कविता
व सत्य ने धैर्य पूर्वक साथ दिये
जो कवि को चारण समझे
उनके भी दुर्दिन आयेंगे
जो कवि का उपहास उड़ाते भीख माँग कर खायेंगे
सब विक्रय होता जग में पर विवेक का मोल नहीं
सच्चे कवि तो युगों -
युगों तक यूँ ही गाये जायेंगे
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com
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