क्या कहूँ सम्मान का
अपमान का
जय,पराजय और
आत्मसम्मान का
मन अहं पोषित हुआ
सम्मान पाकर
पर उदर भूखा रहा सम्मान
पाकर
एक तन की वृत्तियाँ
हैं कई – कई
मान में अपमान निहित
कई – कई
जब भी करता बात मैं
सम्मान की
गृहणी करती बात
चूल्हेदान की
सारा गर्वित मन ही
क्षण में बिखरता
फिर उदार का राग मन
को अखरता
पहले करता था, मैं
अब करता नहीं
सम्मान की बातें मैं
अब करता नहीं
गृहणी कहती इससे घर
चलता नहीं
घर - गृहस्ती का नगर
पलता नहीं
मान संग कुछ अर्थ तो
लाओ सही
घर चलेगा कैसे क्या
अनुचित कही
कविता,कहानी आप की
मैं सब सुनूँगी
हो विभूक्षित उदर तब
भी मैं सुनूँगी
पर इन नन्हें बच्चों
से कैसे कहूँगी
पेट कविता से भरो कह न सकूँगी
कह भी दूँ निर्लज्ज
हो वो समझेंगे क्या
वे तुम्हारी कविता -
वविता समझेंगे क्या
जब बड़े होंगे तो
समझेंगे तुम्हारे मान को
पहले पोषण दो बड़े
हों तब तो जाने मान को
मान, ना सम्मान,ना
कुछ और अभिलाषा मेरी
मेरे बच्चों की खुशी
, बस वही आशा मेरी
कुछ प्रयोजन तो करो,
घर गृहस्ती भी चले
अर्थ बिन सब कुछ
अधूरा जिन्दगी भी ना चले
पवन तिवारी
सम्पर्क – 7718080978
poetpawan50@gmail.com
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