अपने खातिर नहीं
अपनों की खातिर
जो लुटे पिटे हैं
अपनों की ख़ातिर
जो झुके ना कभी
अपनी रौ में रहे
जिन्दगी को जिये
अपने ही ढंग से
पर वे जब भी झुके
अपनों की खातिर
कभी ना किसी की
जो परवाह किये
मस्त मौला रहे
फक्कड़ों सा जिये
एक परिवार की
बेबसी देखकर
खुद के सम्मान को
दांव पे रख दिये
अपनों की खातिर
अपनी खुशियों की बलि
अपनी स्वायत्तता
खुद ही गिरवी रखी
अपनों की खातिर
कभी बेटी का मुंह
कभी बेटे का मुंह
कभी भाई,बहन
और माँ देखकर
अपने अरमानों का
यूं गला घोंटकर
सर झुका चुप रहा
अपनों की ख़ातिर
समय बदला तो
सबके दिन अच्छे हुए
सब अच्छे हुए
हम बुरे हो गये
सारे बलिदानों को
कर किनारे सभी
एक स्वर में कहें
तुमने जो भी किया
वो तो कर्तव्य था
कोई एहसान ना
क्या कोई उनके
कर्तव्य होते नहीं
अपने होकर भी
अपने वे होते नहीं
स्वार्थ सधते ही सब
गैर क्यों हो गये
हम थे अपने तो
पराये अब क्यों हो
गये
कोई उत्तर नहीं
प्रश्न ही प्रश्न
हैं
क्यों लुटे और पिटे
अपनों की खातिर
पवन तिवारी
सम्पर्क – 7718080978
poetpawan50@gmail.com
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