ज़िंदगी छूटती जा
रही हाथ से
बात बनती नहीं आज कल बात से
किस फरेबी ने भी चाल कैसी
चली
सारे संबंध लेकर
गया घात से
बिन किसी बात के सब छिटकते
गये
इक सहज बात पर भी बिदकते
गये
कुछ समझ पा रहा था नहीं
क्या हुआ
देखते – देखते हम बिखरते गये
द्वार आशा के
सब बंद यों हो गये
निर्गत काव्य से
छंद ज्यों हो गये
मुँह के बल गिरती जाती रही
कोशिशें
जो भी अच्छा किये दण्ड
क्यों हो गये
फिर अचानक ही सब ठीक होने
लगा
मेरा बोझा कोई और ढोने लगा
फिर समझ आया खेला था सब काल
का
ऐसी खुशियाँ मिली हँस के
रोने लगा
पवन तिवारी
१३/१२/२०२४
वाह! सुंदर।
जवाब देंहटाएंकाल की गति ऐसी हो होती है
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