कल यूट्यूब पर
एक साहित्यिक
साक्षात्कार देखा,
किसी पत्रकार ने
एक कवि से पूछा-
अपनी मां के बारे में
कुछ बताइए,
वह बताने लगा और
मैं अपनी मां की
स्मृतियों में खो गया!
मेरी माँ, मेरी पुस्तक में
छपे अक्षर
बड़े ध्यान से
निहारता थी पर,
कुछ बोलती नहीं थी;
जब मैं उनसे
पढ़ने को कहता,
वह हँसकर रह जाती
और कहती तुम पढ़ो!
और वह
किसी काम के बहाने
उठ कर चली जाती!
कड़ाके की ठंड में भी
अम्मा नंगे पैर ही
दौड़ - दौड़ सारा
काम करती थी,
एक ही साड़ी थी,
वह भी दो जगह से
जली और दो जगह से
पैबंद लगी हुई,
पर अम्मा कभी
बाबू जी से कोई
शिकायत नहीं की!
वह हमें कई बार
ढिबरी के प्रकाश में
पढ़ते हए किवाड़ के
ओट से देखती थी!
कुछ दिनों में ही
पता चल गया,
माँ, जिन्हें हम
अम्मा कहते थे!
कभी विद्यालय ही
नहीं गई थी पर,
गिनती उन्हें
100 तक आती थी!
जोड़ घटाना, गुणा भाग में
हमसे तेज थी!
अम्मा पढ़ी नहीं थी पर,
उनकी कल्पना,
उनके सपने बहुत थे!
वह मुझमें अपने सपने
रोज थोड़े-थोड़े भरती थी;
जब हम उनके पास
जाड़े में फटी रजाई में
उनसे लिपट के सोते थे तो,
अम्मा कहती- जब तुम
बड़े होकर कमाओगे तो,
तुम मुझे
नई रजाई बनवाना!
मेरे लिए खटाऊ मिल की
सूती साड़ी लाना!
आंगन में नल गड़वाना,
ताकि दूसरे के घर से
हमें पानी लेने
न जाना पड़े!
और फिर हमसे
हुँकारी भरवाती, और कहती,
बोलो- बड़े होकर
अम्मा के लिए
साड़ी लाओगे!
मैं हुंकारी भरते हुए कहता-
हाँ अम्मा! मैं बड़ा होकर
मुंबई जाऊंगा,
तुम्हारे लिए साड़ी,
ठंडा तेल और
चप्पल भी लाऊंगा,
इतना सुनकर
अम्मा खुश होकर
मुझे अपनी छाती से
जोर से चिपका लेती;
मेरे सर को सहलाती और
मैं सो जाता!
कुछ दिनों बाद
चाचा के बेटों ने
अम्मा को द्वार पर
घसीट - घसीट कर मारा
पेट में लात से मारा,
मुँह से खून आ गया था!
मुझे लगा अम्मा
मेरे बड़ा होने से पहले
मर जाएगी और
उसके सपने
उससे भी जल्दी!
वह मेरे बड़े होने की
प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी;
सो बचपन में ही
मुंबई भाग आया और
बन गया दिहाड़ी मजदूर,
पैसे कमाकर अम्मा को
मुंबई लाया, कराया इलाज!
हाँ,कुछ खरीद नहीं सका,
बाद के दिनों में
अम्मा के लिए खरीदा
खटाऊ मिल की सूती साड़ी,
हवाई चप्पल और ठंडा तेल!
यह सब पाकर
अम्मा फूले नहीं समाई थी,
फिर अम्मा के सपने
भाइयों बहनों के सपने
बन गए और मैं
पूरा करता गया!
जब कभी सर
दर्द करता तो
अम्मा की याद आती;
जब किसी खुरदुरे
चेहरे वाली अधेड़ स्त्री
को देखता तो
अम्मा की याद आती,
अम्मा के सपने
पूरे हो गए और आज
मैं बच्चे से
अधेड़ हो गया;
अब अम्मा कोई
फरमाइश नहीं करती ,
वह एकदम
बूढी हो गई है!
थोड़ा ऊंचा सुनती है;
अब गांव जाता हूँ
अम्मा के पास तो
मुझे देखकर
अम्मा की आंखें
भर आती हैं और
एक शब्द फूटता है
बाबू! आ गये।
इतना लिखने में
30 साल गुजर गए।
पवन तिवारी
१२/०९/२०२४
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