प्रेम के जैसे बरस रही है बरसा
जैसे झर - झर बरस रहा है
रह रह के कुछ गरज रहा है
टिप - टिप बीच में
करता
कितने दिनों से था आकुल मन
तरसा
सावन से पहले अषाढ़ मन हरसा
मिट्टी का रंग पीला हो गया
जो सूखा था गीला हो गया
कनक रंग के दादुर गायें
हँस - हँस बरसो बरसा
सावन से पहले अषाढ़ मन हरसा
उफ़ छुट्टी गरमी की हो गयी
हवा में भी नरमी सी हो गयी
यूँ अषाढ़ को देख के सावन
हरसा
मेघों ने जो मन से जीवन
परसा
सावन से पहले अषाढ़ मन हरसा
पवन तिवारी
२१/०७/२०२४
ऋतु अनुरूप अति सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसादर।
------
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २३ जुलाई २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
अनेक धन्यवाद
हटाएंसुंदर अभिव्यक्ति पवन जी! 🙏
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं