भारत - भारत की ध्वनि है तो
निकट से देखो अरुण ही होगा
नाग कालिया भय खाता
हो
फिर समझो वह गरुण ही होगा
धरने वाला गरल कंठ में
जग जाने केवल शिव होगा
असम्भव को संभव कर दिया
उसके अंतर में इव होगा
मैं अगस्त्य का शेष वंश हूँ
पर्वत को भी को झुकना होगा
जो संकेत समझ न पाए
वो कहते हैं रुकना होगा
बिन जननी के जनक हुआ हूँ
आदि शक्ति को आना होगा
मुझसे बैर जगत के बैरी
को इस जग से
जाना होगा
पवन तिवारी
२०/०७/२०२४
नोट : रात में पौने एक बजे सोते समय यह कविता अवतरित हुई. उठकर
बत्ती जलाया और लिखा. तब जाकर सो सका.
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