ये बारिश !
बुझाती रहती है,
जगत की
न बुझने वाली
प्यास को सतत !
ये बारिश ! कितने ही
रोते हुए चेहरे की,
इज्ज़त बचा लेती है!
ये बारिश ! कितने ही
मटमैले चेहरों को
धो देती है,
फटी हुई धरती को
सी देती है,
मरी हुई नदियों,
तालाबों, पोखरों, तालों को
ज़िंदा कर देती है !
प्रकृति कि उदासी को,
धूल की तरह झाड़कर;
चमका देती है!
प्यास से मरते
नन्हें पौधों और
वनस्पतियों को,
बचा लेती है !
आसमान का
धूसरित मुँख
धो देती है !
किसानों को
देती है,
आशा की मुस्कान !
देती है सृष्टि को
नव उत्साह और
हम क्या करते हैं,
उसके लिए ?
हम पेड़ काटते हैं,
हम तालाब पाटते हैं,
हम कंक्रीट करते हैं,
हम ! पहाड़, नदी,
समुद्र, सब पर
कब्जा कर रहे हैं!
हम बारिश को घेर कर
उसी तरह मार रहे हैं,
जैसे- कौरवों ने
मारा था अभिमन्यु को !
और फिर
धूर्तों की तरह,
अट्टहास करते हुए
कोसते हैं बारिश को,
अकाल और गर्मी पर !
पवन तिवारी
११/०७/२०२४
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