जैसे अकेली इमारत
धीरे-धीरे होती है उदास !
जमती है धूल,
उभरती हैं पपड़ियाँ,
उभर आती हैं दरारें!
कभी-कभी
दरकता सा है कुछ,
शरीर पर
जमने लगती है काई,;
और फिर
ढहने लगता है
रुक रुक कर
कोई हिस्सा!
और एक दिन
भरभराकर
ढह जाती है इमारत,
अकेलापन
कर ही देता है ध्वंस,
कोई भी जो
अकेलेपन के साथ
अकेला है, - इसी क्रम में
होता है ध्वंस !
पवन तिवारी
२६/०६/२०२४
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