कटता नहीं है फिर भी जैसे
काट रहा हूँ
समय को जैसे थोड़ा – थोड़ा बाँट
रहा हूँ
ये झुंझलाहट, बेचैनी कुछ और नहीं
इन सबके संग जैसे खुद को
डाँट रहा हूँ
नहीं सूझता जब कुछ किस पर
दोष मढूं
घिरा हुआ हूँ जंजालों से किधर बढूँ
तब सारा कुछ प्रारब्धों
पर मढ़ देता हूँ
कहता है तब ह्रदय ज़िन्दगी
और पढूँ
यही अकेलेपन में सबके संग होता है
थोड़ा बहुत ही खा पी के
अक्सर सोता है
खोता है वो स्वास्थ्य,समझ,प्रतिदिन जीवन में
जो अतीत हो चुका उसे अब भी ढोता
है
जो अतीत को झटक के आगे बढ़
जाता है
और दौड़ कर नयी
सीढ़ियाँ चढ़ जाता है
उसका जीवन फिर से
हरा – भरा होता
नये हौसलों से
जो जीवन गढ़ जाता है
पवन तिवारी
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