उम्र ऐसी कि सब ही भाने लगे
घटा बादल क़रीब आने लगे
बहका बहका सा उलझता रहता
धूल - मिटटी सभी सुहाने लगे
बाग कोयल की बोल अच्छी लगे
खेत, नदिया की धार अच्छी लगे
जो भी देखूँ वो मोह लेता है
देह सरसों, मटर की अच्छी लगे
आज – कल ठण्ड मज़ा
देती है
और वृद्धों को सज़ा देती है
प्यारी लगती हैं
ओस की बूँदें
हँसते मुखड़े से लजा देती है
रुखा सूखा भी
ख़ुशी देता है
करता मनमानी जैसे
नेता है
लोगों की सुन के अनसुना
करता
मन को भाये जो कर ही लेता
है
आज-कल क्रोध भागा फिरता है
आज कल सबको माफ़ करता है
प्यार होंठों से लिपट बैठा है
मीठा - मीठा ही शब्द झरता
है
क्या हुआ है पता नहीं लगता
कुछ तो अच्छा हुआ यही लगता
कोई कुछ साफ़ बताता भी नहीं
कोई इक बोला मजनूं सा लगता
पवन तिवारी
११/०५/२०२४
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