बहुत दिनों से पास बैठा है
खालीपन यूँ ही गाड़ के खूंटा
काम तो जैसे मुझसे रूठा है
बहुत दिनों से रात लम्बी है
और इक सुबह कि ठहरती नहीं
आती है और चली जाती है
दोपहर से पुराना झगड़ा है
उसको बस यूँ ही काट देता
हूँ
शाम को मैं पसंद करता हूँ
और वो जल्दी भाग जाती है
रात आती है ठहर जाती है
जैसे सीने पे बैठ जाती है
कभी कभी तो ऐसा लगता है
जैसे मेरी साँस अटकी जाती
है
जैसे तैसे उसे मनाता हूँ
मेरी अम्मा सुनाती किस्से
थी
पर उसे गीत मैं सुनाता हूँ
उसे सुनके, मुझे सुना के
नींद आती है,
इस तरह रात भी कट जाती है
मर के सपनों को कई साल हुए
काले थे जो सफ़ेद बाल हुए
आये थे जब तो लाल चेहरा था
अब तो सूखे से मेरे गाल हुए
मैंने सोचा था कई बार
बहुत कुछ अच्छा
कह भी देता था-
लोग कहते कि अभी है बच्चा
उस बच्चे से मिले
कोई छब्बीस साल हुये
इधर के सालों में उससे बड़े
मलाल हुए
मगर अब शांत हूँ, बस ऊबा
हूँ.
नहीं ऊपर हूँ बहुत और न ही
डूबा हूँ
जो भी थोड़े बहुत कमाल हुये
जो भी श्रम हो सका था हमने
किये
नहीं है गम कि हम हमाल हुए
पवन तिवारी
१२/०५/२०२४
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