आयु कोमल तेज भारी
खड्ग जैसी है दो धारी
व्याधि के हैं वज्र बरसे
नीच ग्रह दे
रहे गारी
पाप हैं प्रारब्ध के सब
ले रहे प्रतिशोध हैं अब
ऋण पुराना किंतु ऋण है
गणित इसका छोड़ता कब
छिटकते संबंध हैं सब
टूटते अनुबंध हैं सब
रक्त भी विघटित दिशा में
छिन्न लज्जित बंध हैं सब
वेदना में हँस
रहा
हूँ
स्वयं को ही डँस
रहा हूँ
अग्रसर हूँ मुक्ति पथ पर
लोग समझे फँस रहा हूँ
धर्म के पथ चल रहा हूँ
पांडवों सा गल रहा हूँ
मैं सनातन का हूँ मानक
धर्म जैसा पल
रहा हूँ
पवन तिवारी
२५/०४/२०२४
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