एक लेखक या कवि
रोज थोड़ा-थोड़ा मरता है.
और भरता है थोड़ा थोड़ा जीवन
अपनी कहानी और कविता में !
वो साहित्य भरता है- समाज
में,
मनुष्यता में थोड़ा - थोड़ा
जीवन
एक दिन साहित्यकार थोड़ा -
थोड़ा
मरते - मरते मर जाता है !
मर जाती है उसकी काया
किंतु,
वह अपने साहित्य से
समाज में थोड़ा - थोड़ा
जीवित होते – होते पूरी तरह
जी उठता है और फिर वह
हमेशा के लिए न केवल
जीवित रहता है बल्कि
रहता है सदा प्रसन्न और
जीवंत
और कहाता है महान,
बिना किसी काया के !
पवन तिवारी
३०/०१/२०२४
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें