कभी थोड़े चुपके से
दीदी ने प्यार से खिलाया था
अपने हिस्से का भात !
और बदले में पड़ी थी
पीछे से एक जोरदार लात !
आ गया था मुँह से बाहर
सारा का सारा भात ! और
टूट गया था आगे का आधा
दांत,
होंठ हो गये थे चटख लाल !
देखकर यह दृश्य भर आयी थी
दीदी की आँखें !
उतर आया था आँखों में आघात !
जाने कितने वर्षों बाद या
कहूँ
जीवन के ढलते वर्षों में
नसीब हुआ है बिना डर के
भर पेट खाने को भात,
तब वैद्य ने प्रेम से
समझाते हुए कहा-
जैसे कहते हों तात,
बिलकुल मत खाना भात !
यदि नहीं माने तो...
लगा जैसे आगे के शब्द कहेंगे,
लात से भी भारी पड़ेगा भात !
मन झुंझला कर बोला- हाय रे
भात!
पवन तिवारी
२३/०१/२०२४
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