प्रेम अनुरक्ति या कि समर्पण कहूँ
मेरा सब कुछ या स्व को ही
अर्पण हूँ
मुझमें जो भी है अच्छा मिला
आप से
आप का प्रेम या सत का दर्पण कहूँ
आप के आचरण का करूँ अनुगमन
शोक से त्रास तक होये सबका
शमन
द्वार से गृह मेरा तन मेरा
मन मेरा
कर ही देगा विमल आप का आगमन
अपना संबंध परिभाषा
से है परे
किन्तु जो भी कहें सब खरे
के खरे
जान लो तो सुखद अन्यथा मान
लो
कुछ नहीं समझे तो कृष्ण राधे हरे
इसके आगे कथन कथ्य कोई नहीं
रात्रि भी यह कथा सुन के
सोई नहीं
यह न लौकिक अलौकिक की
परिभाषा में
काल हँसता रहा
आँख रोई नहीं
पवन तिवारी
१२/०१/२०२३
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