साथी
के आँगन में देखा हूँ जब से
अन्तःकरण
मेरा व्याकुल थोड़ा तब से
तुमको
देखा पुनः ह्रदय तो मुस्काया
तुम्हें
ही सोचा तुम में ही डूबा डब से
निर्हेतुक
मैं खिंचा आ रहा तब से हूँ
अब
कहने का ना कोई इसका अर्थ है
रूप
निरूपम ऐसा है कि क्या बोलें
करूँ
निरूपण कितना क्या सब व्यर्थ है
वांछा
रहती और लिखूँ कुछ और है
किन्तु
लेखनी घुमा घुमा कर तुम्हें लिखे
वर्णमाल
में जितने सुंदर अक्षर हैं
मिल
करके वे सारे तुम में शब्द दिखें
तुम
बिन भी है महत्त्वपूर्ण ये जान के भी
ह्रदय
हराकर मुझे तुम्हीं पर लुटता है
समारोह में ऊँचे हैं व्यक्तित्व मगर
बिन तुम्हरे उर धीमे - धीमे घुटता है
मन
को तुमसे भटकाना चाहा बहुधा
किन्तु
ध्यान केन्द्रित है तुम पर ही हिय का
यही
प्रेम है या कह लो अनुरक्ति इसे
बिना
तुम्हारे जीना मुश्किल इस जिय का
पवन
तिवारी
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