दिन कटता है तो,
संध्या उलझ जाती है .
वो कटती है तो,
रात उलझ जाती है.
इसमें नन्हा दीपक
लड़ते हुए फँसकर
मर जाता है.
बचाते - बचाते
बाती जल जाती है !
और तो और; दीया,
काली हो जाती है.
ज़िंदगी जब
रूठकर आती है ,
पीड़ा भी ठीक से
नहीं बतियाती है.
फिर, आँख गरियाती है.
लगातार झरती जाती है.
समय की मार
इस तरह सताती है .
ज़िंदगी, ज़िंदगी से घबराती है.
मौत पास होकर भी
छूने से घबराती है .
तभी अंदर से
जीने की ज़िद
आवाज़ देती है !
फिर तो,
दुनिया ही बदल जाती है.
पवन तिवारी
१९/०६/ २०२२
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